६६ ][ श्री जिनेन्द्र
श्री गुरुदेव – स्तवन
सागर उछळ्यो ने जाणे ल्हेरीओ चडी,
गुरुजीनी वाणी एवा गगने अडी;
पंखी उडतातां हती एक आशडी,
तरस्युं छीपे जो मळे मीठी वीरडी....सागर.
झांझवाना जळथी छीपी नहि तरसडी,
एवा मिथ्या नीरनी ज्यारे खबरुं पडी....सागर.
तरस्या जीवोने सत्य वाट सांपडी,
के खारा समुद्र छे एक मीठी वीरडी....सागर.
आत्मधर्म बोध्यो छीपावी तरसडी,
अज्ञान समुद्र छो कान ज्ञान वीरडी....सागर
विनवुं प्रभु आपने हुं पायले पडी,
अविचळ व्हेजो ए मारी मीठी वीरडी....सागर.
विषापहार स्तोत्र
(दोहा)
नमों नाभिनंदन बली, तत्त्वप्रकाशनहार,
तुर्यकालकी आदिमें, भये प्रथम अवतार.
(काव्य वा रोला छंद)
निज आतममें लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे,
जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारे;