१२ ][ श्री जिनेन्द्र
नव केवल लब्धि विराजमान,
दैदीप्यमान सोहे सुभान. ७
तिस मोह दुष्ट आज्ञा एकांत,
थी कुमति स्वरूप अनेक भ्रांत,
जिनवाणी करि ताको विहंड,
करि स्याद्वाद आज्ञा प्रचंड. ८
वरतायो जगमें सुमति रूप,
भविजन पायो आनंद अनूप;
छे मोह नृपति तव कर्ण शेष,
चारों अघातिया विधि विशेष. ९
है नृपति सनातन रीति एह,
अरि विमुख न राखे नाम तेह;
यों तिन नाशन उद्यम सु ठान,
आरंभ्यो परम शुक्ल सुध्यान. १०
तिस बलकरि तिनकी थिति विनाश,
पायो निर्भय सुखनिधि निवास;
यह अक्षय जीति लई अबाधि,
पुनि अंश न व्याप्यो शत्रु व्याधि. ११
शाश्वत स्वाश्रित सुख श्रेय स्वामि,
है शांति संत तुम कर प्रमाण;
अंतिम पुरुषारथ फल विशाल,
तुम विलसौ सुखसों अमित काल. १२