श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
निर्मळ स्फटिक परद्रव्यसंगे अन्यरूपे थाय छे,
त्यम जीव छे नीराग पण अन्यान्यरूपे परिणमे. ५१.
जे देव-गुरुना भक्त ने सहधर्मीमुनि-अनुरक्त१ छे,
२सम्यक्त्वना वहनार योगी ध्यानमां ३रत होय छे. ५२.
तप उग्रथी अज्ञानी जे कर्मो खपावे बहु भवे,
ज्ञानी ४त्रिगुप्तिक ते करम अंतर्मुहूर्ते क्षय करे. ५३.
५शुभ अन्य द्रव्ये रागथी मुनि जो करे ६रुचिभावने,
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे. ५४.
आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते,
तेथी ज ते छे ७अज्ञ, आत्मस्वभावथी विपरीत छे. ५५.
८कर्मजमतिक जे ९खंडदूषणकर स्वभाविकज्ञानमां,
ते जीवने अज्ञानी, १०जिनशासन तणा दूषक कह्या. ५६.
अष्टप्राभृत-मोक्षप्राभृत ]
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१. अनुरक्त = अनुरागवाळा; वात्सल्यवाळा.
२. सम्यक्त्वना वहनार = सम्यक्त्वने धारी राखनार; सम्यक्त्वपरिणतिए
परिणम्या करनार.
३. रत = रतिवाळा; प्रीतिवाळा; रुचिवाळा.
४. त्रिगुप्तिक = त्रण-गुप्तिवंत.
५. शुभ अन्य द्रव्ये = (शुभ भावना निमित्तभूत) प्रशस्त परद्रव्यो प्रत्ये.
६. रुचिभाव = ‘आ सारुं छे, हितकर छे’ एम एकाकारपणे प्रीतिभाव.
७. अज्ञ = अज्ञानी.
८. कर्मजमतिक = कर्मथी उत्पन्न थयेली बुद्धिवाळा; कर्मनिमित्तक वैभाविक
बुद्धिवाळा (जीव).
९. खंडदूषणकर स्वभाविकज्ञानमां = स्वभावज्ञानने खंडखंडरूप करीने दूषित
करनार (अर्थात् तेने खंडखंडरूप मानीने दूषण लगाडनार).
१०. जिनशासन तणा दूषक = जिनशासनने दूषित करनार अर्थात् दूषण
लगाडनार.