Shri Jinendra Bhajan Mala-Gujarati (Devanagari transliteration).

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( भ्रमरावली छंद )
अगतागत तूं विगता विधिबंधविथा,
असमं वरभूतियुत अनुभौ शुरता;
धरता वरवैन सुधा शिव ! तूं शिवदा,
हमकुं वर भक्ति मिलो कर श्रेय सदा.
( अडिल्ल छंद )
देव अनंतवीर्य पदपंकज पावने,
पूजे भव्य उचारि सुगुन मन भावने;
तन मन पावन तास होत सब सुख सरे,
आकुल दाह विहाय निराकुलता वरे.
[९]
श्री सूरप्रभ जिनस्तवन
( दोहा )
पूरि परमद्युति तें रहे, भूरि भरमतम चूर;
हनि कुतर्क तारक प्रभा, सूर प्रभु वच सूर.
( तोटक छंद )
तव ज्योति स्वरूप घटे न हटे, तिहिकु मत सर्व सदैव रटे;
अकलंक चिदंक समं असमं, वृष अंक निःशंक स्वयं विषमं.

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अकलं अचलं सकलं विमलं, अअलं सअलं सुवचं सुअलं;
अतनं अगनं सुमनं दमनं, रमनं वमनं भव दुःखगनं.
दुःखदाघहतार्थ घनं सघनं, गरुडं दुर रागफणी दमनं;
अघ औघघनं घन हो पवनं, दुर आस पिपासहनं सुवनं.
अघटं विकटं निकटं सुघटं, अतटं सुतटं विरटं सुरटं;
अखयं अभयं अजरं अमरं, सचिरं अचिरं सपरं अपरं.
विददं अमदं अगदं सुसदं, सुखदं शिवदं शुभदं सुविदं;
अमरं सभरं सुकरं निकरं, अगतागत तुं जितकं समरं.
न क्षुधा न तृषा नहि रागधृतं, नहि द्वेष रु जन्म जरा न मृतं;
भय विस्मय रोग रू शोकहतं, नहि स्वाप महादुःखदाय रतं.
नहि स्वेद रु खेद जु मोह मदं, नहि आरति और सुचिंत इदं;
यह दोष महा दश-आठ हने, वर वैन दया रसपूर सने.
त्रयकाल जु भूत रु वर्तन है, सु भविष्यत भेद कहे तुम है;
विन गोचर अक्ष पदारथ जे, सु जिताय दिये सबकुं जिम जे.
करते अनुभौ सुख होत महा, नहि लोक विरुद्ध प्रसंग तहां;
भ्रममें भवि भूल रहे सु जिन्हें, सुखपंथ जिताय दियो सुतिन्हें.
समये इक जो परतीति धरे, वह जीव अनुपम शक्ति वरे;
परिवर्तन काल जु अर्द्ध समे, फिरतो भव काननमें न भ्रमे. १०
यह दीनदयालपनो तुमरो, सु उचारि शके मुख कयुं हमरो;
अरजी उर ‘थान’ तनी धरिये, अब दीन निहारी दया करिये. ११

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व्रत संयम भाव हिये धरिये, समतारस पूरी सुखी करिये;
परिपावन ये हम जाचत हैं, तुम सेव सदा अभिलाषत हैं. १२
( देवराज छंद )
हटे कुभाव की घटा सुज्ञान भान को प्रकाश होत है,
हुवे समग्र सिद्ध काज उग्र पुण्य के समाज सो लहे;
दिवेश वेलि के समान अप्रमान सौख्यदान है यही,
करे जिनेश की सु भक्ति ह्वै त्रिदोष तें विमुक्त जो सही.
( अडिल्ल )
सूर प्रभु जिन तनी सुखद जयमाल है,
शुभ संचय करतार अशुभ को साल है;
धरे ज्योति मनु परम कलानिधि की कला,
कुमुद ज्ञान विकसान तिमिर दुरमतिदला.
[१०]
श्री विशालकीर्ति जिनस्तवन
( कवित छंद )
कीरति विशाल है विशाल वर भाल जास,
मोचन कलंक लसे लोचन विशाल है;
बली बल मोह के असंख्य बल दलिवेकुं,
बल बलिखंड भुजदंड को विशाल है.

