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गिरत विसन निज विजयहित, होत आपही भंग.
कृपा सदन मद मदन दल, विधि खल बल क्षयकार;
नमुं नेमिपद कमलयुग, अशरन शरन अधार.
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तसु वानी छके गुरु भेष जसी, विधि बंधन विधि छिनमें निवरें;
मद रावन ही रघुवंश धणी नित नेमप्रभु तुम जो सुमरे,
सु लहे वर दर्शन ज्ञान चरित्र अनुक्रमतें शिवनार वरे.
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वीरसेन निजभाव गढ, निवसे निपट अभीत.
भवभूरुहदाहन-दहन, मनमलभंजन वारि;
पामर पावन परमपद, तेरो नाम उचारि.
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वीररूप निजधारी सु कायरता तजे;
ते वसुमी भुवि वसे शत्रु वसु जीती के,
विलसे सुख निजधाम मुक्तिकी प्रीति से.
महाभद्र जिन जयति जग, नमूं नमूं सुख दैन.
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लखें तव तेज चितें दुचिताय, मनूं यह भान भमें नभ मांय;
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सकल विघन टाला, शुद्धरूपा विशाला;
करि तन मन शुद्धि जो स्वरों धारी गावे,
विलसि सुख दीवाले, मुक्तिश्री सो लहावे.
कर्म अद्रि चकचूरि अचल सुख सो सनें;
विलसे सुख सुरबाल कमलिनी बागमें,
रमें बहुरि चिरकाल वधूशिव लागमें.
छकित होत छवि निरखि के, सुन नर मुनि मन नैन.
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स्वस्तिक ध्वज जसु जनमथल, नगर सुसीमा सार.
सजें आनंदौध पुलकितवपु शुद्धस्तुति उचारें;
लहें सो संबोधं सकलसुखदं कीर्ति भूलोक छावे,
हूवे शक्री चक्री अचल अमलं मुक्तिभूमि कहावे.
भक्ति महासुख दैन कला शशि दूजकी;
करे सिन्धु सुखवृद्धि सिद्धि सब दायनी,
घायक सकल कलेश कलंक पलायनी.
धरि धीरज जय जस सुखद, भनूं विशद जयमाल.
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चंपक छद सप्त अशोक आम, तरु चैत्य चैत्ययुक्ताभिराम;
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व्यंतर भावन ज्योतिष जू देव, कल्पामर नर पशु येम भेव;
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पद्मचिह्न ध्वज जनमथल, नगरी अयोध्या जास.
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अजितकी जयदा जयमाल ही, धरत कंठ लहें शिवबाल ही.
संजातक अरु स्वयंप्रभु सुखदायजी;
ॠषभानन अरु अनंतवीर्य मनमोहने,
सूरप्रभु रू विशालप्रभु अति सोहने.
चंद्रबाहु रू भुजंगम इश्वर सार हैं;
नेम प्रभु अरु वीरसेन वरनाम ये,
महाभद्र अरु देवयश हि अभिराम ये.
हरें तिमिर मिथ्यात्व करें सब सेव हैं;
इन्हें भक्ति धरि भव्य यजे मन ल्याय के,
ते नर सुरसुख भोगि वरें शिव जाय के.