श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता ते ज्ञानीने,
छे पृथ्वीपिंड समान ने सौ कर्मशरीरे बद्ध छे. १६९.
चउविध प्रत्यय समयसमये ज्ञानदर्शनगुणथी
बहुभेद बांधे कर्म, तेथी ज्ञानी तो बंधक नथी. १७०.
जे ज्ञानगुणनी जघन्यतामां वर्ततो गुण ज्ञाननो,
फरीफरी प्रणमतो अन्यरूपमां, तेथी ते बंधक कह्यो. १७१.
चारित्र, दर्शन, ज्ञान जेथी जघन्य भावे परिणमे,
तेथी ज ज्ञानी विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे. १७२.
जे सर्व पूर्वनिबद्ध प्रत्यय वर्तता सुद्रष्टिने,
उपयोगने प्रायोग्य बंधन कर्मभाव वडे करे. १७३.
अणभोग्य बनी उपभोग्य जे रीत थाय ते रीत बांधता,
ज्ञानावरण इत्यादि कर्मो सप्त-अष्ट प्रकारनां. १७४.
सत्ता विषे ते निरुपभोग्य ज, बाळ स्त्री ज्यम पुरुषने;
उपभोग्य बनतां तेह बांधे, युवती जेम पुरुषने. १७५.
आ कारणे सम्यक्त्वसंयुत जीव अणबंधक कह्या,
आसरवभावअभावमां नहि प्रत्ययो बंधक कह्या. १७६.
नहि रागद्वेष, न मोह — ए आस्रव नथी सुद्रष्टिने,
तेथी ज आस्रवभाव विण नहि प्रत्ययो हेतु बने; १७७.
हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्या,
तेनांय रागादिक कह्या, रागादि नहि त्यां बंध ना. १७८.
पुरुषे ग्रहेल अहार जे, उदराग्निने संयोग ते
बहुविध मांस, वसा अने रुधिरादि भावे परिणमे; १७९.
श्री समयसार-पद्यानुवाद ]
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