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इंद्रहूतें अमित विशाल है विभूति जास,
चरन रसाल सेवे सुमति विशाल है;
धारे दिव्य देह है विशाल भूविदेहहीमें,
सुगुन विशाल देव कीरत विशाल है.
( दोहा )
इक ग्रही ग्रह्यो अनंत जग, इक लखी लख्यो अनंत;
इक रमी रमे अनंत सुख, जिन विशाल जयवंत.
( मुरारी छंद-मात्रा १६ )
जिन विशाल अरजी सुन मोरी, शरन आय पकरी अब तोरी;
फसत पाटलट आगहि जैसे, करमबंध जु करे हम तैसे.
भ्रमवशाय परकुं निज जान्यो, निज स्वरूप अपनो न पीछान्यो;
विविध दुःख भवमें जु लहाये, नहि जु जात इक मुखतें गाये.
नरकभूमि भयदा अधिकाई, जुत प्रमाद हति जीवन पाई;
डंक सहस विछूवा मिल मारे, परस पीर इतनी विसतारे.
उसन शीत अति चंड तहां है, गिरत मेरु सम लोह गला है;
जनमथान अति ही भयदाई, सकल रोग बहु है दुचिताई.
करत मार करुना नहि लावे, कलह रैन दिन तहां सुहावे;
निमिष मात्र तिसमें सुख नांही, पचत दुःख दव अग्नि जु मांही.
तलत तेल मधि पावक जारे, पकर पांव भुविमांहि पछारे;
हनत हाड उर अंतरजाली, मरम भेद कर होत बिहाली.

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धरि करोत लकरीवत वेरे, धारि यंत्रमधि तहां सु पेरे;
तिल समान सब ही तन खंडे, मरन काल विन प्रान न छंडे.
सकल लोक अन्न जो भख लेवे, तदपि भूख नहीं शांति जु देवे;
सकल सिंधु जलपान जो ठाने, तनक नाहि तिनकी तिस भाने.
मिलत नांही कण अन्न जहां है, जल न बुन्द समसो जु लहा है;
अगिनियोग कर ताम्र गलावे, मधुकुपान करके वह पावे.
करत नीच पल भक्षन जो हैं, भखत जोझी तिनके तनकुं है;
रुधिर राध स्रवती दुःख दैनी, प्रबल क्षारयुत है सुखखैनी. १०
करी जु लोह पुतरीजुत पावे, पर सु भामरत कूं लिपटावे;
नेत्रनितें जु करत कुटिलाई, हरत तास द्रग करि निठुराई. ११
वदत वैन परकुं दुखदाई, करत तास रसना तिह ठांई;
सकल दुःख समुदाय जहां है, ससनचाल विकराल तहां है. १२
वन जु भीम शिखरी भयदाई, करत घाव असिपत्र तहां ही;
नहीं समान कोउ दुःख तातें, कहन कौन सक कोट मुखातें. १३
लहत आयु तहं सागरमानं, इम दुःखौघ हम सहे अमानं;
पशु कुयोनि मधि जो दुःख पाये, प्रकट तोहि कछु नांही दुराये. १४
दरश हीन सुरहु दुःख पावे, परविभूति लखि के ललचावे;
मुरझी माल जब जात अगारी, मरन जानी दुःख ऊपजे भारी. १५
चवत देख वनिता दुःख पावे, तनक नांही वरन्यो वह जावे;
मनुषयोनि अति पावन सोउ, सुखित नांही तिसहु मध कोउ. १६

