श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
भाषा अनार्य विना न समजावी शकाय अनार्यने,
व्यवहार विण परमार्थनो उपदेश एम अशक्य छे. ८.
श्रुतथी खरे जे शुद्ध केवळ जाणतो आ आत्मने,
लोकप्रदीपकरा ॠषि श्रुतकेवळी तेने कहे. ९.
श्रुतज्ञान सौ जाणे, जिनो श्रुतकेवळी तेने कहे;
सौ ज्ञान आत्मा होईने श्रुतकेवळी तेथी ठरे. १०.
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ छे;
भूतार्थने आश्रित जीव सुद्रष्टि निश्चय होय छे. ११.
देखे परम जे भाव तेने शुद्धनय ज्ञातव्य छे;
अपरम भावे स्थितने व्यवहारनो उपदेश छे. १२.
भूतार्थथी जाणेल जीव, अजीव, वळी पुण्य, पाप ने
आसरव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष ते सम्यक्त्व छे. १३.
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य ने जे नियत देखे आत्मने,
अविशेष, अणसंयुक्त, तेने शुद्धनय तुं जाणजे. १४.
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जे अविशेष देखे आत्मने,
ते द्रव्य तेम ज भाव जिनशासन सकल देखे खरे. १५.
दर्शन, वळी नित ज्ञान ने चारित्र साधु सेववां;
पण ए त्रणे आत्मा ज केवळ जाण निश्चयद्रष्टिमां. १६.
ज्यम पुरुष कोई नृपतिने जाणे, पछी श्रद्धा करे,
पछी यत्नथी धन-अर्थी ए अनुचरण नृपतिनुं करे; १७.
जीवराज एम ज जाणवो, वळी श्रद्धवो पण ए रीते,
एनुं ज करवुं अनुचरण पछी यत्नथी मोक्षार्थीए. १८.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय