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हनि कुतर्क तारक प्रभा, सूर प्रभु वच सूर.
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हुवे समग्र सिद्ध काज उग्र पुण्य के समाज सो लहे;
दिवेश वेलि के समान अप्रमान सौख्यदान है यही,
करे जिनेश की सु भक्ति ह्वै त्रिदोष तें विमुक्त जो सही.
मोचन कलंक लसे लोचन विशाल है;
बली बल मोह के असंख्य बल दलिवेकुं,
बल बलिखंड भुजदंड को विशाल है.
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चरन रसाल सेवे सुमति विशाल है;
धारे दिव्य देह है विशाल भूविदेहहीमें,
सुगुन विशाल देव कीरत विशाल है.
इक रमी रमे अनंत सुख, जिन विशाल जयवंत.
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तुमरो गुनगान सुठानत हूं, समये जु वही धनि मानत हूं.
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शील वज्र गहि कैं गिरि हरता, देव वज्रधर तुं जग भरता.
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वचन सुधा सीकर नीकर, भविगन अमर करंत.
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बंधुर वसन दशुं दिश राजे, दश वृष भेष मुद्रिका छाजे;
नययुग लसत पादुका दोउ, ध्यान कृपान चंड अरि खोउ;
वर विद्यायुत श्रीमुख सोहे, रचित तमोल राग वृष जू है;
इम षोडश श्रृंगार संवारे, वर विराग केयूर सु धारे;
सो वर मुक्तिरमनिका झूला, गुप्ति तीन कटिसूत्र सु मूला;
तुर्रा वर विवेक झलकावे, सुमति सेहुरा सब मन भावे;
चामर द्विविध दयासित सोहे, अतुल तेज त्रिभुवन मन मोहे;
व्रत बरात संग है रंग भीनी, नृत्य करत निति ॠद्धि नवीनी;
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पद उर धरत करत अघहानी, निजविभूति दाता वर दानी;
गाहि गाहि गुणसिंधु तिहारो, गणपति ज्ञान लह्यो नहि पारो;
करी कृपा वर कृपा तिहारी, हरहु धीर ! भवपीर हमारी;
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सुख समुद्र वर्द्धन विधू, चंद्रबाहु जयकार.
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ततता ततता वितता भनंत, थेईता थेईता थेईता चलंत;
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लसे पद्म लछण धुजा, नगर विनिता तास.
नगर विनिता तास जन्मतें ही अति पावन,
भविजन वृंद चकोर लोल लोचन ललचावन.
सदा उदित मुखचंद करूं ताकी नित सेवा,
चंद्रबाहु जयवंत सकल देवनके देवा.
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जो उचरे धर भक्ति छारि मनकी मनी;
घनी कहा यह बात कष्ट करी जानकी,
जन्म मरन मिटि होत अचलता ज्ञानकी.
लसत ज्ञानमनितें अमल, जिन भुजंग वरमाल.
चिदानंद मैं अनादि हूं, नहीं कुछ आदि है मोरी;
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पूरि पूरि उर सर सुरस, चूरि चूरि दुःख चूरि.
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नृप कुपित कृपा ठानें अपार, रुजवृंद सकल नाशे असार;
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नगर सुसीमा जास जनम हित, स्वर्ग समान भई;
जीतें मोह सूर्य लक्षनकी, जयध्वज फहर रही,
ता ईश्वरकी जयमाला यह, जयदा होहु सही.
प्रकटें सहजानंद सुख, सकल विघ्न टरि जाय.