श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ते छे स्वचरितप्रवृत्त, जे परद्रव्यथी विरहितपणे
निज ज्ञानदर्शनभेदने जीवथी अभिन्न ज आचरे. १५९.
धर्मादिनी श्रद्धा सुद्रग, पूर्वांगबोध सुबोध छे,
तपमांही चेष्टा चरण — ए व्यवहारमुक्तिमार्ग छे. १६०.
जे जीव दर्शनज्ञानचरण वडे समाहित होईने,
छोडे ग्रहे नहि अन्य कंई पण, निश्चये शिवमार्ग छे. १६१.
जाणे, जुए ने आचरे निज आत्मने आत्मा वडे,
ते जीव दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे निश्चितपणे. १६२.
जाणे-जुए छे सर्व तेथी सौख्य-अनुभव मुक्तने;
— आ भाव जाणे भव्य जीव, अभव्य नहि श्रद्धा लहे. १६३.
द्रग, ज्ञान ने चारित्र छे शिवमार्ग तेथी सेववां
— संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना. १६४.
जिनवरप्रमुखनी भक्ति द्वारा मोक्षनी आशा धरे
अज्ञानथी जो ज्ञानी जीव, तो परसमयरत तेह छे. १६५.
जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य-मुनिगण-ज्ञाननी भक्ति करे,
ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे. १६६.
अणुमात्र जेने हृदयमां परद्रव्य प्रत्ये राग छे,
हो सर्वआगमधर भले, जाणे नहीं स्वक-समयने. १६७.
मनना भ्रमणथी रहित जे राखी शके नहि आत्मने,
शुभ वा अशुभ कर्मो तणो नहि रोध छे ते जीवने. १६८.
ते कारणे मोक्षेच्छु जीव असंग ने निर्मम बनी
सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी. १६९.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय