श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
परमात्मवाणी शुद्ध ने पूर्वापरे निर्दोष जे,
ते वाणीने आगम कही; तेणे कह्या तत्त्वार्थने. ८.
जीवद्रव्य, पुद्गल, काळ तेम ज आभ, धर्म, अधर्म — ए
भाख्या जिने तत्त्वार्थ, गुणपर्याय विधविध युक्त जे. ९.
उपयोगमय छे जीव ने उपयोग दर्शन-ज्ञान छे;
ज्ञानोपयोग स्वभाव तेम विभावरूप द्विविध छे. १०.
असहाय, इन्द्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाविक ज्ञान छे;
सुज्ञान ने अज्ञान — एम विभावज्ञान द्विविध छे. ११.
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय — भेद छे सुज्ञानना;
कुमति, कुअवधि, कुश्रुत — ए त्रण भेद छे अज्ञानना. १२.
उपयोग दर्शननो स्वभाव-विभावरूप द्विविध छे;
असहाय, इन्द्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाव कहेल छे. १३.
चक्षु, अचक्षु, अवधि — त्रण दर्शन विभाविक छे कह्यां;
निरपेक्ष, स्वपरापेक्ष — ए बे भेद छे पर्यायना. १४.
तिर्यंच-नारक-देव-नर पर्याय वैभाविक कह्या,
पर्याय कर्मोपाधिवर्जित ते स्वभाविक भाखिया. १५.
छे कर्मभूमिज भोगभूमिज — भेद बे मनुजो तणा,
ने पृथ्वीभेदे सप्त भेदो जाणवा नारक तणा. १६.
तिर्यंचना छे चौद भेदो, चार भेदो देवना;
आ सर्वनो विस्तार छे निर्दिष्ट लोकविभागमां. १७.
आत्मा करे, वळी भोगवे पुद्गलकरम व्यवहारथी;
ने कर्मजनित विभावनो कर्तादि छे निश्चय थकी. १८.
श्री नियमसार-पद्यानुवाद ]
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