Shri Jinendra Bhajan Mala-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अंतरिक आसन पर सोहे, परम विभूति प्रकाशित जो है;
चौसठ चमर छत्र त्रय राजे, कोटि दिवाकर द्युति लखि लाजे. ७.
जय दुंदुभि धुनि होत सुहानी, दिव्यध्वनि जगजन दुःखहानी;
तरु अशोक जनशोक नशावे, भामंडल भव सात दिखावे. ८.
हर्षित सुमन सुमन वरसावे, सुमन-अंगना सुगुन सुगावे;
नव-रस-पूरन चतुरंग भीनी, लेत भक्तिवश तान नवीनी. ९.
बजत तार तननननन नननन, घुघरू घमक झुनननन झुननन;
धीं धीं धृकट धृकट द्रम द्रम द्रम, ध्वनत मुरज पुरु ताल तरलसम. १०.
ता थेई थेई थेई चरन चलावे, कटिकर मोरि भाव दरसावे;
मानथंभ मानी मदखंडन, जिन प्रतिमा-युत पापविहंडन. ११.
शाल चतुक गोपुरयुत सोहे, सजल खातिका जनमन मोहे;
द्विजगन कोक मयूर मरालं, शुक कलरव-रव होत रसालं. १२.
पूरित सुमन सुमनकी बारी, वन-बंगला गिरवर छबिधारी;
तूप ध्वजागन पंक्ति विराजे, तोरन नवनिधि द्वार सु छाजे. १३.
इत्यादिक रचना बहुतेरी, द्वादश सभा लसत चहुं फेरी;
गणधर कहत पार नहीं पावे, ‘थान’ निहारत ही बनि आवे. १४.
श्री प्रभुके इच्छा न लगारं, भविजन भाग्य उदय सु विहारं;
ये रचना मैं प्रकट लखाउं, या हेत हरषि हरषि गुन गाउं. १५.
( छंदः धत्ता )
यह जिनगुनसारं करत उचारं, हरत विकारं, अघभारं;
जय यश दातारं बुधि विस्तारं, करत अपारं, सुखसारं. १६.

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( अडिल्ल छंद )
जो भविजन जिन विंश यजे शुभ भाव सुं,
करे सुगुन गनगान भक्ति धरि चाव सुं;
लहे सकल संपत्ति अर वर मति विस्तरे,
सुरनर पद वर पाय मुक्ति रमनी वरे.
[१]
श्री सीमंधार जिनस्तवन
( दोहा )
शिव शिवमय शिवकर शिवद, शिवदायक शिवईश;
शिव सेवत शिवमिलन हित, सीमंधर जगदीश.
( चोपाई )
जय जगपति वरगुन वरदायक,
केवलसदन मदन मदघायक;
पर्म धर्म धर भ्रमपुर नाशन,
शासनसिद्धि अचल अचलासन.
अखट अघट रस घटघट व्यापक,
अनहत आहत सुगुन प्रकाशक;
धरत ध्यान दुरगति दुःखवारन,
जग जलतें जगजंतु उधारन.

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अशरन शरन मरन-भय-भंजन,
पंकज वरन चरन मन रंजन;
निज सम करत जु मन तुम धारत,
ज्यों पावक संग इंधन जारत.
नृप श्री हंस तनुज वर आनन,
लंछन वृषभ लसत अघभानन;
पुंडरपुरी पुर है मनभावन,
सो तुम जनम योग भयो पावन.
लियो जनम जगजन दुःख नाशन,
शिर अमरेश धरत तुम शासन;
होत विरक्त देव-ॠृषि आवन,
भयो परम वैराग्य दिढावन.
शिबिका दिव्य कहार पुरंदर,
हो सवार जिन धर्म-धुरंधर;
संग सकल तजि व्रत धारी पावन,
लगे ध्यान मारग शिव जावन.
करि वटमार घातियाचूरन,
शक्ति अनंत सजी परिपूरन;
पूरव जनम भाव वर भावत,
ता फल ये अतिशय दरसावत.

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बिन इच्छा विहार सुखकारन,
भव्यनकुं भवपार उतारन;
यदपि देव तुम द्रष्टि अगोचर,
तदपि प्रतीति धरत हम निज उर.
जानत हूं तुम हो जगजानन,
मैं किम दुःख कहूं चतुरानन;
दीनबन्धु दुःख दीन मिटावन,
चहिये अपनो विरद निवाहन.
( हरिगीत )
वर वरन भवतपहरन आनन्दभरन द्रग मन भावने,
युत सुरस पूरति गंध शुभ भविवृन्द अलि ललचावने;
सर्वज्ञ आगम विटपके शुचि सुमन वरन रसाल ये,
धरि सुमति गुन सह ‘थान’ उर जगभालकी जयमाल ये.
( अडिल्ल )
सीमंधरजिन पूजि करे जो थुती भली,
दहे सकल अघवृन्द लहे मनकी रली;
निर आकुल ह्वै हरे मोह द्वंदकुं,
टारे भ्रम आताप लखे चितचंदकुं.

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[२]
श्री युगमंधार जिन स्तवन
( दोहा )
करे विविध लीला ललित, सुगुनगेह निज भोग,
शिवश्यामा संगम भए, गये विरूप वियोग.
( सुंदरी छंद )
मैं अनादि रच्यो पर रूपमें, नहि लख्यो निज आतम भूप में;
सुन दयाल सहे दुःख मैं महा, सब प्रतक्ष दूरे तुमतें कहा.
अब कछु वर लब्धि वसायके, श्रवनद्वार गिरा तुम आयके;
उर प्रवेश कियो सुखदायिनी, सकल विभ्रम मोह विथा हनी.
सहित सो अविधेय विधानतें, मिलत है संबंध कथानतें;
निज प्रयोजन इष्ट सु तासमें, लसत साधन शक्य सु जासमें.
सर्व ज्ञायक भाषित पावनी, है अनादि कृपा सरसावनी;
विगत लोक विरुद्धनतें भली, निज प्रतीति स्वयं अनुभौ रली.
अलख हे जिन ! तू मम नैनतें, लखि तथापि लियो तुव वैनतें;
सुनी सु तत्त्व गिनी सरवज्ञता, विगत दूषणतें सु विरागता.
सुखद वैन प्रतच्छ प्रकाश है, त्रिविध लक्षन आप्त सु वास है;
दम दया तप ये सुखदाय है, सब मती इम कहत सुनाय है.
जित नहीं यह मूर सुखी नहीं, घर तजो परिपूर सुखी वही;
अतुल लक्ष्मी लहे किम तो विना, नरकदायक लक्ष्मी लहै घना.

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द्युति विभूति विज्ञान विशेषता, बल अनंत सुशक्ति अशेषता;
असमरूप उदार समंकरं, अपरदेव नहीं तुम तें परं.
करन तात सुवृक्ष अनंद हो, सुभग मात सुतारा-नंद हो;
लसत है गज लक्षन सोहनो, सुभग रुप त्रिलोक विमोहनो.
यह कृपा युगमंधर कीजीए, दरश मोहि प्रतक्ष जु दीजिए;
तुम कहावत दीनदयाल हो, करि यही हमरी प्रतिपाल हो. १०
( धत्ता छंद )
जय जय जगसारं, विगत विकारं, सुखित अपारं, जित मारं;
हनि अघ जंजारं, सुनहु पुकारं, युगमंधर भव भयहारं.
( अडिल्ल छंद )
युगमंधर कुं यजत सजत सुखसार है,
तजत संग दुर्बुद्धि सु सुमति अपार है;
सुरतिय लोचन भ्रमर कंज मुख तासको,
होत भवन परिपूर अमल यश जासको.
[३]
श्री बाहुजिनस्तवन
( दोहा )
अनुभव सुमन सुयोगतें, उपजी सरस हिलोल,
किये दूर परमल सकल, सरसत सुगुन किलोल.

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( दीपकला छंद )
जय बाहु जिनेश्वर जगतराय, सुग्रीव पिता विजया सुमाय;
राजे मृग लक्षन शोभमान, शुचि जन्म सुसीमानगर थान.
श्रम सलिल रहित कलिमल सुनांहि, वर रुधिर छीर रंग अंगमांही;
सम चतुर लसे संस्थान सार, शुचि प्रथम सार संहनन सुधार.
जितमार रूप राजें अपार, तन गंध जई सब गंध सार;
सब शुभ लक्षण मंडित सुजान, बल अतुल अंग धारत महान.
हितमित वर वचन सुधा समान, ये दश अतिशय धारत महान;
पुनि तपबल केवलज्ञान होत, तब दश अतिशय अद्भुत उद्योत.
चहुंधा शतशत योजन सुभिक्ष, नभगमन जु वध नहिं जीव अक्ष;
उपसर्ग रहित वर्जित अहार, दरशें चहुंधा आनन सुचार.
विद्या अशेष ईश्वर जिनंद, बिन छांह फटिक द्युति तन अमंद;
नहीं पलक-पतन नैनन-मझार, नख केश बढे नांही लगार.
चौदह सुरकृत राजें अनूप, तिन संयुत सोहे जगत भूप;
भाषा सू अर्ध मागधि अनूप, सब जीव मित्रता भाव रूप.
षट ॠतु फल फूल फले सदीव, दरपन सम अवनि लसे अतीव;
सब जीव परम आनंदरूप, योजन भुवि सुर मज्जें अनूप.
सुरमेघ करें जलगंध वृष्टि, पद तर सरदग भुजकंज सृष्टि;
भुविमंडल सोहे शशिस्वरूप, निरमल नभ अरुं दशदिश अनूप. ९

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सुर चतुरनिकाय सु जय भनंत, वर धर्मचक्र आगे चलंत;
वसु मंगल द्रव्य लसे अनूप, इन अतिशययुत जिनराज भूप. १०
वसु प्रातिहार्य उपमान जास, जहां तरु अशोक सब शोकनाश;
मनहर्षित सुर वरसात फूल, दिव्यध्वनि भवदुःख हरन मूल. ११
चामर मनु सुर सरिता तरंग, सिंहासन है मनु मेरुं श्रृंग;
भामंडल भव दरसात सात, रिपु मोह विजय दुंदुभी जितात. १२
अनुपम त्रय छत्र जु लसे शीश, ऐसी प्रभुता युत जगत ईश;
सुख दरश ज्ञान वीरज अनंत, इम षट चालिस गुणधर महंत. १३
तुम धन्य देव अरहंत सार, निर आयुध निरभय निरविकार;
जुत विभव परम वर्जित सु संग, लखि नग्न अंग लाजे अनंग.१४
तुम धारत हो करुणा अपार, सुन देव अबे मेरी पुकार;
मम कष्ट हरो सब भेद जान, तुम सेव सदा जाचें सु ‘‘थान’’. १५
( धत्ता छंद )
शिव! शिव शिवकर, वारिधि भवतरि अघटित सुख परिपूर भरं;
मन वच तन ध्याउं, गुनगन गाउं, बाहु जिनं अघ ओघहरं.
( अडिल्ल )
ले पावन वसु द्रव्य पाणियुग धारि कें,
यजें बाहु जिन भव्य गुणोघ उचारि कें;
ते निजगुन परिपूर होत भ्रम भानि के,
कर्म शत्रु दल हरें शक्ति निज ठानि के.

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[४]
श्री सुबाहुजिनस्तवन
( दोहा )
अजय जयी अजयी सु अज, भव अज भय-हरतार,
रहित कर्मरज कुजदलन, जय सुबाहु बलधार.
( छंद )
जय जिनदेव सुबाहुवरं, केवल भानु प्रभानिकरं;
है निशढिल्ल नरेश पिता, मात सुनंदा शोभयुता.
पावन जन्मपुरी अवधि, है भव ज्ञान त्रियुक्त सुधी;
चिह्न लसे कपिको ध्वजमें, इन्द्र नमें पद पंकज में.
वैन सुधासम है सुथरे, सो गन ईश प्रकाश करें;
मोह महाभ्रम नाशन है, तत्त्व सु सात प्रकाशन है.
जीव भन्यो उपयोग मई, और अजीव जु है जडई;
आस्रव है पर प्रीतिहिसें, सो रस दायक बंध बसें.
संवर आस्रव रोक लसें, दे रस कर्म द्विभांति नसें;
सो यह निर्जर भाव लसें, है सुखदा जुत संवरसें.
मोक्ष सुबंधन मोक्ष करें, ये शिवदाय प्रतीत धरें;
क्षेत्र त्रिलोक अनादि लसें, कारक धारक नांहि इसें.
ना हरता कोउ है जु इसे, ते ध्रुव और उपजे विनसे;
ये सत लक्षण मंडित हैं, भाखत यों शत पंडित हैं.

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जीव भन्यो उपयोग जुई, पुद्गल है गुन चार मई;
गंध स्पर्श रु वर्ण धरें, औ रसरूप मिलेंबिछूरे.
गमन सहायक धर्म गिनें, स्थान सहाय अधर्म भनें;
है अवकाश अकाश सही, जो वरतावन काल कही.
क्षेत्र रु काल जु भावनकी, होत लहाय जसी जिनकी;
ता समही सब रूप लसें, सो सब देव तुम्हें दरसे. १०
देख इन्हें निजरूप गहें, सो तब ही सुखसिंधु लहे;
है परप्रीति नहीं उरमें, नाहीं तहां सुख है धूरमें. ११
तो शरना इह हेत गही, हो हमकुं सरधा जु यही;
मो मन तो पदकंज धरो, भो जगपाल निहाल करो. १२
ये रसना मुखमें जु रहे, तौ लग तो गुनगान चहे;
प्रीति हटें परतें हमरी, चित्त बसे छबि या तुमरी. १३
औगुनको न हिये धरिये, दीन निहारी दया करिये;
‘‘थान’’ ग्रही शरना तुमरी, व्याधि हरो जिनजी हमरी. १४
( निशपालिका छंद )
रूप निज भालिकर भालि अति तीक्षनी,
ध्यान धनु साधि करि सैन्य विधिकी हनी;
देव वर बाहु पद कंज जन जो यजे,
ठोकी भुजदंड अरिमोह जय सों सजें.

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( अडिल्ल )
चरन सरोज सुबाहु तने जन जो यजें,
तजें अविद्याभाव स्वानुभवको भजें;
पुत्र पौत्र धनधान्य सौख्य इह भव लहें,
पर भव वरपद भोगी मुक्ति पदवी ग्रहें.
[५]
श्री संजातक जिनस्तवन
( छप्पय छंद )
जितदुराश दिगवास आश शिववास जास उर,
चिद विलास सुविकास अमित गुनराशि ज्ञान पर.
वर विभूति परकास दास सुरपति सब सेवें,
धरन ध्यान तप राशि नाशि भ्रम निजगुन लेवें.
बल अतुलराशि अरि त्रास करि, असमशक्ति संजात धर,
करुना प्रकाशि निज दास पैं, सुख विकासी अघ नाश कर.
( दीपकला छंद )
संजातक सुनि मेरी पुकार, विधिवश मैं दुःख भुगते अपार;
वर भाग्य उदय तुम वचन द्वार, यह जान परी हमकुं अबार.
विधि बंधनकारण पांच एव, तिनमें मिथ्यात जु पंचमेव;
सो प्रथम नाम एकांत जास, जिस बल नहीं पूरन वस्तु भास.

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विपरीत नाम दूजो विरूप, दरसात औरसें और रूप;
तीजो सु विनय नामा कुभाव, जिस बल श्रद्धा चंचल लखाव.
संशय चतुर्थ जानो अहेत, सो सत्य प्रतीत न होन देत;
पंचम अज्ञान विशेष जानि, जिस बल न सकें निजगुण पिछानी.
पुनि अविरत विरत स्वभाव हीन, परमाद अक्षवश स्नेहलीन;
कसि है जु कषाय सु करत क्षोभ, यह क्रोध मान माया रू लोभ.
उपहास्य अरति रति शोक जानि, भय जुगुप्सा रू त्रय वेद मानि;
चल तन मन वचन सुयोग तीन, ये बंधनकारन लिए चीन.
सो बंध चतुर्विध है सुजान, पहले प्रकृति सु सुभाव मान;
थितिबंध करे थितिको विथार, अनुभाग तृतीय रस देनहार.
आतम प्रदेश परचय सुजानि, सो बंध प्रदेश चतुर्थ मानि;
करि भूलि वसें वसु भांति येह, परिवर्तन काल किये अछेह.
दुःख भुगते सो कहि सकत नाहि, सब झलकि रहे तुम ज्ञानमांहि;
वर मात देवसेना विख्यात, नृप देवसेन पितु विमल गात.
अलकापुर पावन जन्म थान, युत सूर्य-चिह्न राजत निशान;
वर धर्मचक्र धारत जगीश, तुम गुन नहि बरन सकें फणीश. १०
तुम दीन दयाल कहात देव, यातें हम शरन गही स्वमेव;
विधिबंध योग्य दुरभाव हानि, करि क्षायिकभाव कृपा निधान. ११
यह जाचत हूं कर जोडि देव, भवभव पाउं तुव चरन सेव;
तुव वचन सुधारस पान सार, ये ‘‘थान’’ चहे भवभव-मझार. १२

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( धत्ता छंद )
जय चिदवर वरछबि मोह अचल पवि, चारित धर धर धरनिधर,
संभ्रमतपहर अवि तन-द्युतिजितरवि, संजातक जिन श्रेयकरं.
( अडिल्ल छंद )
संजातक जिन सेव करत कर जोरिकें,
जानत भवि निजजाति नेह पर मोरिकें;
प्रकट होत सुख अघट सुघटमें ता घरी,
पूजें मनकी आश वास ह्वै निजपुरी.
[६]
श्री स्वयंप्रभ जिनस्तवन
( दोहा )
जन्मथान विजयापुरी, जयो मंगलानंद;
सुहृदमित्र नृप तात जसु, लसे चिन्ह ध्वज चंद.
जास गिरा पावन गदा, हरन मोह दुरयोध;
पावन पावन उर धरूं, पावन पावन बोध.
( सुंदरी छंद )
वसु धरापति देव स्वयंप्रभु, अरज दास तनी सुनिये विभु;
मम सु भूलि वसे बहु कर्म ये, चिर लगे भव कष्ट महा दिये.

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करन मत्सर के पर भावतें, बहुरि विघ्न भरे दुर भावतें;
करत साधनको उपघात सो, दरश ज्ञान प्रभात नसात सो.
दुरत ज्ञान सु पंच प्रकार है, दरश आतमको न निहार है;
द्विविध वेदनी कर्म तृतीय है, रस शुभाशुभ देत स्वकीय है.
प्रथम सो सुखदायक मानिये, बंधत सो इह भांति प्रमानिये;
सकल जीव व्रती जनकी दया, बहुरि दान चतुर्विध को दिया.
धरत संयम राग लिये सु जो, करत योगनकी चलता न जो;
असत होत जु दुःख विशेषतें, रुदन पान रू शोक कुवेषतें.
करत है वध जो दुरभावतें, अरु करे परिदेवन आवतें;
स्व परके परतें परनाम ये, परत बंध महा दुःखधाम ये.
भनत रूप विरूप सुदेवको, निगम संघ रु धर्मसु भेवको;
दरशमोह जु बंधमहान ये, परत आतम शक्ति दुरान ये.
वश कषाय उदै परिनाम जो, करत चारित मोह जु तीव्र जो;
दरश चारित द्वैविध मोह ये, करत हैं निज शक्ति विछोह ये.
बहु परिग्रह आरंभ जास के, नरक आयु बंधे जिय तास के;
कुटिल वा तिर्यंच गति सुदा, अलप आरंभ मानव जन्मदा.
सहित राग असंजम संजमं, पुनि अकाम तु निर्जरतापमं;
तप अज्ञान रू सम्यक् हेतु है, सुभग देवगति यह देतु है. १०
इम चतुर्विध आयु सू कर्म है, कुटिल योग विवाद सू धर्म है;
अशुभ नाम कुबंध सू लेत है, उलटी जो इनतें शुभको वहै. ११