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वय जु बाल परके वश जानो, विविध रोग करी संयुत मानो;
तरुन भोगवश यौवन मांही, प्रबल आश वय मध्य तहांही. १७
शुभवियोग दुःखयोग लहावे, शिथिल अंग वयवृद्ध कहावे;
बिन पिछान अपनी मर जावें, थिर विना न थिरता कहुं पावे. १८
तुम स्वरूप थिर हो थिरगामी, थिर सुथान करता थिरनामी;
थिर स्वभाव हमकूं दरसावो, दुःखित जानि करुना उर ल्यावो. १९
भ्रमन मेटि भवतें जु उबारो, अब विलंब मनमें न विचारो;
भुवन ईश शरनागत तोरे, करत ‘‘थान’’ विनति कर जोरे. २०
( तोटक छंद )
कपटी लपटी सुहटी अति मैं, न घटी ममता सु जटी उरमें;
तुमरो गुनगान सुठानत हूं, समये जु वही धनि मानत हूं.
( अडिल्ल छंद )
जिन विशाल पद भक्ति विशाल धरें यजें,
ता नरकुं सब विपत्ति ततछिन ही तजें;
तन सुंदर सर्वांग सुभग छबि कुं वहे,
टरे अमंगलवृंद सदा मंगल लहे.

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[११]
श्री व»धार जिनस्तवन
(चंद्रावर्त छंद)
वज्र अस्थिन सकिल जु सकलं, वज्र जेम तनकी द्युति अमलं;
शील वज्र गहि कैं गिरि हरता, देव वज्रधर तुं जग भरता.
(मोतीदाम छंद)
अतत्त्व प्रतीत जु वज्र महान, विदारनकुं कन वज्र महान;
चये तुम कोमल वैन जगीश, गुहे तिनकुं गहिके गन ईश.
कह्यो सब जीव अजीव स्वरूप, भने विधि बंधन कुं दशरूप;
मिले सब जीव रू कर्म संयोग, बने तहं बंध महा दुःखयोग.
जबे रस देत उदै वह जानि, उपाय बसें सु उदीरण मानि;
कहे जबलों वरनो सत्त तास, बढे थिति सो उतकर्षण भास.
घटे थिति सो अपकर्षणरूप, ह्वै जब संक्रमण पररूप;
उदीरण ता विन है उपशम, उदीरण सक्रमणं सु जुगम्य.
नहीं जहं येह निधत्ति सुतेह, निकांचितमांहि नहीं चव येह;
जहां उतकर्षणको न प्रसंग, कछु अपकर्षणको नहीं अंग.
उदीरण संक्रमण जुग नांही, इन्हीं बशि जीव भ्रमें भवमांही;
सुचिंतन पावक वज्र प्रजारी, दशुं विधि बंध किये तुम छारी.
छाई निज ज्योति सबें जगपूर, भये भवि जीवन के दुःख चूर;
कह्यो दश धर्म सु जाति स्वभाव, मनुं भववारिध को वर नाव.

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लहें तुम ध्यान किये निरवान, कहा विस्मय इसमें भगवान;
तपोधन तो गुनमें मन धार, करे जगजंतु सुखी भयटार.
पशुगन हुं तुम नाम रटात, विवेक विना पदवी सुरपात;
लखें तुमरी छबिकुं भरि नैन, कहे महिमा तिनकी किम बैन.
अहो तुम जन्म भयो इह ठाम, लह्यो सुख नारक हु अघधाम;
अगोचर अक्ष निजातम रूप, तुम्हें उर धार लखें मुनि भूप. १०
मथें तुम वैन सुकोमल दारु, जगें कर जोरि कृशानु विचारु;
जरें घन मोह महावन भूरि, लसें निज ज्योति सबे जगपूरि. ११
ज्योत तुम वैन करिद सरूप, करे चिद चिंतन केलि अनूप;
अनंत नयातम अंग विशाल, हिताहित बोध सु उन्नत भाल. १२
सुग्राहक भाल लसे वर सुंढ, फबें सित दंत प्रमान अखंड;
कृपाकर नीरत मत्त महान, झरें नयगंडन तें पयदान. १३
रही मंडी भव्य सिलीमुख भीर, धरें समता मय गोनस धीर;
करे उपदेश सु गर्ज निषाद, उदै शुभ सुंदर घंट निनाद. १४
अनातम भाव अनोकुहखंडि, दई भवसंसृति बेल विहंडि;
महामुद मंगलकुं प्रगटात, लखे मुनि भूपनिकुं ललचात. १५
यहै वर वानिक सो सुखदैन, बसो हमरे उरमें दिनरैन;
करो करुना करुनाजल सिंधु, सही तुम दीननके वरबंधु. १६
तुंही पदपंकजको उर वास, रहो जबलों नहीं बंधनि नास;
प्रतीति तुंही वचकी वरदेव, रहे नित ही चरणांबुज सेव. १७

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मिले सत संगति ही सुखरास, हुवे जब लों शिव ‘थान’ निवास;
अहो! जिन जाचत है हम तोहि, अजाचकता पद दे अब मोहि.१८
( शिखरिणी छंद )
सुसीमाख्यं रम्यं जनमपुर शोभा वरयुतं,
पिता पूर्णं क्रांति पदमरथ नामा क्षितिधरं;
प्रभारंभाहारी जननी जगत्राता सरस्वती,
जयो कंबू केतु प्रणत भयहा वज्रधर! त्वम्.
( अडिल्ल छंद )
करत वज्रधर देव तनें गुणगान कुं,
ततछिन देत उडाय कुमति के मान कुं;
करत सुगति संबंध बंध विधि कुं हरे,
अमल अचल सुख पूर मुक्ति पदवी धरे.
[१२]
श्री चंद्रानन जिनस्तवन
(दोहा)
विमलभाव सोडश कला, पूरित अति द्युतिवंत;
वचन सुधा सीकर नीकर, भविगन अमर करंत.

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(चोपाई १६ मात्रा)
भरमभाव वय बाल विताई, निजरसभास तरुनता छाई;
शोभा सरस अंग वसु बाढी, रची प्रीति शिवतियसें गाढी.
मज्जन मल पर भाव उतारे, केश सघन रुचि रुचिर संवारे;
सम्यक् दरश मुकुट शिर छाजे, उद्यम भाल तिलक वर राजे. २
बंधुर वसन दशुं दिश राजे, दश वृष भेष मुद्रिका छाजे;
शक्ति विकास सुंगध महकावे, द्विविध धर्म कुंडल दरसावे. ३
नययुग लसत पादुका दोउ, ध्यान कृपान चंड अरि खोउ;
सुभग शील पटका छबि छाजे, भेदबुद्धि असितनुजा राजे. ४
वर विद्यायुत श्रीमुख सोहे, रचित तमोल राग वृष जू है;
वस्तु दिखावन सत्यमुख वानी, निज हित चतुर सकल सुखदानी. ५
इम षोडश श्रृंगार संवारे, वर विराग केयूर सु धारे;
द्रढ प्रतीति भुजबंधन राजे, सुमन सुमन माला उर छाजे. ६
सो वर मुक्तिरमनिका झूला, गुप्ति तीन कटिसूत्र सु मूला;
चर्या चरना भरन विराजे, सरल सुभाव छरी कर छाजे. ७
तुर्रा वर विवेक झलकावे, सुमति सेहुरा सब मन भावे;
मन मतंग असवार सु राजे, प्रभुता छत्र परम छवि छाजे. ८
चामर द्विविध दयासित सोहे, अतुल तेज त्रिभुवन मन मोहे;
अनहद ध्वनि दुंदुभि घररावे, अनुभव वर निशान फहरावे. ९
व्रत बरात संग है रंग भीनी, नृत्य करत निति ॠद्धि नवीनी;
अतिशय भाव असम दरशावे, विविध भांति भविमन ललचावे.१०

