Shri Jinendra Bhajan Mala-Gujarati (Devanagari transliteration).

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[१६]
श्री नेमिप्रभु जिनस्तवन
( दोहा )
जसु वच विमल कृशानुझल, दुरनय वचन पतंग;
गिरत विसन निज विजयहित, होत आपही भंग.
कृपा सदन मद मदन दल, विधि खल बल क्षयकार;
नमुं नेमिपद कमलयुग, अशरन शरन अधार.
( तारकवरन छंद )
तुम तो प्रभु नेम त्रिलोकधनी हो,
तुमरी महिमा नहि जात भनी हो;
इक ही गुन ज्ञान अमान अनै सो,
वरुन्यो न जहे जिम है तिम तैसो.
षट्द्रव्य असंख्य अनंत प्रमाने,
नहीं अंत अनादिहितें थिति ठाने;
सबही गुण औघ अनंत सुधारें,
गुण हु पर्याय अनंत विथारें.
सु बहें गत वर्तत आगत जे हैं,
झलके तुमरे निजभाव विषे हैं;
तुमरो उर ध्यान सुभान प्रकाश्यो,
भ्रम भाव विभावरिको तम नाश्यो.

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विकसी शुभ आस्रव राजिवराजी,
उडुवृंद दुरास्रव ज्योति न साजी;
चकवी सद्बुद्धि हिये हुलसाई,
उलवा अविवेक न देत दिखाई.
भवसंसृति बेलि भई भय कुमलानी,
वर भांति पदारथ पांति पिछानी;
कुनया व्यभिचारनि जेम दुरी है,
गति मोहनिशाचरकी न फुरी है.
सु सुधारस-प्यास प्रचंड बधाई,
प्रगटी व्रत-भोजनकी सु क्षुधा ही;
वट मार महा भट मार पिरानो,
तटिनी तृसना जल जात सुखानो.
मदभाव महीधरसे अकुलाने,
व्यवसाय भये गुनलाभ अमाने;
विन बंध प्रतीति भई उर ऐसे,
पतिके भुजतें नव नागरि जैसे.
प्रकट्यो शिवको मग सहज सुभाए,
पथिकी चिदराव हिये हुलसाए;
चहिहुं कर जोरि जिनेश इहे मैं,
वरतो यह ज्योति अखंड हियेमें.

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तुमरे गुनवारिध में चित ध्याये,
सु मिले तुममें फिरकें नहीं आये;
पुतरी मिसरी जल थामन ध्यावे,
लही थाह कहो किम आनि कहावे.
अनुभौ गत ह्वै तुमरी गति जाने,
तबही गति पंचम ह्वै विधि भाने;
इस ही हित तो मुनिनायक ध्यावें,
पर आश्रित भाव सभी छिटकावें. १०
सु सुधा निज छाक छके अविकारी,
विचरे निःशंक भये भय टारी;
तुमसों निजकुं निजतें नहिं ध्यावे,
तबलों शिवथानककुं नहि पावे. ११
सुप्रतीति यहै उर ‘‘थान’’ धरी है,
तिहतें शरना तुमारी पकरी है;
शरनागत पालक है पन तेरो,
चहिये हरनो अब तो दुःख मेरो. १२
( द्रुमिला छंद )
तिहके पद ध्यान धनंजयमें घन पाप पतंगन जेम जरें,
तसु वानी छके गुरु भेष जसी, विधि बंधन विधि छिनमें निवरें;
मद रावन ही रघुवंश धणी नित नेमप्रभु तुम जो सुमरे,
सु लहे वर दर्शन ज्ञान चरित्र अनुक्रमतें शिवनार वरे.

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( अडिल्ल छंद )
नेम प्रभु जस गान उचारत भावसुं,
पूजे करें मन लाय होय शुचि चावसुं;
ताके विकल्पवृंद द्वंद्व सबही टरें,
ह्वै निर्विकल्प दशा शक्ति अपनी धरें.
[१७]
श्री वीरसेन जिनस्तवन
(दोहा)
विषम चरित रनभूमिमें, अरि विभावगन जीत;
वीरसेन निजभाव गढ, निवसे निपट अभीत.
भवभूरुहदाहन-दहन, मनमलभंजन वारि;
पामर पावन परमपद, तेरो नाम उचारि.
( अडिल्ल छंद )
वीरसेन वरवीर सुगुन रनभूमिमें,
छके महारस वीर सुरस मद घूमिमें;
शिवश्यामा अनुराग प्रबल उरमें धरे,
ह्वै निःशंक ललकार कर्मरिपुतें लरे.
करन चपलता धारक मनमातंग पै,
भये उमगि असवार कर्मरनरंग पै;

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समरसभाव सनाह सुरुचिकुल हांकिये,
साहस शुभको दंड सरल सायक लिये. २
भेदज्ञान वरमित्र संग सुखदैन है,
सहस अठारा शीलभाव वरसेन है;
सेनानी निजबोध बडो बलि बंड है,
चारित सुभट सुधीर अरिगन खंड है. ३
चक्रव्यूह मिथ्यात्व भेदी अरि सैनमें,
पैसे धारि उमंग विजय जस लेनमें;
सात सुभट तह चूरि चरन आगें धरें,
चढि सप्तम गुणथान तीन अरि छय करें. ४
सजि समाधि बल जोरी अनुपम रीस बढे,
उपशम अवनि विहाय क्षपकश्रेणी चढे;
सुभट छतीस प्रचंड नवें थलसें हरे,
दशमें सूक्षम लोभ नाशि उर रीस भरे. ५
शुक्ल ध्यान पद दुतिय चंड असि हाथ ले,
द्वादशमें गुणथान सुभट सोलह दले;
सकल घातिया प्रकृति त्रेसठ चूरिके,
अद्भुत शोभा सजी बाल शिव पूरिकें. ६
गुन अनंत परपूरी असम शोभा घनी,
परमौदारिक देह परमद्युतितें सनी;
परमभक्ति भरी इंद्र द्रव्य वसु शुभ सजें,
परम शर्मकरतार चरन तुमरे यजें. ७

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रूप सुधारसपान सहस द्रग पानतें,
करत न रंच अघात अचल पलकानतें;
रसन तालु अस्पर्श अनाहत ध्वनि खिरें,
भव ग्रीषम तपहरन मेघ झरसी झरें. ८
जाति विरोधी जीव तजत सब वैर है,
शतयोजन चहुं ओर सुभिक्ष तहां रहै;
जंतु वध नहीं होय विभव जहां तुम तनी,
भई प्रकट इत्यादि दयानिधिता घनी. ९
करत तिहारो ध्यान सकल दुःखगन नशे,
तुम पद निज उर बसे मनुं हम शिव बसें;
तुम सब जाननहार कहा तुमतें कहूं,
चहूं ओर कुछ नहीं सुगुन तेरे गहूं. १०
मेरे औगुन ओर न नेक निहारिये,
दीनबंधु निज नाम तनी पन पारिये;
विनवुं तोही जगेश जोडी जुग पानकुं,
भव भव तेरी सेव देव! दे ‘थान’ कुं. ११
( सवैया इकतीसा )
भूमिपाल भूप कुल कंज विकसान भान,
भंजन बलीश बलिबंड मोह सेना के;
भान चिह्न केतु भवसिंधु लंघवेकुं सेतु,
दरप विहंड महामैन दुःखदेना के.

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सुभग पुरंदर के पुरुसो पुर पुंडर है,
रच्यो गयो कारन तिहारे जन्म लेनाके;
तपरनवीर धीरधारी देव वीरसेन,
दायक अनंद जयो नंद वीरसेनाके.
( अडिल्ल छंद )
वीरसेन जिन वीर धीर धर जो यजे,
वीररूप निजधारी सु कायरता तजे;
ते वसुमी भुवि वसे शत्रु वसु जीती के,
विलसे सुख निजधाम मुक्तिकी प्रीति से.
[१८]
श्री महाभद्र जिनस्तवन
( दोहा )
परिवर्तन अहि अशनकर, वैनतेय तसु वैन;
महाभद्र जिन जयति जग, नमूं नमूं सुख दैन.
( मोतीदाम छंद )
ज्यो तुम भद्र गुनातम रूप, रची चिद चिंतन केलि अनूप;
विराग कहें तुमकुं कवि केम, रच्यो शिवभामनितें अति प्रेम.
तजे किम भोग अहो जिनदेव, लिए तुम भोग अनंत अछेव;
तज्यो किम लोभ अहो जिनराय, लही निधिज्ञान अनंत लुभाय.२

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तज्यो किम संग अहो जगपाल! धरो समवसृति भूति विशाल;
तज्यो किम बांधव वर्ग सुदेव! किये जगजंतुन बंधु स्वमेव.
तज्यो किम मोह अहो जगपार! कियो सब ज्ञेय विषे विस्तार;
तजी चलवृत्ति कहो किंह भाय! रमो तुम लोक अलोकन जाय.
तज्यो किम राज कहो जिनदेव! करे जगराज सबे तुम सेव;
तज्यो किम द्वेष कहो जगपाल! वसुविधि बंधन के तुम काल.
सही हम जान लई मनमांहि, घटी तुमरी कछु हुं नहि चाहि!
तजे सब कारज जानि असार, ग्रहे जितने जु लखे हितकार.
भली तुमरी महिमा! दुःखनाश, दियो अधमी जनकूं दिव वास;
तुहै मुखसों शशि चाहत कीन, बनात मनुं विधि तोरि नवीन!
करे तिहां षोडश भाग सु जोरि, बनें फिर ना तब डारत तोरि;
घटाबधि या हित होत सदीव, लख्यो थिर नांही परें निशि पीव.
लजे चरणाधर पाणि निहारी, कढे नहीं कंज रहे गहि वारी;
ध्वनि सुनि लज्जि भयो घनश्याम, प्रभा लखि मेरु गह्यो इक ठाम.९
लखें तव तेज चितें दुचिताय, मनूं यह भान भमें नभ मांय;
कहे उपमा तुमको कवि कोय, लसे तुमरी तुमही मधि सोय. १०
प्रभु हम दीन त्रपापट टारि, करी थुति ये अपनो हितधारी;
क्षमो हमरे सब औगुन देव, कृपा करी देहु सदा तुम सेव. ११
ग्रही शरना तुमरी अब देव, भये सब कारज सिद्ध स्वमेव;
चहे यह ‘थान’ दुहूं कर जोरि, अनातम भाव हुवे न बहोरि. १२

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( मालिनी छंद )
इति जिनगुणमाला, पर्म आनंद शाला,
सकल विघन टाला, शुद्धरूपा विशाला;
करि तन मन शुद्धि जो स्वरों धारी गावे,
विलसि सुख दीवाले, मुक्तिश्री सो लहावे.
( अडिल्ल छंद )
महाभद्र गुणभद्र भद्र मनतें भनें,
कर्म अद्रि चकचूरि अचल सुख सो सनें;
विलसे सुख सुरबाल कमलिनी बागमें,
रमें बहुरि चिरकाल वधूशिव लागमें.
[१९]
श्री देवयश जिनस्तवन
( दोहा )
विधि घनबिन चिद् रवि छटा, दमकिं रही द्युति एन;
छकित होत छवि निरखि के, सुन नर मुनि मन नैन.
( दोधक छंद )
तारक हो तुमही जग स्वामी, बारक भवदुःख अंतरजामी;
मौन विकास दिनेश तुंही है, शुभ्र गिराधर ईश तुंही है.
तूं विधि है चतुरानन धारी, मर्दन तूं मुर मोह मुरारी;
और कषाय विषै बसि सारे, हो तुम द्वेष दोष दुःख टारे. २

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यद्यपि मोह तज्यो तुम स्वामी, ना करता हरता शिवधामी;
तद्यपि ध्यान धरें जिन तेरो, सिद्ध करे मन वांछित मेरो.
यह उरमें द्रढता हम धारी, तब पद सेव ग्रही त्रिपुरारी;
यह भवकानन भीम गुसाई, शैल विभाव तहां दुःखदाई.
श्रेय सबे करता तुम त्योंही, ना कछु संशय है विधि योंही;
आस्रव नीर झरे झरने है, भूरुह बंध समूह घने है.
मोह महामृगराज गलारे, धीर्य तहां जगजंतु निवारे;
भील मनोज तहां दुःखदानी, लूंटनकुं शुभ सोज सुहानी.
प्रीति जहां जुर झांसि रही है, द्वेष महा भय देन अही है;
है तृष्णा जल माल डरानी, च्हेल निगोद धरे दुःखदानी.
बारण मत्त जु मान जहां है, आरण महिष जु क्रोध तहां है;
मत्सर रींछ जहां घूररावे, लोभ दरार अथाह दिखावे.
कर्म उदै फल द्वैविध तामें, है हितकारक एक न जामें;
आरति भाव बुरे वनचारी, पावक वैद कषाय करारी.
अक्ष विलास पलास विकासे, आकुलभाव पिशाच जु भासे;
छांह घनी घन है भ्रम जामें, सूझत ज्ञानदिनेश न तामें. १०
भाव असत्य ढिगां भरमायो, मैं चिरतें शिवपंथ न पायो;
लब्धि बसाय गुरुमुख गाई, दीपशिखा तुमरी ध्वनि पाई. ११
चाहत हूं शिवराह गही मैं, जाचत हूं कछु और नहीं मैं;
पंथ सहायक ध्यान तिहारो, संबल दे निजबोध हमारो. १२
बाहन शुद्ध क्रिया कर दीजे, संग सधर्मिनको नित कीजे;
तो चरचा मगमें नित होवे, भक्ति सराय जहां हम सोवें. १३

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उद्यम है अथवा मगमांहि, राह मिले शुचि सम्यक् याही;
‘थान’ लहूं जब लों शिव नीको, ये सब होहु सहाय धनीको. १४
( दोहा )
ज्यो नृपति स्तवभूत सुत, गंगा उर अवतार;
स्वस्तिक ध्वज जसु जनमथल, नगर सुसीमा सार.
( मेघस्फूर्जित छंद )
तजे शंका कांक्षा निजहितरता भाव संवेग धारें,
सजें आनंदौध पुलकितवपु शुद्धस्तुति उचारें;
लहें सो संबोधं सकलसुखदं कीर्ति भूलोक छावे,
हूवे शक्री चक्री अचल अमलं मुक्तिभूमि कहावे.
( अडिल्ल छंद )
जयो देवयश देव देवपति पूजकी,
भक्ति महासुख दैन कला शशि दूजकी;
करे सिन्धु सुखवृद्धि सिद्धि सब दायनी,
घायक सकल कलेश कलंक पलायनी.
[२०]
श्री अजितवीर्य जिनस्तवन
( दोहा )
अजितवीर्य जिनदेव तुव, पदनी रज नमी भाल;
धरि धीरज जय जस सुखद, भनूं विशद जयमाल.

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( दीपकला छंद )
जय अजितवीर्य वीरज अपार, तुमकुं मम प्रणमन बारबार;
सुख आशा धरि चिरतें जिनेश, भवमें हम श्रम ठाने अशेष.
सुख जाति निराकुलता न जानि, जडसंग कीनी निज शक्ति हानि;
गुरुके मुखतें अब भेद पाय, निजमें तुमरूप रह्यो सु छाय.
तुम समवसरन रचना वखान, नहि वरन सकें धरि चार ज्ञान;
निज नरभव पावन करन हेत, मैं वरनुं कछु आनंद उपेत.
धनु पांच सहस भुवितें उत्तंग, सोपान सहस विंशति अभंग;
लंबे इक कोश तने सुजानि, इक कर उन्नत आयाम मानि.
योजन तसु द्वादस व्यासरूप, मणि-नील-शिला उतरी अनूप;
तहां प्रथम शाल वर धूलिशाल, पण रत्नरचित युत छबी विशाल.
तिहके चव द्वारनितें सुजान, चौरी इक कोश गली महान;
मणि फटिक भींति चहुं दिश अनूप, इह गंधकुटी तक रुचिर रूप.
तिन मध्य प्रथम चहुं दिश मंझार, चव वापि संयुत छबी अपार;
जिनबिंब धरे सुचि मानथंभ, मानी-मन-मद-मर्दन उत्तंग.
चहुं ओर अवनि धुर वलयरूप, प्रासाद पंक्ति तिहमें अनूप;
पुनि वेदी तज कीने प्रवेश, भूमि द्वितीय मध्य खाई शुभेश.
मणिमय तट विकसित कंजव्रात, सोपान रतनमय मन लुभात;
शुक सारिक मोर मराल वृंद, द्विज केलि करे नाना अमंद.
इम धूलीशालथकी सु जानि, खाई तक योजन एक मानि;
पुनि वेदी तजी तृतीय सार, सुवलय इक योजन मान धार. १०

