श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
नहि मोह, ने नहि राग, द्वेष करे नहीं अर्थो विषे,
तो नियमथी मुनिराज ए विधविध कर्मो क्षय करे. २४४.
शुद्धोपयोगी श्रमण छे, शुभयुक्त पण शास्त्रे कह्या;
शुद्धोपयोगी छे निरास्रव, शेष सास्रव जाणवा. २४५.
वात्सल्य प्रवचनरत विषे ने भक्ति अर्हंतादिके
— ए होय जो श्रामण्यमां, तो चरण ते शुभयुक्त छे. २४६.
श्रमणो प्रति वंदन, नमन, अनुगमन, अभ्युत्थान ने
वळी श्रमनिवारण छे न निंदित रागयुत चर्या विषे. २४७.
उपदेश दर्शनज्ञाननो, पोषण-ग्रहण शिष्यो तणुं,
उपदेश जिनपूजा तणो — वर्तन तुं जाण सरागनुं. २४८.
वण जीवकायविराधना उपकार जे नित्ये करे
चउविध साधुसंघने, ते श्रमण रागप्रधान छे. २४९.
वैयावृते उद्यत श्रमण षट् कायने पीडा करे
तो श्रमण नहि, पण छे गृही; ते श्रावकोनो धर्म छे. २५०.
छे अल्प लेप छतांय दर्शनज्ञानपरिणत जैनने
निरपेक्षतापूर्वक करो उपकार अनुकंपा वडे. २५१.
आक्रांत देखी श्रमणने श्रम, रोग वा भूख, प्यासथी,
साधु करो सेवा स्वशक्तिप्रमाण ए मुनिराजनी. २५२.
सेवानिमित्ते रोगी-बाळक-वृद्ध-गुरु श्रमणो तणी,
लौकिक जनो सह वात शुभ-उपयोगयुत निंदित नथी. २५३.
आ शुभ चर्या श्रमणने, वळी मुख्य होय गृहस्थने;
तेना वडे ज गृहस्थ पामे मोक्षसुख उत्कृष्टने. २५४.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय