Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 148 of 214
PDF/HTML Page 160 of 226

 

background image
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
त्रणथी धरी त्रण, नित्य त्रिकविरहितपणे, त्रिकयुतपणे,
रही दोषयुगलविमुक्त ध्यावे योगी निज परमात्मने. ४४.
जे जीव माया-क्रोध-मद परिवर्जीने, तजी लोभने,
निर्मळ स्वभावे परिणमे, ते सौख्य उत्तमने लहे. ४५.
परमात्मभावनहीन, रुद्र, कषायविषये युक्त जे,
ते जीव जिनमुद्राविमुख पामे नहीं शिवसौख्यने. ४६.
जिनवरवृषभ-उपदिष्ट जिनमुद्रा ज शिवसुख नियमथी;
ते नव रुचे स्वप्नेय जेने, ते रहे भववन महीं. ४७.
परमात्मने ध्यातां श्रमण मळजनक लोभ थकी छूटे,
नूतन करम नहि आस्रवेजिनदेवथी निर्दिष्ट छे. ४८.
परिणत सुद्रढ-सम्यक्त्वरूप, लही सुद्रढ-चारित्रने,
निज आत्मने ध्यातां थकां योगी परम पदने लहे. ४९.
चारित्र ते निज धर्म छे ने धर्म निज समभाव छे,
ते जीवना १०वणरागरोष अनन्यमय परिणाम छे. ५०.
१४८ ]
[ शास्त्र-स्वाध्याय
१. त्रणथी = त्रण वडे (अर्थात् मन-वचन-कायाथी).
२. धरी त्रण = त्रणने धारण करीने (अर्थात् वर्षाकाळयोग, शीतकाळयोग तथा
ग्रीष्मकाळयोगने धारण करीने).
३. त्रिकविरहितपणे = त्रणथी (अर्थात् शल्यत्रयथी) रहितपणे.
४. त्रिकयुतपणे = त्रणथी संयुक्तपणे (अर्थात् रत्नत्रयथी सहितपणे).
५. दोषयुगलविमुक्त = बे दोषोथी रहित (अर्थात् राग-द्वेषथी रहित).
६. परमात्मभावनहीन = परमात्मभावना रहित; निज परमात्मतत्त्वनी
भावनाथी रहित.७. रुद्र = रौद्र परिणामवाळो.
८. जिनमुद्राविमुख = जिनसद्रश यथाजात मुनिरूपथी पराङ्मुख.
९. ते = निज समभाव.
१०. वणरागरोष = रागद्वेषरहित.