श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जो परभाव तजी मुनि, जाणे आपथी आप;
केवळज्ञानस्वरूप लही, नाश करे भवताप. ६३.
धन्य अहो भगवंत बुध, जे त्यागे परभाव;
लोकालोकप्रकाशकर, जाणे विमळ स्वभाव. ६४.
मुनिजन के कोई गृही, जे रहे आतमलीन;
शीघ्र सिद्धिसुख ते लहे, एम कहे प्रभु जिन. ६५.
विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई;
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
आ परिवार न मुज तणो, छे सुख-दुःखनी खाण;
ज्ञानीजन एम चिंतवी, शीघ्र करे भवहाण. ६७.
इन्द्र, फणीन्द्र, नरेन्द्र पण नहीं शरण दातार;
शरण न जाणी मुनिवरो, निजरूप वेदे आप. ६८.
जन्म-मरण एक ज करे, सुख-दुःख वेदे एक;
नर्कगमन पण एकलो, मोक्ष जाय जीव एक. ६९.
जो जीव तुं छे एकलो, तो तज सौ परभाव;
आत्मा ध्यावो ज्ञानमय, शीघ्र मोक्षसुख थाय. ७०.
पापरूपने पाप तो जाणे जग सहु कोई;
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई. ७१.
लोहबेडी बंधन करे, सोनानी पण तेम;
जाणी शुभाशुभ दूर करे, ते ज ज्ञानीनो मर्म. ७२.
जो तुज मन निर्ग्रंथ छे, तो तुं छे निर्ग्रंथ;
ज्यां पामे निर्ग्रंथता, त्यां पामे शिवपंथ. ७३.
जेम बीजमां वड प्रगट, वडमां बीज जणाय;
तेम देहमां देव छे, जे त्रिलोकप्रधान. ७४.
योगसार ]
[ १८७