Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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जो कुदेव छविहीन वचन भूषण अभिलाखै;
वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखै;
तुम सुंदर सर्वङ्ग शत्रु समरथ नहिं कोई,
भूषण वसन गदादि ग्रहन काहेको होई. १९
सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी,
सो सलाघन लहै मिटै जगसों जगफेरी;
तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकंत उचरिये,
तुहीं जगत-जनपाल नाथथुतिकी थुति करिये. २०
वचन जाल जडरूप आप चिन्मूरति झांई,
तातैं थुति आलाप नाहिं पहुंचै तुम तांई;
तो भी निर्फल नाहिं भक्तिरसभीने वायक,
संतनको सुरतरु समान वांछित वरदायक. २१
कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहुं नहिं धारो,
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो;
तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये,
यह प्रभुता जग तिलक कहां तुम विन सरदहिये. २२
सुरतिय गावैं सुयश सर्वगति ज्ञानस्वरूपी,
जो तुमको थिर होहिं नमैं भविआनँदरूपी;
ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहिं हो है,
श्रुतके सुमरनमांहि सो न कबहूं नर मोहै. २३

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अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चितमैं धारै,
आदरसों तिहुंकालमाहिं जगथुति विस्तारै;
सो सुक्रत शिवपंथ भक्तिरचना कर पूरै,
पंचकल्यानक ॠद्धिपाय निहचै दुख चूरै. २४
अहो जगतपति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारै,
तुम गुणकीर्तनमांहि कौन हम मंद विचारे;
थुति-छलसों तुम विषै देव आदर विस्तारे!
शिवसुखपूरनहार कलपतरु यही हमारे. २५
वादिराज मुनितै अनु, वैयाकरणी सारे,
वादिराज मुनितैं अनु, तार्किक विद्यावारे;
वादिराज मुनितैं अनु, हैं काव्यनके ज्ञाता,
वादिराज मुनितैं अनु, हैं भविजनके त्राता. २६
(दोहा)
मूल अर्थ बहुविधिकुसुम, भाषा सूत्र मंझार,
भक्तिमाल ‘भूधर’ करी, करो कंठ सुखकार.
श्री जिनेन्द्रस्तुति
(पद्धरी छंद)
जिन प्रतिबिंब लखी मैं सार, मनवांछित सुख लहो अपार;
जय जय निःकलंक जिनदेव, जय जय स्वामी अलख अभेव.

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जय जय मिथ्या तुम हर सूर, जय जय शिव तरुवर अंकूर;
जय जय संयमवन-धनमेह, जय जय कंचनसम द्युति देह.
जय जय कर्म विनासनहार, जय जय भवगति सागर पार;
जय कंदर्प गज दलन मृगेश, जय चारित्र धराधर शेष.
जय जय क्रोध सर्प हत मोर, जय अज्ञान रात्रिहर भोर;
जय जय निराभरण शुभ संत, जय जय मुक्ति कामनीकंत.
बिन आयुध कोई शंक न रहे, राग द्वेष तुमको नहीं चहे;
निरावरण तुम हो जिन-चन्द्र, भव्य कुमुद विकसावन कंद.
आज धन्य वासर तिथि वार, आज धन्य मेरो अवतार;
आज धन्य लोचन ममसार, तुम स्वामी देखे जु निहार.
मस्तक धन्य आज मो भयो, तुम्हरे चरणकमलको नयो;
धन्य पाद मेरे भये अबै, तुम तट आय पहुंचो जबै.
आज धन्य मेरे कर भये, स्वामी तुम पद स्पर्शन लये;
आजही मुख पवित्र मुझ भयो, रसना धन्य नाम जिन लयो.
आजही मेरो सब दुख गयो, आजही मो कलंक क्षय भयो;
मेरे पाप गये सब आज, आजही सुधरो मेरो काज.
श्री शांतिनाथ जिनस्तवन
(छंद भुजंगप्रयात)
प्रभु आपने सर्व के फन्द तोडे,
गिनाऊं कछू मैं तिनों नाम थोडे;

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पडो अंबुधे बीच श्रीपाल राई,
जपो नाम तेरो भयो थे सहाई.
धरो रायने सेठ को सूलिका पै,
जपी आपके नाम की सार जापै;
भये थे सहाई तबै देव आये,
करी फूल वर्षा सु वृष्टिर बनाये.
जबै लाख के धाम वह्नि प्रजारी,
भयो पांडवों पै महा कष्ट भारी;
जबै नाम तेरे तनी टेर कीनी,
करी थी विदुरने वही राह दीनी.
हरी द्रौपदी धातुकी खंड मांही;
तुम्हीं व्हां सहाई भला और नाहीं;
लियो नाम तेरो भलो शील पालो,
बचाई तहां ते सबै दुःख टालो.
जबै जानकी राम ने जो निकारी,
धरे गर्भ को भार उद्यान डारी,
रटा नाम तेरो सबै सौख्यदाई,
करी दूर पीडा सु क्षणना लगाई.
व्यसन सात सेवे करें तस्कराई,
सुअंजन से तारे घडी ना लगाई;
सहे अंजना चंदना दुःख जेते,
गये भाग सारे जरा नाम लेते.

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घडे बीचमें सासने नाग डारो,
भलो नाम तेरो जु सोमा संभारो;
गई काढने को भई फूलमाला,
भई है विख्यात सबे दुःख टाला.
इन्हें आदि देके कहां लों बखानै,
सुनो विरद भारी तिहूं लोक जानैं;
अजी नाथ मेरी जरा ओर हेरो,
बडी नाव तेरी रती बोझ मेरो.
गहो हाथ स्वामी करो वेग पारा,
कहूं क्या अबै आपनी मैं पुकारा;
सबै ज्ञान के बीच भासी तुम्हारे,
करो देर नाहीं मेरे शांति प्यारे.
श्री आदिनाथ भगवानकी स्तुति
(मंगलकरन विनती छन्द गीतामें)
श्रीवर परमगुरु आदि जिनवर त्रिजगपति सर्वोत्तमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योतमं. टेक.
शतइन्द्रनमत पादयुग तुम नखतनी द्युतिशोभितं,
महिमा अनन्त भनंत कोन लहंत गननहि छोरतं;
वैभव अतुलकरि युक्त कमला भुक्तनंत चतुष्टयं,
लहि समवसरन प्रघटरमा साम्राज्यपदवर इष्टयं;

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हम स्वल्पमति किम कहि शकैं अनुपम्य तुम पुरुषोत्तमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्ष-ज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
जब गर्भ आये मास पंचदश रत्नधारा वर्षियं,
जन्में जिनेन्द्र सुरेन्द्र न्हवन गिरीन्द्रपै करि हर्षियं;
भयो सर्व जगजन सौख्यहित गयो दुःख नारकि आदिको,
श्रीधर्मचक्रशिताप्रवर्तो नशो तिमिर अनादिको;
त्रैलोक्यपावन इष्ट अति उत्कृष्ट जिनदेवोत्तमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्ष-ज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
तुम श्रेयकर हम देहधर भरमें अपर घर-घर तने,
ह्वै रंक अति सकलंक गति सहि पंकफसि अघभी बने;
मिति है न व्यक्ति अशर्मकी नहिं दुरति हारी लखि परे,
पाये तुम्हीं कल्याणकारी विरद भारी अघ हरे;
तुम विघ्नहरवर सकल मंगलदाय सहाय करोत्तमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योत्तमं.
समरथ्थ सबविधि हो तुम्हीं असमर्थ मैं अग्रेश्वरी,
ऐसी दशा मम जानकर मोहि लै चलौ अपनी पुरी;
तुम अघनिवारन नाम धारौ काज सारौ सर्वको,
मैं तो अनादि निपट दुखारी भयो हारी कर्मको;

