स्तवनमाळा ][ ७
सो काल अनंत दियो विताय,
तामें झकोर दुखरूप खाय;
मम दुखी देख उर दया आन,
इम पार करो कर ग्रहण पान. ९
तुमही हो इश पुरुषार्थ जोग,
अरू है अशक्त करि विषय रोग;
सुर नर पशुदास कहै अनंत,
इनमें से भी इक जान संत. १०
श्री जिन – स्तवन
(पद्धरी छंद मात्रा)
जन मदन कदन मन करण नाश,
जय शांतिरूप निज सुखविलास;
जय कपट सुभट पट करन सूर,
जय लोभ क्षोभ मद दंभ चूर. १
पर परणति सों अत्यंत भिन्न,
निज परणति सों अति ही अभिन्न;
अत्यंत विमल सब ही विशेष,
मल लेश शोध राखो न लेश. २
मणिदीप सार निर्विघन ज्योत,
स्वाभाविक नित्य उद्योत होत;