श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ज्यां ज्ञान चरितविहीन छे, तपयुक्त पण १द्रगहीन छे,
वळी २अन्य कार्यो ३भावहीन, ते लिंगथी सुख शुं अरे? ५७.
छे ४अज्ञ, जेह अचेतने ५चेतक तणी श्रद्धा धरे;
जे चेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे, ते ज्ञानी छे. ५८.
तपथी रहित जे ज्ञान, ज्ञानविहीन तप ६अकृतार्थ छे,
ते कारणे जीव ज्ञानतपसंयुक्त शिवपदने लहे. ५९.
७ध्रुवसिद्धि श्री तीर्थेश ८ज्ञानचतुष्कयुत तपने करे,
ए जाणी ९निश्चित ज्ञानयुत जीवेय तप कर्तव्य छे. ६०.
जे बाह्यलिंगे युक्त, आंतरलिंगरहित क्रिया करे,
ते १०स्वकचरितथी भ्रष्ट, शिवमारगविनाशक श्रमण छे. ६१.
११सुखसंग १२भावित ज्ञान तो १३दुखकाळमां लय थाय छे,
तेथी १४यथाबळ १५दुःख सह भावो श्रमण निज आत्मने. ६२.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय
१. द्रगहीन = सम्यग्दर्शन रहित.
२. अन्य कार्यो = बीजी (आवश्यकादि) क्रियाओ.
३. भावहीन = शुद्धभाव रहित.४. अज्ञ = अज्ञानी.
५. चेतक = चेतनार; चेतयिता; आत्मा.
६. अकृतार्थ = प्रयोजन सिद्ध न करे एवुं; असफळ.
७. ध्रुवसिद्धि = जेमनी सिद्धि (ते ज भवे) निश्चित छे एवा.
८. ज्ञानचतुष्कयुत = चार ज्ञान सहित.
९. निश्चित = नक्की; अवश्य.
१०. स्वकचरित = स्वचारित्र.
११. सुखसंग = सुख सहित; शाताना योगमां.
१२. भावित = भाववामां आवेलुं.
१३. दुखकाळमां = उपसर्गादि दुःख आवी पडतां.
१४. यथाबळ = शक्ति प्रमाणे.
१५. दुःख सह = कायक्लेशादि सहित.