श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
अविशुद्ध भावे दोष छेंताळीस सह ग्रही अशनने,
तिर्यंचगति मध्ये तुं पाम्यो दुःख बहु परवशपणे. १०१.
तुं विचार रे! — तें दुःख तीव्र लह्यां अनादि काळथी,
करी अशन-पान सचित्तनां अज्ञान-गृद्धि-दर्पथी१. १०२.
कंई कंद-मूलो, पत्र-पुष्पो, बीज आदि सचित्तने
तुं मान-मदथी खाईने भटक्यो अनंत भवार्णवे. १०३.
रे! विनय पांच प्रकारनो तुं पाळ मन-वच-तन वडे;
नर होय जे अविनीत ते पामे न सुविहित मुक्तिने. १०४.
तुं हे महायश! भक्तिराग वडे स्वशक्तिप्रमाणमां
जिनभक्तिरत २दशभेद वैयावृत्त्यने आचर सदा. १०५.
तें अशुभ भावे मन-वचन-तनथी कर्यो कंई दोष जे,
कर गर्हणा गुरुनी समीपे गर्व-माया छोडीने. १०६.
दुर्जन तणी निष्ठुर-कटुक वचनोरूपी थप्पड सहे
सत्पुरुष निर्ममभावयुत-मुनि ३कर्ममळलयहेतुए. १०७.
मुनिप्रवर ४परिमंडित क्षमाथी पाप निःशेषे दहे,
नर-अमर-विद्याधर तणा स्तुतिपात्र छे निश्चितपणे. १०८.
तेथी क्षमागुणधर! क्षमा कर जीव सौने ५त्रणविधे;
उत्तमक्षमाजळ सींच तुं चिरकाळना क्रोधाग्निने. १०९.
१. दर्प = ऊद्धताई; गर्व.
२. दशभेद = दशविध.
३. कर्ममळलयहेतुए = कर्ममळनो नाश करवा माटे.
४. परिमंडित क्षमाथी = क्षमाथी सर्वतः शोभित.
५. त्रणविधेे = त्रण प्रकारे अर्थात् मन-वचन-कायाथी.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय