स्तवनमाळा ][ ११
स्व पर विवेक मंत्री पुनीत,
स्व रुचि वरतायो राजनीत;
जग विभव विभाव असार एह,
स्वातम सुखरस विपरीत देह. २
तिन नाशन लीनो द्रढ संभार,
शुद्धोपयोग थित चरण सार;
निर्ग्रंथ कठिन मारग अनूप,
हिंसादिक टारन सुलभ रूप. ३
द्वयवीस परीसह सहन वीर,
बहिरंतर संयम धरण धीर,
द्वादश भावन दश भेद धर्म,
विधिनाशन बारह तप सु पर्म. ४
शुभ दया हेत धरि समिति सार,
मन शुद्ध करण त्रय गुप्त धार;
एकाकी निर्भय निस्सहाय,
विचरो प्रमत्त नाशन उपाय. ५
लखि मोह शत्रु परचंड जोर,
तिस हनन शुक्ल दल ध्यान जोर;
आनंद वीररस हिये छाय,
क्षायक श्रेणी आरंभ थाय. ६
बारम गुणथानक ताहि नाश,
तेरम पायो निजपद प्रकाश;