श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
निज अनुभवथी प्रगट जे, नित्य शरीर-प्रमाण,
लोकालोक विलोकतो, आत्मा अतिसुखवान. २१.
इन्द्रिय-विषयो निग्रही, मन एकाग्र लगाय,
आत्मामां स्थित आत्मने, ज्ञानी निजथी ध्याय. २२.
अज्ञ-भक्ति अज्ञानने, ज्ञान-भक्ति दे ज्ञान;
लोकोक्ति — ‘जे जे धरे, करे ते तेनुं दान’. २३.
आत्मध्यानना योगथी, परीषहो न वेदाय,
शीघ्र ससंवर निर्जरा, आस्रव-रोधन थाय. २४.
‘चटाईनो करनार हुं’, ए बेनो संयोग;
स्वयं ध्यान ने ध्येय ज्यां, केवो त्यां संयोग? २५.
मोही बांधे कर्मने, निर्मम जीव मुकाय;
तेथी सघळा यत्नथी, निर्मम भाव जगाय. २६.
निर्मम एक विशुद्ध हुं, ज्ञानी योगी-गम्य;
संयोगी भावो बधा, मुजथी बाह्य अरम्य. २७.
देहीने संयोगथी, दुःख-समूहनो भोग;
तेथी मन-वच-कायथी, छोडुं सहु संयोग. २८.
क्यां भीति ज्यां अमर हुं, क्यां पीडा वण रोग?
बाल, युवा, नहि वृद्ध हुं, ए सहु पुद्गल जोग. २९.
मोहे भोगवी पुद्गलो, कर्यो सर्वनो त्याग;
मुज ज्ञानीने क्यां हवे, ए एंठोमां राग? ३०.
कर्म कर्मनुं हित चहे, जीव जीवनो स्वार्थ;
स्व प्रभावनी वृद्धिमां, कोण न चाहे स्वार्थ? ३१.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय