श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जीवमां स्वयं नहि बद्ध, न स्वयं कर्मभावे परिणमे,
तो एवुं पुद्गलद्रव्य आ परिणमनहीन बने अरे! ११६.
जो वर्गणा कार्मण तणी नहि कर्मभावे परिणमे,
संसारनो ज अभाव अथवा समय सांख्य तणो ठरे! ११७.
जो कर्मभावे परिणमावे जीव पुद्गलद्रव्यने,
क्यम जीव तेने परिणमावे जे स्वयं नहि परिणमे? ११८.
स्वयमेव पुद्गलद्रव्य वळी जो कर्मभावे परिणमे,
जीव परिणमावे कर्मने कर्मत्वमां — मिथ्या बने. ११९.
पुद्गलदरव जे कर्मपरिणत, निश्चये कर्म ज बने;
ज्ञानावरणइत्यादिपरिणत, ते ज जाणो तेहने. १२०.
कर्मे स्वयं नहि बद्ध, न स्वयं क्रोधभावे परिणमे,
तो जीव आ तुज मत विषे परिणमनहीन बने अरे! १२१.
क्रोधादिभावे जो स्वयं नहि जीव पोते परिणमे,
संसारनो ज अभाव अथवा समय सांख्य तणो ठरे! १२२.
जो क्रोध — पुद्गलकर्म — जीवने परिणमावे क्रोधमां,
क्यम क्रोध तेने परिणमावे जे स्वयं नहि परिणमे? १२३.
अथवा स्वयं जीव क्रोधभावे परिणमे — तुज बुद्धि छे,
तो क्रोध जीवने परिणमावे क्रोधमां — मिथ्या बने. १२४.
क्रोधोपयोगी क्रोध, जीव मानोपयोगी मान छे,
मायोपयुत माया अने लोभोपयुत लोभ ज बने. १२५.
जे भावने आत्मा करे, कर्ता बने ते कर्मनो;
ते ज्ञानमय छे ज्ञानीनो, अज्ञानमय अज्ञानीनो. १२६.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय