श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
चारित्र-दर्शन-ज्ञान जरीये नहि अचेतन कर्ममां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते कर्ममां? ३६७.
चारित्र-दर्शन-ज्ञान जरीये नहि अचेतन कायमां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते कायमां? ३६८.
छे ज्ञाननो, दर्शन तणो, उपघात भाख्यो चरितनो,
त्यां कांई पण भाख्यो नथी उपघात पुद्गलद्रव्यनो. ३६९.
जे गुण जीव तणा, खरे ते कोई नहि परद्रव्यमां,
ते कारणे विषयो प्रति सुद्रष्टि जीवने राग ना. ३७०.
वळी राग, द्वेष, विमोह तो जीवना अनन्य परिणाम छे,
ते कारणे शब्दादि विषयोमां नहीं रागादि छे. ३७१.
को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
तेथी बधांये द्रव्य निज स्वभावथी ऊपजे खरे. ३७२.
रे! पुद्गलो बहुविध निंदा-स्तुतिवचनरूप परिणमे,
तेने सुणी, ‘मुजने कह्युं’ गणी, रोष तोष जीवो करे. ३७३.
पुद्गलदरव शब्दत्वपरिणत, तेहनो गुण अन्य छे,
तो नव कह्युं कंई पण तने, हे अबुध! रोष तुं क्यम करे? ३७४.
शुभ के अशुभ जे शब्द ते ‘तुं सुण मने’ न तने कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये कर्णगोचर शब्दने; ३७५.
शुभ के अशुभ जे रूप ते ‘तुं जो मने’ न तने कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये चक्षुगोचर रूपने; ३७६.
शुभ के अशुभ जे गंध ते ‘तुं सूंघ मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये घ्राणगोचर गंधने; ३७७.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय