श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जे जिन ते हुं, ते ज हुं, कर अनुभव निर्भ्रान्त;
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न मंत्र, न तंत्र. ७५.
बे, त्रण, चार, ने पांच, छ, सात, पांच ने चार;
नव गुणयुत परमातमा, कर तुं ए निर्धार. ७६.
बे त्यागी, बे गुण सहित, जे आतमरस लीन;
शीघ्र लहे निर्वाणपद, एम कहे प्रभु जिन. ७७.
त्रण रहित, त्रण गुण सहित, निजमां करे निवास;
शाश्वत सुखना पात्र ते, जिनवर करे प्रकाश. ७८.
कषाय संज्ञा चार विण, जे गुण चार सहित;
हे जीव! निजरूप जाण ए, थईश तुं परम पवित्र. ७९.
दश विरहित, दशथी सहित, दश गुणथी संयुक्त;
निश्चयथी जीव जाणवो, एम कहे जिनभूप. ८०.
आत्मा दर्शन – ज्ञान छे, आत्मा चारित्र जाण;
आत्मा संयम – शील – तप, आत्मा प्रत्याख्यान. ८१.
जे जाणे निज आत्मने, पर त्यागे निर्भ्रान्त;
ते ज खरो संन्यास छे, भाखे श्री जिननाथ. ८२.
रत्नत्रययुत जीव जे, उत्तम तीर्थ पवित्र;
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न तंत्र, न मंत्र. ८३.
दर्शन जे निज देखवुं, ज्ञान जे विमळ महान;
फरी फरी आतमभावना, ते चारित्र प्रमाण. ८४.
ज्यां चेतन त्यां सकळ गुण, केवळी एम वदंत;
तेथी योगी निश्चये, शुद्धात्मा जाणंत. ८५.
एकाकी, इन्द्रियरहित, करी योगत्रय शुद्ध;
निज आत्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख. ८६.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय