श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
श्री
नियमसार
(पद्यानुवाद)
१. जीव अधिकार
(हरिगीत)
नमीने अनंतोत्कृष्ट दर्शनज्ञानमय जिन वीरने,
कहुं नियमसार हुं केवळीश्रुतकेवळीपरिकथितने. १.
छे मार्गनुं ने मार्गफळनुं कथन जिनवरशासने;
त्यां मार्ग मोक्षोपाय छे ने मार्गफळ निर्वाण छे. २.
जे नियमथी कर्तव्य एवां रत्नत्रय ते नियम छे;
विपरीतना परिहार अर्थे ‘सार’ पद योजेल छे. ३.
छे नियम मोक्षोपाय, तेनुं फळ परम निर्वाण छे;
वळी आ त्रणेनुं भेदपूर्वक भिन्न निरूपण होय छे. ४.
रे! आप्त-आगम-तत्त्वनी श्रद्धाथी समकित होय छे;
निःशेषदोषविहीन जे गुणसकळमय ते आप्त छे. ५.
भय, रोष, राग, क्षुधा, तृषा, मद, मोह, चिंता, जन्म ने
रति, रोग, निद्रा, स्वेद, खेद, जरादि दोष अढार छे. ६.
सौ दोष रहित, अनंतज्ञानद्रगादि वैभवयुक्त जे,
परमात्म ते कहेवाय, तद्दविपरीत नहि परमात्म छे. ७.
ॐ