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इम समाज संयुत जगभूपा, राजत है मुद मंगल रूपा;
शिव श्यामा वर वरगुनधारी, निजबल प्रबल सकल खल हारी. ११
पद उर धरत करत अघहानी, निजविभूति दाता वर दानी;
सुगुन रटत कोउ पार न पावे, रटत रटत तुम सम ह्वै जावे. १२
गाहि गाहि गुणसिंधु तिहारो, गणपति ज्ञान लह्यो नहि पारो;
तो कही पार कौन कवि पावे, निज भव सफल हेत गुन गावे. १३
करी कृपा वर कृपा तिहारी, हरहु धीर ! भवपीर हमारी;
थान शरन तोरी शिवनाथा, तजी विलंब करी हो शिवसाथा.१४
( कुंडलिया छंद )
सजे नगरी पावनी पुंडरीकणी जास,
वालमीकि भूपति पिता सुंदर दया निवास.
सुंदर दयानिवास दयावती माता सोहे,
वृषभचिह्न ध्वजमांही देखी सुर नर मन मोहे.
जास चरनयुग सेय सौख्य भविगनकुं साजे,
सो चंद्राननदेव ताप भवभंजन राजे.
( अडिल्ल छंद )
चंद्रानन के चरन सरोजनकुं यजे,
सजे सकलसुख आज दुःखगन सब भजे;
रसना पावन भई करत गुनगानकुं,
मिल्यो परम शिवथान आज मनुं ‘थान’ कुं.

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[१३]
श्री चंद्रबाहु जिनस्तवन
( दोहा )
हंस संत मन मानसर, भवदुःखकंज तुषार;
सुख समुद्र वर्द्धन विधू, चंद्रबाहु जयकार.
( दीपकला छंद )
यहु जगत जलधि ताको न तीर, षटद्रव्य शक्ति सत्ता सुनीर;
व्यय उत्पत्ति ध्रौव्य तरंग जास, भरपूर भर्या नहीं आदि तास.
शुद्ध द्वीप बसे सुख रत्नपुर, दुरगति दुःख जलचर वसत दूर;
वडवानल मोह महा प्रचंड, विधि उदय मोज ऊछले अखंड.
चढीकें पर परणति पोत भूरि, मद मत्सर तम तस्कर करूर;
विचरें दुरलालचके निकेत, धन संतनके गुन हतन हेत.
इहको नहि थाह वहूं जिनेश, तुम ज्ञान विषे झलके अशेष;
निजगुन मुक्ताफल गहनहार, भवि जीव रचे ऐसो प्रचार.
जिन वचन प्रतीति जिहाज सार, सत गुरु शुभमग दरसानहार;
एसे करीके जु करें प्रवेश, या विधि पुनि श्रम ठाने सुवेश.
वैराग्य दशा भाजन मझार, बैठे दुरमति सब कर उघार;
द्रढ सांकल सुरति सु जोरि तास, राखें निजथान लगाय जास.
जग आशा तजीके ह्वै निःशंक, जगदीश्वरके ध्यावे चिदंक;
ऐसे स्वरूप जलमें अपार, खोजें अपने गुन वारंवार.

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दिशि ओर धरे रंचक न ध्यान, तब पावत है अक्षय निधान;
जिन सो निज निज सो जिनस्वरूप, करके प्रतीति ह्वै जगतभूप.
वर भक्ति तिहारी तें जिनंद, प्रगटे सुख नानाविध अमंद;
इम मुनिजन मिल निहचे सुकीन, तुम ध्यान विषे नित होत लीन.
ते पावत हैं शुचि शक्ति सार, सो सुरपति हू में न लगार;
तुम धन्य जगोत्तम देवदेव, नित करत पाक शासन सुसेव. १०
वसु द्रव्य चढावत धरि उमंग, पुनि नाचत राचत भक्ति रंग;
विरयां समान रचि सब सुठाट, करि तन छिन लघु छिनमें विराट. ११
सजि स्वांग विविध विधिके अनूप, सरसात नवुं रस देवभूप;
वर भूषन भूषित लसत अंग, मनु भूषणांग सुरतरु चलंग. १२
धुनि भूषण मुखवादित्र भूरि, मिलि एक सनाको सुरहि पूर;
समसुर त्रिताल त्रयग्राम धारि, लय ललित तरल तानें अपार. १३
ततता ततता वितता भनंत, थेईता थेईता थेईता चलंत;
छुम छुम छुम घुंघरू घमक चंग, द्रुम द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग. १४
सनन ननन सारंगी उचार, तूं तूं तननं तननं सितार;
तं तनन तनन मुहचंग चंग, झनझनझन झुनके जलतरंग. १५
टमटमटमटम टंकार पूरि, मंजिर बजें सुरतें सनूरि;
करतार झरर झररर झुनंत, समपे सब आवत एकतंत. १६
छिनमें जुग बाहुनकुं पसार, सोहे चल कर पल्लव अपार;
इक कर कटि धरि करि ग्रीव बंक, इक कर शिर धरि नाचे त्रिबंक.१७

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मुकुटाकृति द्वैकर शीस धार, रतनांगणमें विचरे अपार;
झट झट झट अनहद होत पूर, इह झुरमट राजे जिन हजूर. १८
फिर फिर फिर फिर फिरकी सुखात, पग नूपुर झुननन झुनन नात;
शिर शेखर रत्नप्रभा सु सार, चक्राकृति ह्वै झलके अपार. १९
मकरा कृत कुंडल झुलत कान, जिली सम सोहत चल महान;
छिन भूपरि छिन नभमें लसंत, परसें शशि उडु अवनी महंत. २०
छिनमें इक ह्वै छिनमें अनेक, दरशात विबुधपति विविध भेक;
सुरनर मुनि मनरंजन विधान, ताको कवि कौन करे बखान. २१
हरि उर सर पूरित भक्ति नीर, तव दरशन मनु परसी समीर;
इह लीला ललित तरंग रूप, तन मन पावन कारन अनूप. २२
मैं मो मन पावन करन हेत, उचरी मुख सुंदर सुख निकेत;
अब ‘थान’ यही जाचे जिनंद, तव भक्ति बसो उरमें अनंद. २३
( कुंडलिया छंद )
देवानंद पिता सुखद, मात रेणुका जास,
लसे पद्म लछण धुजा, नगर विनिता तास.
नगर विनिता तास जन्मतें ही अति पावन,
भविजन वृंद चकोर लोल लोचन ललचावन.
सदा उदित मुखचंद करूं ताकी नित सेवा,
चंद्रबाहु जयवंत सकल देवनके देवा.

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( अडिल्ल छंद )
जयमाला जयदाय चंद्रबाहु तनी,
जो उचरे धर भक्ति छारि मनकी मनी;
घनी कहा यह बात कष्ट करी जानकी,
जन्म मरन मिटि होत अचलता ज्ञानकी.
[१४]
श्री भुजंगम जिनस्तवन
(दोहा)
जगत भ्रमन हरि अशन करि, प्रकट कालके काल;
लसत ज्ञानमनितें अमल, जिन भुजंग वरमाल.
( चाल रेखता छंद )
सुनो अरजी अबे मोरी, हुआ गरजी निहारुं में.....(टेक).
चिदानंद मैं अनादि हूं, नहीं कुछ आदि है मोरी;
सिवा अपनी चतुष्टयके, नहीं पर वस्तु मेरे में...सुनो०
असल मालूम न थी मुझको, अबे गुरु बैन तें जानी;
किये जड कर्म कुं संगी, परी ये भूल मेरे में...सुनो०
लगा इनकी मुहब्बतमें, लुटाया ज्ञानधन मैंने;
अहो उपकार ए साहिब! किये इनपें घनेरे मैं...सुनो०

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विहीने ज्ञान जड ये है, नहीं चैतन्यता इनमें;
कृतघ्नी होय के मोकुं, भ्रमाया गति चारों में...सुनो०
अगोचर बैन विन उपमा, सहे दुःख नर्क दारुन में;
जहां पल एक कल नांही, कहा मुख तें उचारूं में...सुनो०
निगोदी मोहीकुं कीना, दूराया ज्ञान कुं ऐसा;
रहा इक वर्ण व्यंजनके, अनंते भाग मेरे में...सुनो०
उसास-निसास एक मांही, किये मैं क्षुद्र भव ऐसे;
अठारे बार हे साहिब! अहो जनम्या मरा हूं मैं...सुनो०
पशु परजाय जो पाई, सहायी को नहीं तामें;
नहीं धन धाम शामा को, नहीं वच आस्य मेरे में...सुनो०
क्षुधा रुजा चंड है जामें, तृषा अति ही भयंकर है;
मिलै तृण अन्नजल मुशकिल, लिखा जब भाग मेरे में..सुनो०
कही जाती नहीं मुखतें, हुई जो व्याधि तनमांहि;
सही को कौनविध जाने, सही मन ही जु मेरे में...सुनो० १०
लदा बोझा बडा भारी, दई मारें मरम भेदी;
नहीं ताकत मजल दूरी, पडी मुशकिल जु मेरे में...सुनो० ११
सही हिम घाम घन बाधा, कही क्यों हूं नहीं जाती;
मरा जल ज्वालके मांहीं, सु जाहिर ज्ञान तेरे में...सुनो० १२
कसाईने ग्रहा करमें, नहीं उरमें दया जाके;
करी है त्रास दे दे कें, जुदाई प्राण मेरे में...सुनो० १३

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कभी पैदा हुआ वनमें, बडा डर क्रूर जीवोंका;
जहां रहना उसी थलमें, सदा डरता रहा हूं मैं...सुनो० १४
कभी जलमें जनम पाया, मुझे खाया जबर दस्तों;
निबल मुझसे निगह आया, गया वो पेट मेरे में...सुनो० १५
हुआ पक्षी उडा नभमें, रहा डरता शिकारिन से;
सहायी को नहीं हुआ, गिरा जब फंद उसके में...सुनो० १६
कभी नर जन्म भी पाया, तहां रागादि बहु व्यापे;
सही बाधा वियोगादिक, कहूं कबलों घनेरी में...सुनो० १७
विभव परकी निरख झूरा, लखी जब माल मूरझानी;
लहे दुःख देव ह्वै ऐसे, बसें मन ही जु मेरे में...सुनो० १८
लही लख योनि चोरासी, अनंती वेर गही छांडि;
भ्रमन तिहूं लोकमें कीना, भई थिरता न मेरे में...सुनो० १९
जिते दुःख हैं जगतमांही, बचे कोऊ नहीं मोतैं;
इन्हीं वसी भूलिकें भोगे, खता कुछ नाहीं मेरे में...सुनो० २०
तूं ही हाकिम गवा तूं ही, तूं ही लिखिया खुलासे कर;
खलासी कीजिये इनतें, रहें फिर नांही मेरे में...सुनो० २१
दयासिंधु कहावे तो, दया मो दीन पैं कीजे;
दिखा निजरूप की झांकी, चहूं क्या ओर तुझसे में...सुनो० २२
लहूं अनुभूति में मेरी, रहूं निजधाममें सुखसें;
चहे ये ‘थान’ भव भवमें, यजूं पद कंज तेरे में...सुनो० २३