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तुरत बंध करें शुभ नाम ते, द्विविध नाम भनें मतिधाम ते;
करत जो परकी विकथा कुधी, बहुरि आतम शंस करे सुधी. १२
परतनें गुनकुं जु दुरात है, कुल जु नीच वहे नर पाता है;
करत जो इनतें विपरीतता, धरत है कुल उच्च पुनीतता. १३
कर्म गोत्र सु द्वैविध यों कहे, करत विघ्नअलाभ महा लहें;
यह कुभाव टरें उरतें जबे, सुखित होय रहे शिवमें तबे. १४
बिरद दीनदयाल संभारिये, दुःखित देख दया कर धारिये;
तिमिर मोह महा उरतें हरो, निज स्वरूप प्रकाशि सुखी करो. १५
( छंद तरंगि )
विधि अनोकुहकी जरकी निरमूलता,
सुभग आतमके गुनकी अति थूलता;
विघनकी हरनी करनी दुःख साल है,
जिन स्वयंप्रभुकी जयदा जयमाल है.
( अडिल्ल छंद )
स्वयंप्रभु जिनदेव सेव जो जन भजे,
थिर करि मनवचकाय अनाकुलता सजे;
करे वास उर जास रूप जग भूपको,
उदय होत है प्रकट भानु निजरूपको.

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[७]
श्री ´षभानन जिनस्तवन
( दोहा )
तालु ओष्ठ के स्पर्श बिना, धुनि घनसम अवदात,
प्रकटत भ्रमतम हरनकूं, तरुण किरण मनु प्रात.
( पद्धरी छंद )
जय ॠषभानन सुनि जगत भूप,
मैं एक भावमय निजस्वरूप;
चिरतें पर परणति संगपाय,
परिवर्तन भाव धरे अघाय.
निज पर मिल मूल सुभाव पांच,
पहिचाने मुनि तुम वचन सांच;
पहलो उपशम जानो सु एव,
सो सम्यक्चारित युगलभेव.
दूजो क्षायिक सो नव प्रकार,
है ज्ञान दरश अरु दान सार;
चिद लाभ भोग उपभोग जान,
वरवीर्य सु सम्यक् चरण मान.
ये प्रकट लसें तुममें सदेव,
है मिश्र अष्ट दशरूप एव;

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मति श्रुतावधि ज्ञान रू कुज्ञान,
मनपर्यय पुनि त्रय दरश जान.
सो चक्षु अचक्षु रू अवधि एव,
पुनि लब्धि पंचविध है स्वमेव;
शुचि दान लाभ भोगोपभोग,
युत वीरज पंच भये सयोग.
सम्यक् अरु चारित युगल जान,
संयमासंयम सु एक मान;
इम सब मिल वसु दश भाव येह,
क्षय उपशम बल प्रकटे सु जेह.
उदयिक एक विंशति प्रकार,
वरने जगपति जु तुम निहार;
गति नारक पशु नर सुर सु चार,
तम मान कुटिल लालच असार.
तिय पुरुष नपुंसक वेद तीन,
मिथ्यादर्श रू अज्ञान चीन;
पुनि असिद्धत्व वामें पिछान,
लेश्या षट कृष्ण रू नील जान.
कापोत पीत अरु पद्म एव,
पुनि शुक्ल छठ्ठी जानो सु भेव;