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पुष्पनिकी वाडी है अनूप, मंडप जु अतान वितान रूप;
थल सुन्दर शिलतल है अपार, तित देव रमें आनंद धार. ११
पुनि स्वर्ण साल सोहै अपार, छबि मंडित मणिमय द्वार चार;
तोरन वंदन माला विशाल, बंगले मुक्ताफल माल भाल. १२
कंगूरे कटनी सीढी सुभेष, कंचन मणिमय राजे अशेष;
शुक कोक मयुरादिक स्वरूप, मणि चित्र विविध झलके अनूप. १३
सुरयक्ष तहा दरवान सार, नवनिधि द्वारे ठाडी अपार;
आगें दुहु ओरनकु महान, गलियें विचरनकुं शोभमान. १४
तिनमें द्वय द्वय अति रुचिररूप, घटधूप नृत्यशाला अनूप;
तहं द्रम द्रम द्रम बाजत मृदंग, सुरबाल नचे वर तालसंग. १५
सननन सारंगी सनन नात, पग नूपुर झननन झनझनात;
ताथेई ताथेई ताथेई चलंत, फिर फिर फिर फिर फिरकी लहंत. १६
लचकत कटि कर ग्रीवा सु सार, दरशात नव रस छबी अपार;
तननं तननं तननं सु बीन, गतिपूर बजें स्वर सप्त पीन. १७
लयग्राम गमक मूर्छा सुधार, उचरंत तरल तानें अपार;
इत्यादिक सजि श्यामा अनूप, जगपति जस वरनत भक्तिरूप. १८
वन चार चहूं कोने मझार, युत वेदी गिरि सर सरित सार;
वापी बंगले रज रत्नरूप, क्रीडे सुर नर खग तहां अनूप. १९
चंपक छद सप्त अशोक आम, तरु चैत्य चैत्ययुक्ताभिराम;
इक योजन चोथी भूमि येम, अब वरनत हैं आगे सु जेम. २०

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वेदी तजि ध्वजपंक्ति विशाल, इक योजन पंचम भू रसाल;
पुनि रजत कोट पूरव समान, राजें अनुपम रचना निधान. २१
दरवान जहां सुरनाग जान, सन्मुख अद्भुत राजे महान;
पुनि छठवीं भुमि योजन मझार, वन कल्पवृक्ष सोहे अपार. २२
तरु सिद्ध चहुं दिश है शुभेश, युत सिद्ध बिंब राजें नगेश;
मंदारन मेरुक पारिजात, संतानकयुत इम चार भांत. २३
वेदी तजि पुनि योजन सू आध, भुवि सप्तमी राजत हरि विषाद;
चहुं दिशमें नव नव तूप शृंग, जिनप्रतिमायुत छबिके प्रसंग. २४
पुनि फटिक कोट शोभा अमान, सबतें अद्भुत राजे महान;
गोपुर पन्नासम लसत जास, सुरकल्प सुभग दरवान जास. २५
गलियनकी वेदी युत महान, वेदी तक षोडश भींत जान;
तिनपैं खंभन पर फटिकरूप, श्री मंडप राजत है अनूप. २६
मुक्ताफलमाला रत्नघंट, घटधूप आदि रचना महंत;
सब थल तें अष्टम भू मझार, रचना अद्भुत आनंदकार. २७
तिनमें चहुं ओर गली जू टार, दश-दोय सभा शोभे सुसार;
मुनि कल्पसुरी अजिया सुजानी, तिय ज्योतिष व्यंतर भुवन मानि.
व्यंतर भावन ज्योतिष जू देव, कल्पामर नर पशु येम भेव;
पुुनि भीतर वेदी मध्य जानि, है प्रथम पीठ पन्ना समान. २९
वसु धनुष तुंग द्वय कोश व्यास, वसु पहल द्विगुन छवि गोल जास;
ता परि चारों दिश यक्ष देव, वृषचक्र धरें शिरपे स्वमेव. ३०

