६८ ][ श्री जिनेन्द्र
तुमसों सन्मुख रहै भक्तिसों सो सुख पावै,
जो सुभावतैं विमुख आपतैं दुखहि बढावै;
सदा नाथ अवदात एक द्युतिरूप गुसांई,
इन दोनोंके हेत स्वच्छ दरपणवत झांई. ७
है अगाध जलनिधि समुदजल है जितनौ ही;
मेरू तुंगसुभाव शिखरलौं उच्च भन्यो ही;
वसुधा अर सुरलोक एहु इस भांति सई है,
तेरी प्रभुता देव भुवनिकूं लंघि गई है. ८
है अनवस्थाधर्म परम सो तत्त्व तुमारे,
कह्यो न आवागमन प्रभु मतमांहि तिहारे;
द्रष्ट पदारथ छांडि आप इच्छित अद्रष्टकौं,
विरुधवृत्ति तव नाथ समंजस होय सृष्टकौं. ९
कामदेवको किया भस्म जगत्राता थे ही,
लीनी भस्म लपेटि नाम शंभु निज देही;
सूतो होय अचेत विष्णु वनिताकरि हार्यो,
तुमको काम न गहै आप घट सदा उजार्यो. १०
पापवान वा पुन्यवान सो देव बतावै,
तिनके अवगुन कहै नाहिं तू गुणी कहावै;
निज सुभावतैं अंबुराशि निज महिमा पावै,
स्तोक सरोवर कहे कहा उपमा बढि जावै. ११
कर्मनकी थिति जन्तु अनेक करै दुखकारी,
सो थिति बहु परकार करै जीवनकी ख्वारी;