स्तवनमाळा ][ ६७
बहुत कालके हौ पुनि जरा न देह तिहारी,
ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी. १
परहरिकैं जु अचिंत्य भार जुगको अति भारो,
सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो;
करि न सके जोगीन्द्र स्तवन मैं करिहौं ताको,
भानु प्रकाश न करे दीप तम हरै गुफाको. २
स्तवन करनको गर्व तज्यो सक्री बहु ज्ञानी,
मैं नहि तजौ कदापि स्वल्पज्ञानी शुभध्यानी;
अधिक अर्थको कहूं यथाविधि बैठि झरोकै,
जालांतर धरि अक्ष भूमिधरकों जु विलोकै. ३
सकल जगतको देखत अर सबके तुम ज्ञायक,
तुमकों देखत नहिं नहिं जानत सुखदायक;
हौ किसका तुम नाथ और कितनाक बखाने,
तातैं थुति नहिं बनै असक्ती भये सयाने. ४
बालकवत निज दोष थकी इहलोक दुखी अति,
रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति,
हित अनहितकी समझि मांहि हैं मंदमती हम,
सब प्राणिनके हेत नाथ तुम बालवैद सम. ५
दाता हरता नाहिं भानु सबको बहकावत,
आजकाल के छलकरि नितप्रति दिवस गुमावत,
हे अच्युत जो भक्त नमैं तुम चरन-कमलकों,
छिनक एकमें आप देत मनवांछित फलकों. ६