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जिनभक्त तनो तिहं तक प्रवेश, पुनि दुतिय पीठ कलधौत भेश;
चव धनुषतुंग ध्वजयुत स्वरूप, तहां मंगल द्रव्य धरे अनूप. ३१
पुनि तृतीय पीठ नग जटित सार, चव धनुष तुंग रचना अपार;
तिह उपर गंधकुटी रसाल, छबी पूरती गंध करे विशाल. ३२
सुरतरुके पुष्पनिकी अनूप, लूंबत है माल रसाल रूप;
युतपत्रपुष्प किसलय अपार, छबियुत अशोक तरु शोकहार. ३३
पदतर चवसिंहन के सुरूप, यह विष्टर सिंह लसे अनूप;
सब रतनजटिल सोहे अपार, सुरधनुसम प्रसरित ज्योति जार. ३४
तिहपें चतुरंगुल व्योम टार, पद्मासन जिन छबि निराधार;
अनुपम भामंडलको उद्योत, लखी कोटिक रवि छबि छीन होत. ३५
भविजनकुं भव दरसात सात, महिमा तिनकी वरनी न जात;
घनसम धुनि सब भाषा जतात, भ्रमवंशअंश कहुं ना रहात. ३६
शिर छत्र तीन शशिकुं लजात, प्रभुता तिहुं लोकनकी जितात;
सित चामर गंग तरंग जेम, चवसठ मित सुर ढारें सपेम. ३७
तुम धुनि बल मनु हरि मदनबान, तुम ढिग डारत सुरमुद महान;
सो पुष्पवृष्टि वरनी न जात, जस केतु पराजय कुं जितात. ३८
जगजीवन कुं धुनि पूरि इष्ट, सुर ताडित दुंदुभिनाद मिष्ट;
रिपु मोह जयो ह्वै के निरोष, मनु तास विजय भाषे सुघोष. ३९
क्रीडा चिदचिंतन अतुल जास, कवि कौन कहे बुधि बल विकास;
षट् द्रव्य अमित शक्ति न अंत, तिहुं कालमयी सत्ता अनंत. ४०

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पर्याय अनंत लिये जु ताही, झलके गुनभाग अनंत मांहीं;
अनुभव करिके वरने जु केम, मिसरी चखि मूक भनें न जेम. ४१
जिय जातिविरोधी वैर छांडी, उर प्रीति धरें आनंद मांडी;
तहं रोग शोक व्यापे न भूर, दुःख सकल नशें आए हजूर. ४२
दुःख द्वेष दोष वर्जित विराग, तव राग भये नाशें कुराग;
इम अतिशय असम धरें अपार, मंडित निराकुलसौख्य सार. ४३
यह छबि चिंतवन उपवन मझार, मेरो मन रमन चहे अपार;
अरजी अब ये सुनिये कृपाल, दुरभाव अविद्या टाल टाल. ४४
समरस सुख निज उर मंडिमंडि, पर चाहदाह दुःख खंडिखंडि;
प्रकटो उर पर उपकार वानी, निशदिन उचरूं तुम सुगुन गान. ४५
तुम वैन सुधारस पान सार, चाहुं भव भव आनंदकार;
तुम भक्त संतजनको सुसंग, मति होहु कुमति धरको प्रसंग. ४६
परनिंदा पर पीडत कुवानि, मति होहु कभी निज सुगुन हानि;
सद्गुरु चरणांबुज सेव सार, दीजे जगपति भव भव मझार. ४७
तुम दरश करुं परतक्ष देव, यह चाहि हिये वरते सुमेव;
पावें जब लों नहीं मोक्ष थान, तबलों यह देहु दयानिधान. ४८
हम जाचत हैं कर जोरि जोरि, अघबंधन मेरे तोरि तोरि;
निजबोध सुधा सुखको भंडार, अब ‘थान’ हिये प्रकटो अपार. ४९
( दोहा )
कननि नंद आनंदकर, करो विघ्नगन नाश;
पद्मचिह्न ध्वज जनमथल, नगरी अयोध्या जास.

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( सुन्दरी छंद )
निज स्वरूप हिये दरसावनी, सकल पातिगताप नसावनी;
अजितकी जयदा जयमाल ही, धरत कंठ लहें शिवबाल ही.
( अडिल्ल छंद )
सीमंधर युगमंधर बाहु सुबाहुजी,
संजातक अरु स्वयंप्रभु सुखदायजी;
ॠषभानन अरु अनंतवीर्य मनमोहने,
सूरप्रभु रू विशालप्रभु अति सोहने.
अवर वज्रधर चंद्रानन अति चारु हैं,
चंद्रबाहु रू भुजंगम इश्वर सार हैं;
नेम प्रभु अरु वीरसेन वरनाम ये,
महाभद्र अरु देवयश हि अभिराम ये.
अजितवीर्य इम विंश परम जिनदेव हैं,
हरें तिमिर मिथ्यात्व करें सब सेव हैं;
इन्हें भक्ति धरि भव्य यजे मन ल्याय के,
ते नर सुरसुख भोगि वरें शिव जाय के.
[ इति श्री सीमंधरादि वीस विद्यमान तीर्थंकर स्तवन संपूर्ण ]
समाप्त