श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जे कर्मफळ ने सर्व धर्म तणी न कांक्षा राखतो,
चिन्मूर्ति ते कांक्षारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २३०.
सौ कोई धर्म विषे जुगुप्साभाव जे नहि धारतो,
चिन्मूर्ति निर्विचिकित्स समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३१.
संमूढ नहि जे सर्व भावे, — सत्य द्रष्टि धारतो,
ते मूढद्रष्टिरहित समकितद्रष्टि निश्चय जाणवो. २३२.
जे सिद्धभक्तिसहित छे, उपगूहक छे सौ धर्मनो,
चिन्मूर्ति ते उपगूहनकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३३.
उन्मार्गगमने स्वात्मने पण मार्गमां जे स्थापतो,
चिन्मूर्ति ते स्थितिकरणयुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३४.
जे मोक्षमार्गे ‘साधु’त्रयनुं वत्सलत्व करे अहो!
चिन्मूर्ति ते वात्सल्ययुत समकितद्रष्टि जाणवो. २३५.
चिन्मूर्ति मन-रथपंथमां विद्यारथारूढ घूमतो,
ते जिनज्ञानप्रभावकर समकितद्रष्टि जाणवो. २३६.
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७. बंध अधिकार
जेवी रीते को पुरुष पोते तेलनुं मर्दन करी,
व्यायाम करतो शस्त्रथी बहु रजभर्या स्थाने रही; २३७.
वळी ताड, कदळी, वांस आदि छिन्नभिन्न करे अने
उपघात तेह सचित्त तेम अचित्त द्रव्य तणो करे. २३८.
श्री समयसार-पद्यानुवाद ]
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