श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
करतो तुं अध्यवसान — ‘मारुं जिवाडुं छुं पर जीवने’,
ते पापनुं बंधक अगर तो पुण्यनुं बंधक बने. २६१.
मारो — न मारो जीवने, छे बंध अध्यवसानथी,
— आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चयनय थकी. २६२.
एम अलीकमांही, अदत्तमां, अब्रह्म ने परिग्रह विषे
जे थाय अध्यवसान तेथी पापबंधन थाय छे. २६३.
ए रीत सत्ये, दत्तमां, वळी ब्रह्म ने अपरिग्रहे
जे थाय अध्यवसान तेथी पुण्यबंधन थाय छे. २६४.
जे थाय अध्यवसान जीवने, वस्तु-आश्रित ते बने,
पण वस्तुथी नथी बंध, अध्यवसानमात्रथी बंध छे. २६५.
करुं छुं दुखी-सुखी जीवने, वळी बद्ध-मुक्त करुं अरे!
आ मूढ मति तुज छे निरर्थक, तेथी छे मिथ्या खरे. २६६.
सौ जीव अध्यवसानकारण कर्मथी बंधाय ज्यां
ने मोक्षमार्गे स्थित जीवो मुकाय, तुं शुं करे भला? २६७.
तिर्यंच, नारक, देव, मानव, पुण्य-पाप विविध जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६८.
वळी एम धर्म-अधर्म, जीव-अजीव, लोक-अलोक जे,
ते सर्वरूप निजने करे छे जीव अध्यवसानथी. २६९.
ए आदि अध्यवसान विधविध वर्ततां नहि जेमने,
ते मुनिवरो लेपाय नहि शुभ के अशुभ कर्मो वडे. २७०.
बुद्धि, मति, व्यवसाय, अध्यवसान, वळी विज्ञान ने
परिणाम, चित्त ने भाव — शब्दो सर्व आ एकार्थ छे. २७१.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय