श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
छे योगहेतुक ग्रहण, मनवचकाय-आश्रित योग छे;
छे भावहेतुक बंध, ने मोहादिसंयुत भाव छे. १४८.
हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्यां,
तेनांय छे रागादि, ज्यां रागादि नहि त्यां बंध ना. १४९.
हेतु-अभावे नियमथी आस्रवनिरोधन ज्ञानीने,
आसरवभाव-अभावमां कर्मो तणुं रोधन बने. १५०.
कर्मो-अभावे सर्वज्ञानी सर्वदर्शी थाय छे,
ने अक्षरहित, अनंत, अव्याबाध सुखने ते लहे. १५१.
द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे,
ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने. १५२.
संवरसहित ते जीव पूर्व समस्त कर्मो निर्जरे
ने आयुवेद्यविहीन थई भवने तजे; ते मोक्ष छे. १५३.
आत्मस्वभाव अनन्यमय निर्विघ्न दर्शन ज्ञान छे;
द्रग्ज्ञाननियत अनिंद्य जे अस्तित्व ते चारित्र छे. १५४.
निजभावनियत अनियतगुणपर्ययपणे परसमय छे;
ते जो करे स्वकसमयने तो कर्मबंधनथी छूटे. १५५.
जे रागथी परद्रव्यमां करतो शुभाशुभ भावने,
ते स्वकचरित्रथी भ्रष्ट, परचारित्र आचरनार छे. १५६.
रे! पुण्य अथवा पाप जीवने आस्रवे जे भावथी,
तेना वडे ते ‘परचरित’ निर्दिष्ट छे जिनदेवथी. १५७.
सौ-संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
जाणे अने देखे नियत रही, ते स्वचरितप्रवृत्त छे. १५८.
श्री पंचास्तिकायसंग्रह-पद्यानुवाद ]
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