श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
रागादिक-कल्लोलथी मन-जळ १लोल न थाय,
ते देखे चिद्तत्त्वने, अन्य जने न जणाय. ३५.
अविक्षिप्त मन तत्त्व निज, भ्रम छे मन २विक्षिप्त;
अविक्षिप्त मनने धरो, धरो न मन विक्षिप्त. ३६.
३अज्ञानज संस्कारथी मन विक्षेपित थाय;
ज्ञानज संस्कारे स्वतः तत्त्व विषे स्थिर थाय. ३७.
अपमानादिक तेहने, जस मनने विक्षेप;
अपमानादि न तेहने, जस मन नहि विक्षेप. ३८.
योगीजनने मोहथी रागद्वेष जो थाय;
स्वस्थ निजात्मा भाववो, क्षणभरमां शमी जाय. ३९.
तनमां मुनिने प्रेम जो, त्यांथी करी वियुक्त,
श्रेष्ठ तने जीव जोडवो, थशे प्रेमथी मुक्त. ४०.
४आत्मभ्रमोद्भव दुःख तो आत्मज्ञानथी जाय;
तत्र यत्न विण, घोर तप तपतां पण न मुकाय. ४१.
देहातमधी ५अभिलषे दिव्य विषय, शुभ काय;
तत्त्वज्ञानी ते सर्वथी इच्छे मुक्ति सदाय. ४२.
परमां निजमति नियमथी ६स्वच्युत थई बंधाय;
निजमां निजमति ज्ञानीजन परच्युत थई मुकाय. ४३.
निज आत्मा त्रण लिंगमय माने जीव विमूढ;
स्वात्मा वचनातीत ने स्वसिद्ध माने बुध. ४४.
१. लोल = चंचळ.२. विक्षिप्त =आकुलित.
३. अज्ञानज = अज्ञानथी उत्पन्न थयेला.
४. आत्मभ्रमोद्भव = आत्माना भ्रमथी उत्पन्न.
५. अभिलषे = इच्छे.६. च्युत = भ्रष्ट.
समाधितंत्र ]
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