श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ज्ञानात्मक मुज आत्म ज्यां परमार्थे वेदाय,
त्यां रागादिविनाशथी नहि अरि-मित्र जणाय. २५.
देखे नहि मुजने जनो, तो नहि मुज १अरि-मित्र;
देखे जो मुजने जनो, तो नहि मुज अरि-मित्र. २६.
एम तजी बहिरात्मने, थई मध्यात्मस्वरूप;
सौ संकल्पविमुक्त थई, भावो परमस्वरूप. २७.
ते भाव्ये ‘सोहम्’ तणा जामे छे संस्कार;
२तद्गत द्रढ संस्कारथी आत्मनिमग्न३ थवाय. २८.
मूढ जहीं विश्वस्त छे, ४तत्सम नहि भयस्थान;
जेथी डरे तेना समुं कोई न निर्भय धाम. २९.
इन्द्रिय सर्व निरोधीने, मन करीने स्थिररूप,
क्षणभर जोतां जे दीसे, ते परमात्मस्वरूप. ३०.
जे परमात्मा ते ज हुं, जे हुं ते परमात्म;
हुं ज सेव्य मारा वडे, अन्य सेव्य नहि जाण. ३१.
विषयमुक्त थई मुज थकी ज्ञानात्मक मुजस्थित,
मुजने हुं अवलंबुं छुं परमानंदरचित. ३२.
एम न जाणे देहथी भिन्न जीव अविनाश;
ते तपतां तप घोर पण, पामे नहि ५शिववास. ३३.
आतम-देहविभागथी ऊपज्यो ज्यां आह्लाद,
तपथी दुष्कृत घोरने वेदे पण नहि ताप. ३४.
१. अरि = शत्रु.२. तद्गत = ते संबंधी.
३. निमग्न = लीन.४. तत्सम = तेना जेवुं.
५. शिव = मोक्ष.
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