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पुनि पारिणामिक सु भाव तीन,
जीवत भव्यत्व अभव्य लीन.
इनमें उदयिक भावनि प्रचार,
परिवर्तन पंच किये अपार;
भुगते मैं कष्ट अनादि देव,
तिनको तुम पार लयो स्वमेव. १०
इनतें उबारि लखि दीन मोहि,
यह अरज करत है ‘थान’ तोहि;
परपरिणति तें मनको हटाय,
निजरूप हमें दीजे दिखाय. ११
( लीलाकर छंद )
धारें जगाधीशके वैनकुं जो हिए मांहि,
छारें सरूपी तने पारिणामी उदै ताहि;
वारें चतु द्रव्यके पारिणामी भली भांति,
सोही लहे सौख्य जोही गहे आपनी जाति.
( अडिल्ल छंद )
ॠषभानन जग जान यजत नर जो सही,
टरे सकल दुःख द्वंद वर अनुभव मही;
मुक्ति महीरुह मंजु तहां लहलात है,
अनुपम सौख्य अनंत सुरस फल पात है.

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[८]
श्री अनंतवीर्य जिनस्तवन
( दोहा )
धन्य जगतपति जन्म तुम, मनहु सुमंगलप्रात,
खिले भविनजिय-जलज जिम, नस्यो अमंगल व्रात.
( चौपाई )
सुनो अनंतवीर्य जिनदेव, भूलि भाव वश तें स्वयमेव;
भावकर्म रागादिक भाव, द्रव्यकर्म वसु प्रकृति स्वभाव.
देहादिक नोकर्म सु येह, लगे अनादि संग मम तेह;
सागर बंध लिये थिति सोहि, काल अनंत भ्रमायो मोहि.
योजन एक बडो गहराय, इतनो ही मुख वेध सुभाय;
ऐसो कूप कलपना करे, ताकूं पुनि ऐसी विध भरे.
उत्तम भोगभूमि वर खेत, ता मधि जो उपजे शुभ हेत;
भेड सूनु कच अग्र सुलेत; खंड सूक्ष्म तिनके करि लेत.
भरी तामें काढे इह भाय, खंड एकशत वर्ष विताय;
कूप उदर जब खाली होय, सो व्यवहार पल्य करि जोय.
वर्ष असंख्य कोटी सम थान, तिन रोमनिकी राशि प्रमान;
करि कल्पना घात तिह करे, समय समय प्रति एक जु हरे.

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ये उद्धार पल्य मन आनि, दीप उदधि संख्या हितजाणी;
याके रोम पुंज है जिते, कोडा कोडी पचीस जु तिते.
वरस एक शतके पुनि जान, समय करे आगम परमान;
रोम उद्धार पल्यकी राशि, करो घात तिन बुद्धि प्रकाश.
ते दश कोडा कोडी प्रमाण, श्रद्धा सागर होत महान;
थिति प्रमान यातें कर जोय, ये तुम वैन जिताई सोय.
ज्ञान दर्शनावरण द्वि मान, वेदनी अंतराय पुनि जान;
करे बंध उत्कृष्ट जु चार, कोडा कोडी तीस दधि सार. १०
सीत्तेर कोडा कोडी प्रमाण, सागर परे मोहनि थिति जान;
कोडा कोडी वीस दधि होय, नाम गोत्र की पर थिति जोय. ११
है तेतीस उदधि परमान, आयु कर्म की पर थिति जान;
अपर आयु वेदनी विधि दोय, थिति द्वादश मुहूर्त अवलोय. १२
नाम गोत्र दोउ विधि जाय, वसु मुहूर्त थिति अल्प प्रमान;
ज्ञान दर्शनावरण जु दोय, मोहनी विघ्न आयु पुनि सोय. १३
थिति अंतर्मुहूर्त इक मान, ये तुम भाषित है भगवान;
भुगती मैं परिवर्तनरूप, सो सब तुम जानतु जगभूप. १४
ह्वै भयभीत शरण तुम ग्रही, इनतें वेग छुडावो सही;
दीन दयाल दयानिधि नाम, अव विलंब करनो किहि काम. १५