श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
अव्रति-जन व्रतने ग्रहे, व्रती ज्ञानरत थाय;
परम-ज्ञानने पामीने स्वयं ‘परम’ थई जाय. ८६
तनने आश्रित लिंग छे, तन जीवनो संसार;
तेथी लिंगाग्रही तणो छूटे नहि संसार. ८७.
तनने आश्रित जाति छे, तन जीवनो संसार;
तेथी १जात्याग्रही तणो छूटे नहि संसार. ८८.
जाति-लिंग-विकल्पथी आगम-आग्रह होय,
तेने पण पद परमनी संप्राप्ति नहि होय. ८९.
जे तजवा, जे पामवा, हठे भोगथी जीव;
त्यां प्रीति, त्यां द्वेषने मोही धरे फरीय. ९०.
अज्ञ २पंगुनी द्रष्टिने माने अंधामांय;
अभेदज्ञ जीवद्रष्टिने माने छे तनमांय. ९१.
विज्ञ न माने पंगुनी द्रष्टि अंधामांय;
३निजज्ञ त्यम माने नहीं जीवद्रष्टि तनमांय. ९२.
मात्र मत्त निद्रित दशा विभ्रम जाणे अज्ञ;
दोषितनी सर्वे दशा विभ्रम गणे निजज्ञ. ९३.
तनद्रष्टि ४सर्वागमी जागृत पण न मुकाय;
आत्मद्रष्टि उन्मत्त के निद्रित पण मुकाय. ९४.
जेमां मतिनी मग्नता, तेनी ज थाय प्रतीत;
थाय प्रतीति जेहनी, त्यां ज थाय मन लीन. ९५.
ज्यां नहि मतिनी मग्नता, तेनी न होय प्रतीत;
जेनी न होय प्रतीत त्यां केम थाय मन लीन? ९६.
१. जात्याग्रही = जातिनो आग्रही.२. पंगु = लंगडो.
३. निजज्ञ = आत्माने जाणनार. ४. सर्वागमी = सर्व शास्त्रोनो जाणनार.
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