८ ][ श्री जिनेन्द्र
त्रैलोक्य शिखर राजत अखंड,
सम्पूरण द्युति प्रगटी प्रचंड. ३
मुनि मन मंदिरको अंधकार,
तिस ही प्रकाशसों नशत सार;
सो सुलभ रूप पावै निजर्थ,
जिस कारण भव भव भ्रमें व्यर्थ. ४
जो कल्प कालमें हेत सिद्ध,
तुम छिन ध्यावत लहिये प्रसिद्ध;
भवि पतितनको उद्धार हेत,
हस्तावलंब तुम नाम देत. ५
तुम गुण सुमिरण सागर अथाह,
गणधर शरीर नहिं पार पाह;
जो भवदधि पार अभव्य रास,
पावे न वृथा उद्यम प्रयास. ६
जिन मुख – द्रहसे निकसो अभंग,
अतिवेग रूप सिद्धांत गंग;
नय सप्त भंग कल्लोल मान,
तिहुं लोक वही धारा प्रमान. ७
यातें जगमें तीरथ सुधाम,
कहि लायो है सत्यार्थ धाम;
सो तुम ही सोहैं शोभनीक,
नातर जलसम जु वहै सु ठीक. ८