श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
नोकर्म-कर्मे ‘हुं’, हुंमां वळी ‘कर्म ने नोकर्म छे’,
— ए बुद्धि ज्यां लगी जीवनी, अज्ञानी त्यां लगी ते रहे. १९.
हुं आ अने आ हुं, हुं छुं आनो अने छे मारुं आ,
जे अन्य को परद्रव्य मिश्र, सचित्त अगर अचित्त वा; २०.
हतुं मारुं आ पूर्वे, हुं पण आनो हतो गतकाळमां,
वळी आ थशे मारुं अने आनो हुं थईश भविष्यमां; २१.
अयथार्थ आत्मविकल्प आवो, जीव संमूढ आचरे;
भूतार्थने जाणेल ज्ञानी ए विकल्प नहीं करे. २२.
अज्ञानथी मोहितमति बहुभावसंयुत जीव जे,
‘आ बद्ध तेम अबद्ध पुद्गलद्रव्य मारुं’ ते कहे. २३.
सर्वज्ञज्ञान विषे सदा उपयोगलक्षण जीव जे,
ते केम पुद्गल थई शके के ‘मारुं आ’ तुं कहे अरे? २४.
जो जीव पुद्गल थाय, पामे पुद्गलो जीवत्वने,
तुं तो ज एम कही शके ‘आ मारुं पुद्गलद्रव्य छे’. २५.
जो जीव होय न देह तो आचार्य-तीर्थंकर तणी
स्तुति सौ ठरे मिथ्या ज, तेथी एकता जीव-देहनी! २६.
जीव-देह बन्ने एक छे — व्यवहारनयनुं वचन आ;
पण निश्चये तो जीव-देह कदापि एक पदार्थ ना. २७.
जीवथी जुदा पुद्गलमयी आ देहने स्तवीने मुनि;
माने प्रभु केवळी तणुं वंदन थयुं, स्तवना थई. २८.
पण निश्चये नथी योग्य ए, नहि देहगुण केवळी तणा;
जे केवळीगुणने स्तवे परमार्थ केवळी ते स्तवे. २९.
श्री समयसार-पद्यानुवाद ]
[ ३