स्तवनमाळा ][ ९
निज पर आतम हित आत्मभूत,
जबसे है जब उत्पत्ति सूत;
ज्यों महाशीत ही हिम प्रवाह,
है मेटन समरथ अगिन दाह. ९
त्यों आप महा मंगल स्वरूप,
पर विघन विनाशन सहजरूप;
हे संत दीन तुम भक्ति लीन,
सो निश्चय पावै पद प्रवीण. १०
श्री जिन – स्तवन
(पद्धरी छंद)
जय महामोह दल दलन सूर,
जय निर्विकल्प आनंद पूर;
जय दोउ विधि कर्म विमुक्त देव,
जय निजानंद स्वाधीन एव. १
जय संशयादि भ्रम तम निवार,
जय स्वात्म शक्तिद्युतियुत अपार;
जय युगपति सकल प्रत्यक्ष लक्ष,
जय निरावरण निर्मल अनक्ष. २
जय जय जय सुखसागर अगाध,
निरद्वंद निरामय निर उपाधि;
जय मन वच सब व्यापार नाश,
जय थिर सरूप निज पद प्रकाश. ३