श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
संस्थान-संघातो, वरण-रस-गंध-शब्द-स्पर्श जे,
ते बहु गुणो ने पर्ययो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे. १२६.
जे चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान, इन्द्रियग्राह्य नहि, ते जीव छे. १२७.
संसारगत जे जीव छे परिणाम तेने थाय छे,
परिणामथी कर्मो, करमथी गमन गतिमां थाय छे. १२८.
गति प्राप्तने तन थाय, तनथी इन्द्रियो वळी थाय छे,
एनाथी विषय ग्रहाय, रागद्वेष तेथी थाय छे. १२९.
ए रीत भाव अनादिनिधन अनादिसांत थया करे
संसारचक्र विषे जीवोने — एम जिनदेवो कहे. १३०.
छे राग, द्वेष, विमोह, चित्तप्रसादपरिणति जेहने,
ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छे. १३१.
शुभ भाव जीवना पुण्य छे ने अशुभ भावो पाप छे;
तेना निमित्ते पौद्गलिक परिणाम कर्मपणुं लहे. १३२.
छे कर्मनुं फळ विषय, तेने नियमथी अक्षो वडे
जीव भोगवे दुःखे-सुखे, तेथी करम ते मूर्त छे. १३३.
मूरत मूरत स्पर्शे अने मूरत मूरत बंधन लहे;
आत्मा अमूरत ने करम अन्योन्य अवगाहन लहे. १३४.
छे रागभाव प्रशस्त, अनुकंपासहित परिणाम छे,
मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य-आस्रव होय छे. १३५.
अर्हंत-साधु-सिद्ध प्रत्ये भक्ति, चेष्टा धर्ममां,
गुरुओ तणुं अनुगमन — ए परिणाम राग प्रशस्तना. १३६.
श्री पंचास्तिकायसंग्रह-पद्यानुवाद ]
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