श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
फळ होय छे विपरीत वस्तुविशेषथी शुभ रागने,
निष्पत्ति विपरीत होय भूमिविशेषथी ज्यम बीजने. २५५.
छद्मस्थ-अभिहित ध्यानदाने व्रतनियमपठनादिके
रत जीव मोक्ष लहे नहीं, बस भाव शातात्मक लहे. २५६.
परमार्थथी अनभिज्ञ, विषयकषायअधिक जनो परे
उपकार-सेवा-दान सर्व कुदेवमनुजपणे फळे. २५७.
‘विषयो कषायो पाप छे’ जो एम निरूपण शास्त्रमां,
तो केम तत्प्रतिबद्ध पुरुषो होय रे निस्तारका? २५८.
ते पुरुष जाण सुमार्गशाळी, पाप-उपरम जेहने,
समभाव ज्यां सौ धार्मिके, गुणसमूहसेवन जेहने. २५९.
अशुभोपयोगरहित श्रमणो — शुद्ध वा शुभयुक्त जे,
ते लोकने तारे; अने तद्भक्त पामे पुण्यने. २६०.
प्रकृत वस्तु देखी अभ्युत्थान आदि क्रिया थकी
वर्तो श्रमण, पछी वर्तनीय गुणानुसार विशेषथी. २६१.
गुणथी अधिक श्रमणो प्रति सत्कार, अभ्युत्थान ने
अंजलिकरण, पोषण, ग्रहण, सेवन अहीं उपदिष्ट छे. २६२.
मुनि सूत्र-अर्थप्रवीण संयमज्ञानतपसमृद्धने
प्रणिपात, अभ्युत्थान, सेवा साधुए कर्तव्य छे. २६३.
शास्त्रे कह्युं — तपसूत्रसंयमयुक्त पण साधु नहीं,
जिन-उक्त आत्मप्रधान सर्व पदार्थ जो श्रद्धे नहीं. २६४.
मुनि शासने स्थित देखीने जे द्वेषथी निंदा करे,
अनुमत नहीं किरिया विषे, ते नाश चरण तणो करे. २६५.
श्री प्रवचनसार-पद्यानुवाद ]
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