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तुम चरणकज्ज भ्रमर बनौं, न कदापि छोडूं जो तुमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
धनि भाग जगजीवनितनों सुविहारकरत जिनेश्वरं,
सुररचत कमल पचीस द्वै सौ पगधरत परमेश्वरं;
नागेन्द्र खग गन्धर्व किन्नर गीत मधुरे गावतं,
बाजत समाज मृदंग वीणा बांसुरी धुनि छावतं;
यश भणत प्रेम प्रमोदयुत सुर चमर शिरपर ढोंर्तमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
कहुं नृत्य करती अपसरा अंग मोरि हाव रु भावतं,
झननंझनं घुंगुरू बजै सननं सनं दरशावतं;
कोई हाथमें आशा लिये सुरविनयवंत चलावतं,
कोई स्तुति पढैं कोई छन्दवरलंकारसार सुनावतं;
जगईश देवाधीश शीश त्रिलोक वाजे हों तुमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
तुम जगतनाथ अनाथ हम अप साथकरि आदीशजी,
फिर फिर नमत तुम चरण सिरकरि, कृपा विश्वावीसजी;
अब भयो सबतर काज पूरन, तुम हृदयबिच धारियं,
फल मल्यो कोटि असंख्य शुभतर विविध मंगल कारियं;
द्रग सफल निरखत सिर नमत कर जोरतं सफलोत्तमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
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आनंद मेरे गात अति ही, रोम-रोमनि लखियतं,
तुम पाद भक्ति अखंड पाऊं जब न मोक्ष मिलीयतं,
वांछा कछू अब ना रही, तुमरो दरश पायें विभो,
सुनि यश श्रवण भए तृप्त जिह्वा, सफल गुण गाए प्रभो;
विनती उचारी अब ‘हजारी’ पै दया करियो तुमं,
हनि रजरहस्य प्रत्यक्षज्ञायक विश्वनायक द्योतमं.
श्री शांतिनाथ जिनस्तवन
पद्धरि छंद (१६ मात्रा)
जय शांतिनाथ चिद्रूपराज,
भवसागरमैं अद्भुत जहाज;
तुम तज सरवारथसिद्ध थान,
सरवारथजुत गजपुर महान.
तित जनम लियो आनंदधार,
हरि ततछिन आयो राजद्वार;
इंद्रानी जाय प्रसूति-थान,
तुमको करमैं ले हरष मान.
हरि गोद देय सो मोद धार,
सिर चमर अमर ढारत अपार;
गिरिराज जाय तित शिला-पांड,
तापैं थाप्यो अभिषेक मांड.

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तित पंचम उदधितनों सुवार,
सुर कर कर करि ल्याये उदार;
तब इन्द्र सहस कर करि अनंद,
तुम शिर धारा डार्यो सुनंद.
अघ घघ घघ घघ धुनि होत घोर,
भभ भभ भभ धध धध कलश शोर;
द्रमद्रम द्रमद्रम बाजत मृदंग,
झन नन नन नन नन नूपुरंग.
तन नन नन नन नन तनन तान,
घन नन नन घंटा करत ध्वान;
ताथेई थेई थेई थेई थेई सुचाल,
जुत नाचत नावत तुमहिं भाल.
चट चट चट अटपट नटत नाट,
झट झट झट हट नट शट विराट,
इमि नाचत राचत भगत रंग,
सुर लेत जहां आनंद संग.
इत्यादि अतुल मंगल सुठाट,
तित बन्यौ जहां सुरगिरि विराट;
पुनि करि नियोग पितुसदन आय,
हरि सौंप्यो तुम तित वृद्ध थाय.
पुनि राजमाहिं लहि चक्ररत्न,
भोग्यो छखंड करि धरमजत्न;

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पुनि तपधरि केवलरिद्धि पाय,
भविजीवनकों शिवमग बताय.
शिवपुर पहुंचे तुम हे जिनेश,
गुनमंडित अतुल अनंत भेष;
मैं ध्यावतुं हौं नित शीशनाय,
हमरी भवबाधा हरि जिनाय. १०
सेवक अपनो निज जान जान,
करुणा करि भौभय भान भान;
यह विघनमूलतरु खंड खंड,
चितचिंतित आनंद मंड मंड. ११
श्री जिनेन्द्रस्तुति
(पद्धरी छंद)
रची नगरी छहमास अगार,
बने चहुं गोपुर शोभ अपार;
सु कोटतनी रचना छवि देत,
कंगूरनपै लहकैं बहुकेत.
बनारसकी रचना जु अपार,
करी बहुभांति धनेश तैयार;
तहां विश्वसेन नरेंद्र उदार,
करे सुख वाम सु दे पटनार.

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तज्यो तुम प्रानत नाम विमान,
भये तिनके वर नंदन आन;
तबै सुरईंद नियोगन आय,
गिरिंद करी विधि न्हौन सु जाय.
पिता घर सौंपि गये निज धाम,
कुबेर करे वसु जाम सु काम;
बढै जिन दौज मयंक समान,
रमैं बहु बालक निर्जर आन.
भये जब अष्टम वर्ष कुमार,
धरे अणुव्रत महासुखकार;
पिता जब आन करी अरदास,
करौ तुम ब्याह वरै मम आस.
करी तब नाहिं रहे जगचंद,
किये तुम काम कषाय जु मंद,
चढे गजराज कुमारन संग,
सु देखत गंगतनी सु तरंग.
लख्यो इक रंक करै तप घोर,
चहूंदिशि अगनि बलै अति जोर;
कहै जिननाथ अरे सुन भ्रात,
करै बहु जीवनकी मत घात.
भयो तब कोप कहै कित जीव,
जले तब नाग दिखाय सजीव,

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लख्यो यह कारण भावन भाय,
नये दिव ब्रह्मरिषीसुर आय.
तबहि सुर चार प्रकार नियोग,
धरी शिबिका निज कंध मनोग;
कियो वनमांहि निवास जिनंद,
धरे व्रत चारित आनँद कंद.
गहे तहँ अष्टमके उपवास,
गये धनदत्त तने जु अवास;
दयो पयदान महासुखकार,
भयी पनवृष्टि तहां तिहिं बार. १०
गये तब काननमांहि दयाल,
धर्यो तुम योग सबहिं अघटाल;
तबै वह धूम सुकेत अयान,
भयो कमठाचरको सुर आन. ११
करै नभ गौन लखे तुम धीर,
जु पूरब वैर विचार गहीर;
कियो उपसर्ग भयानक घोर,
चली बहु तीक्षण पवन झकोर. १२
रह्यो दसहूं दिशिमैं तप छाय,
लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय;

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सुरुंडनके विन मुंड दिखाय,
पडै जल मूसलधार अथाय. १३
तबें पदमावति-कंथ धनिंद,
चले जुग आय जिहां जिनचंद;
भग्यो तब रंक सु देखत हाल,
लह्यो तब केवलज्ञान विशाल. १४
दियो उपदेश महा हितकार,
सुभव्यन बोधि समेद पधार;
सुवर्णभद्र जहँ कूट प्रसिद्ध,
वरी शिव नारि लही वसुरिद्ध. १५
जजूं तुम चरन दुहूं कर जोर,
प्रभु लखिये अब ही मम ओर;
कहै बखतावर रत्न बनाय,
जिनेश हमें भवपार लगाय. १६
श्री जिनस्तवन
(चौपाई)
प्रभु इस जग समरथ ना कोय,
जासौं तुम जस वर्णन होय;
चार ज्ञानधारी मुनि थकै,
सो मतिमंद कहा कहि सकैं.

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यह उर जानत निश्चय कीन,
जिनमहिमा वर्णन हम लीन;
पर तुम भक्तिथकी वाचाल,
तिस वस हो गाऊं गुणमाल.
जय तीर्थंकर त्रिभुवनधनी,
जय चंद्रोपम चूडामनी;
जय जय परम धरमदातार,
कर्मकुलाचल चूरनहार.
जय शिवकामिनिकंत महंत,
अतुल अनंत चतुष्टयवंत;
जय जय आशभरन बडभाग,
तपलछमीके सुभग सुहाग.
जय जय धर्मध्वजाधर धीर,
स्वर्गमोक्षदाता वर वीर;
जय रत्नत्रय रतनकरंड,
जय जिन तारनतरन तरंड.
जय जय समवसरनश्रृंगार,
जय संशयवनदहनतुषार;
जय जय निर्विकार निर्दोष,
जय अनंतगुणमाणिककोष.
जय जय ब्रह्मचर्य दल साज,
कामसुभटविजयी भटराज;

