श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
पण सर्व द्रव्ये रागशील अज्ञानी कर्मनी मध्यमां,
ते कर्मरज लेपाय छे, ज्यम लोह कर्दममध्यमां. २१९.
ज्यम शंख विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त द्रव्यो भोगवे,
पण शंखना शुक्लत्वने नहि कृष्ण कोई करी शके; २२०.
त्यम ज्ञानी विविध सचित्त, मिश्र, अचित्त द्रव्यो भोगवे,
पण ज्ञान ज्ञानी तणुं नहीं अज्ञान कोई करी शके. २२१.
ज्यारे स्वयं ते शंख श्वेतस्वभाव निजनो छोडीने
पामे स्वयं कृष्णत्व, त्यारे छोडतो शुक्लत्वने; २२२.
त्यम ज्ञानी पण ज्यारे स्वयं निज छोडी ज्ञानस्वभावने
अज्ञानभावे परिणमे, अज्ञानता त्यारे लहे. २२३.
ज्यम जगतमां को पुरुष वृत्तिनिमित्त सेवे भूपने,
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोग आपे पुरुषने. २२४.
त्यम जीवपुरुष पण कर्मरजनुं सुखअरथ सेवन करे,
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोग आपे जीवने. २२५.
वळी ते ज नर ज्यम वृत्ति अर्थे भूपने सेवे नहीं,
तो भूप पण सुखजनक विधविध भोगने आपे नहीं; २२६.
सुद्रष्टिने त्यम विषय अर्थे कर्मरजसेवन नथी,
तो कर्म पण सुखजनक विधविध भोगने देतां नथी. २२७.
सम्यक्त्ववंत जीवो निःशंकित, तेथी छे निर्भय अने
छे सप्तभयप्रविमुक्त जेथी, तेथी ते निःशंक छे. २२८.
जे कर्मबंधनमोहकर्ता पाद चारे छेदतो,
चिन्मूर्ति ते शंकारहित समकितद्रष्टि जाणवो. २२९.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय