श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
यद्यपि आत्म जणाय ने भिन्नपणे वेदाय,
पूर्वभ्रान्ति-संस्कारथी पुनरपि विभ्रम थाय. ४५.
द्रश्यमान आ जड बधां, चेतन छे नहि द्रष्ट;
रोष करुं क्यां? तोष क्यां? धरुं भाव मध्यस्थ. ४६.
मूढ बर्हि त्यागे-ग्रहे, ज्ञानी अंतरमांय;
१निष्ठितात्मने ग्रहण के त्याग न अंतर्बाह्य. ४७.
जोडे मन सह आत्मने, वच-तनथी करी मुक्त,
वच-तनकृत व्यवहारने छोडे मनथी सुज्ञ. ४८.
देहातमधी जगतमां करे रति विश्वास;
निजमां आतमद्रष्टिने क्यम रति? क्यम विश्वास? ४९.
आत्मज्ञान वण कार्य कंई मनमां चिर नहि होय;
कारणवश कंई पण करे त्यां २बुध तत्पर नो’य. ५०.
इन्द्रिद्रश्य ते मुज नहीं, इन्द्रिय करी निरुद्ध,
अंतर जोतां सौख्यमय श्रेष्ठ ज्योति मुज रूप. ५१.
प्रारंभे सुख बाह्यमां, दुख भासे निजमांय;
३भावितात्मने दुख बर्हि, सुख निजआतममांय. ५२.
तत्पर थई ते इच्छवुं, कथन-पृच्छना ए ज;
जेथी अविद्या नष्ट थई, प्रगटे विद्यातेज. ५३.
वच-काये जीव मानतो, वच-तनमां जे भ्रान्त;
तत्त्व ४पृथक् छे तेमनुं — जाणे जीव निर्भ्रान्त. ५४.
१. निष्ठितात्मने = शुद्ध स्वरूपमां स्थित आत्माने.
२. बुध = ज्ञानी. ३. भावितात्मने = आत्मस्वरूपने यथार्थपणे जाणनारने.
४. पृथक् = भिन्न; जुदुं.
१७० ]
[ शास्त्र-स्वाध्याय