श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
भवदुःखोनुं मूळ छे देहातमधी जेह;
छोडी, १रुद्धेन्द्रिय बनी, अंतरमांही प्रवेश. १५.
अनादिच्युत निजरूपथी, रह्यो हुं विषयासक्त,
इन्द्रियविषयो अनुसरी, जाण्युं नहि ‘हुं’ तत्त्व. १६.
बहिर्वचनने छोडीने, अंतर्वच सौ छोड;
संक्षेपे परमात्मनो २द्योतक छे आ योग. १७.
रूप मने देखाय जे, समजे नहि कंई वात;
समजे ते देखाय नहि, बोलुं कोनी साथ? १८.
बीजा उपदेशे मने, हुं उपदेशुं अन्य;
ए सौ मुज ३उन्मत्तता, हुं तो छुं अविकल्प. १९.
ग्रहे नहीं अग्राह्यने, छोडे नहीं ग्रहेल,
जाणे सौने सर्वथा, ते हुं छुं ४निजवेद्य. २०.
५स्थाणु विषे नरभ्रान्तिथी थाय विचेष्टा जेम;
आत्मभ्रमे देहादिमां वर्तन हतुं मुज तेम. २१.
स्थाणु विषे विभ्रम जतां थाय सुचेष्टा जेम;
भ्रान्ति जतां देहादिमां थयुं प्रवर्तन तेम. २२.
जे रूपे हुं अनुभवुं निज निजथी निजमांही,
ते हुं, नर-स्त्री-इतर नहि, एक-बहु-द्विक नाहि. २३.
नहि पाम्ये निद्रित हतो, पाम्ये निद्रामुक्त,
ते निजवेद्य, अतीन्द्रि ने ६अवाच्य छे मुज रूप. २४.
१. रुद्धेन्द्रिय = रोकेली इन्द्रियोवाळो. २. द्योतक = प्रकाश करनार.
३. उन्मत्तता = उन्मादपणुं.४. निजवेद्य = पोताथी
अनुभववा योग्य.
५. स्थाणु = झाडनुं ठूंठुं.६. अवाच्य = न कही शकाय तेवुं.
समाधितंत्र ]
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