श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जीव हेतुभूत थतां अरे! परिणाम देखी बंधनुं,
उपचारमात्र कथाय के आ कर्म आत्माए कर्युं. १०५.
योद्धा करे ज्यां युद्ध त्यां ए नृपकर्युं लोको कहे,
एम ज कर्यां व्यवहारथी ज्ञानावरण आदि जीवे. १०६.
उपजावतो, प्रणमावतो, ग्रहतो अने बांधे, करे,
पुद्गलदरवने आतमा — व्यवहारनयवक्तव्य छे. १०७.
गुणदोषउत्पादक कह्यो ज्यम भूपने व्यवहारथी,
त्यम द्रव्यगुणउत्पन्नकर्ता जीव कह्यो व्यवहारथी. १०८.
सामान्य प्रत्यय चार निश्चय बंधना कर्ता कह्या,
— मिथ्यात्व ने अविरमण तेम कषाययोगो जाणवा. १०९.
वळी तेमनो पण वर्णव्यो आ भेद तेर प्रकारनो,
— मिथ्यात्वथी आदि करीने चरम भेद सयोगीनो. ११०.
पुद्गलकरमना उदयथी उत्पन्न तेथी अजीव आ,
ते जो करे कर्मो भले, भोक्ताय तेनो जीव ना. १११.
जेथी खरे ‘गुण’ नामना आ प्रत्ययो कर्मो करे,
तेथी अकर्ता जीव छे, ‘गुणो’ करे छे कर्मने. ११२.
उपयोग जेम अनन्य जीवनो, क्रोध तेम अनन्य जो,
तो दोष आवे जीव तेम अजीवना एकत्वनो. ११३.
तो जगतमां जे जीव ते ज अजीव पण निश्चय ठरे;
नोकर्म, प्रत्यय, कर्मना एकत्वमां पण दोष ए. ११४.
जो क्रोध ए रीत अन्य, जीव उपयोगआत्मक अन्य छे,
तो क्रोधवत् नोकर्म, प्रत्यय, कर्म ते पण अन्य छे. ११५.
श्री समयसार-पद्यानुवाद ]
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