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( शार्दूलविक्रीडित छंद )
संयुक्तं सुबलं महाबल पिता, नग्री जया जन्मभू,
सीमा रूपसुबुुद्धि मात महिमा, चिह्नं सुचंद्रान्वितं;
संसंतानंद पूर भूरि सुखदं, दूरी कृतं दुदुंखं,
लोकालोकविलोक शोकदलनं देवं भुजंगं नमः.
( अडिल्ल छंद )
जिन भुजंग युति करत दुरित सबही डरें,
ध्यान द्वार उर धरत कर्म दादुर डरे;
टरें सकल भवपीर पीर परगुन तनी,
होत सिद्ध सब काज ॠद्धि अतुलित घनी.
[१५]
श्री £श्वर जिनस्तवन
(दोहा)
शंकर शं करि सकल के, हरि विकलप गन भूरि;
पूरि पूरि उर सर सुरस, चूरि चूरि दुःख चूरि.
( दीपकला छंद )
जय ईश्वर देव कृपा निधान, चित्त कोक शोक दल दिन समान;
भविवृंद कोकनदकुं कलिंद, शिववधू वदन पंकज मलिंद.

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सजि ध्यान जुगल भुजबल अखंड, जय मल्ल मोह जीत्यो प्रचंड;
तुम जय जय जय जग जलधि सेतु, निरमद कीनो रिपु मकर केतु.
तुम नाम मंत्र महिमा अपार, अघ घनवन जारनकुं तुषार;
ताके प्रभाव विष नशत भूर, नहि डंक सके विषधर करूर.
मृगपति पद चाटत ह्वै सपेम, मदपूरित कुंजर शिष्य जेम;
थल सम जल जल सम अगनि होत, दुरजन उर सज्जनपन उद्योत.४
नृप कुपित कृपा ठानें अपार, रुजवृंद सकल नाशे असार;
इक छिनमें दुःख दारिद्र खोत, सब शोक नशे आनंद होत.
कहूं डायनि शायनि भूत प्रेत, भय कर न सके दुरमतिनिकेत;
सुत पंडित सुभग सुशील वाम, याचे किंकर वर सुमतिधाम.
जिहतें यश वरनत नाग ईश, वृषप्रीतिभाव वरतें मुनीश;
यातें महिमा कछु नांही जास, जिहतें प्रगटे चिदगुन प्रकाश.
उचरे छिन अंत समै सुजास, नर पामर पावत नाक वास;
वरमाल धरे उर मुक्तिवाल, सहजानंद सुख ऊपजे विशाल.
दुरजय विधि बंधन होत दूरि, दुःख जनम मरन व्यापे न भूरि;
इक जनम अलप सुखके प्रकाश, सुरतरु चिंतामणि सम न जास.
यह अशमशक्ति महिमा निधान, नहि वरन शके धरि चार ज्ञान;
ये जगत शिरोमणि मंत्रराज, दुरगति दुःखभंजनको इलाज. १०
जब लों स्वतंत्र होवे न जीव, ये मंत्र बसो उरमें सदीव;
अरजी येही अविधारि देव, भव भव दीजे तव चरन सेव. ११

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गुनगान सुधारससें किलोल, मनमच्छ करन चाहे अडोल,
मति होहु अश्रव्याभाव अंश, निवरो अज्ञान दुरभाववंश. १२
भवभव सज्जन जनको सुसंग, निजचिंतभाव वरतो अभंग;
वर देहु यहे करुनानिधान, कर जोरि जुगल जाचें सु ‘‘थान’’. १३
मेरी करनी पर मति निहारी, निज प्रणत पालपनकुं विचारि;
करतें कर गहि लखी दीन मोहि, करनो विलंब छाजे न तोहि. १४
( सुरस छंद )
नृप मलिसेन तात अरु माता, ज्वाला सुज्वस मही,
नगर सुसीमा जास जनम हित, स्वर्ग समान भई;
जीतें मोह सूर्य लक्षनकी, जयध्वज फहर रही,
ता ईश्वरकी जयमाला यह, जयदा होहु सही.
( दोहा )
जिन ईश्वरकी थुति यही, उचरत शुद्ध सुभाय,
प्रकटें सहजानंद सुख, सकल विघ्न टरि जाय.
( अडिल्ल छंद )
जिन ईश्वर पदकंज सरस मन भावने,
जो पूजे मनलाय सांख्य सरसावने,
कामधेनु समता प्रकटे उर जासके,
तृष्णा डायन वीर लगे नहि तासके.