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जय जय मोहमहातरु करी,
जय जय मदकुंजर केहरी.
क्रोध-महानलमेघ प्रचंड,
मानमहीधर दामिनिदंड;
मायाबेलि धनंजय-दाह,
लोभसलिलशोषण-दिननाह.
तुम गुणसागर अगम अपार,
ज्ञान-जहाज न पहुंचै पार;
तट ही तट पर डोलै सोय,
कारज सिद्ध तहां नहि होय.
तुम्हरी कीर्ति बेल बहु बढी,
यत्न विना जगमंडप चढी;
और कुदेव सुयस निज चहैं,
प्रभु अपने थल ही यश लहैं. १०
जगत जीव घूमैं विन ज्ञान,
कीनौं मोहमहा विषपान;
तुम सेवा विषनाशक जरी,
यह मुनिजन मिलि निश्चय करी. ११
जन्म-लता मिथ्यामत मूल,
जन्म मरण लागैं तहं फूल;
सो कबहूं विन भक्ति कुठार,
कटै नहीं दुखफलदातार. १२

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कल्पतरूवर चित्राबेली,
कामपोरषा नवनिधि मेलि;
चिंतामणि पारस पाषान,
पुण्य पदारथ और महान. १३
ये सब एक जन्म संजोग,
किंचित् सुखदातार नियोग;
त्रिभुवननाथ तुम्हारी सेव,
जन्म जन्म सुखदायक देव. १४
तुम जगबांधव तुम जगतात,
अशरण शरण विरद विख्यात;
तुम सब जीवनके रखवाल,
तुम दाता तुम परम दयाल. १५
तुम पुनीत तुम पुरुष प्रमान,
तुम शमदर्शी तुम सब जान;
जय जिन यज्ञ पुरुष परमेश,
तुम ब्रह्मा तुम विष्णु महेश. १६
तुम जगभर्ता तुम जगजान,
स्वामि स्वयंभू तुम अमलान;
तुम विन तीन काल तिहुं लोय,
नाहीं शरण जीवको कोय. १७
यातैं सब करुणानिधि नाथ,
तुम सन्मुख हम जोडैं हाथ;

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जबलौं निकट होय निर्वान,
जगनिवास छूटै दुखदान. १८
तबलौं तुम चरणांबुज वास,
हम उर होउ यही अरदास;
और न कछु बांछा भगवान;
हो दयाल दीजे वरदान. १९
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(दोहा)
समवसरण में आईयो, सीमंधरादि जिन वीश,
अष्टोतरशत नाम कहि, इन्द्र नमायो शीश.
(पद्धरी छंद)
तुम लोकहितू हो लोकपाल,
तुम लोकपती होगे दयाल;
तुम लोकमान्य हो लोक इष्ट,
तुम लोक पिता परमोतकृष्ट.
तुम लोकबंधु हो लोकनाथ,
तुम लोकोत्तम हो लोकगाथ;
तुम जिनधर्मी तुम जैनधर्म,
तुम संचालक हो जैनधर्म.

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तुम जिनपति हो रक्षक दयाल,
जिन आत्मा जैनिन पूज्यपाल;
तुम आप आपमें आप लीन,
तुम आत्मवृत्ति धारक प्रवीन. ३.
तुम हो अचिंत वृत्ति धरणहार,
तुम समवशरणलक्ष्मी शिंगार;
तुम हो विदाम्बर जगतज्येष्ट,
तुम ज्ञानमांहि स्वयमेव श्रेष्ठ.
तुम वदताम्वर वदताके इश,
धरणेन्द्र नमे तुम चरण शीश;
तुम कामशत्रु के हरण देव,
जितमार नाम तुमरो कहेव.
तुम जन्मजरामृतु कियो दूर,
त्रिपुरारि नाम तासों हजूर;
तुम चार घातिया कर्म नाश,
वर केवलज्ञान लह्यो प्रकाश.
तुम भव अनंत कीन्हे संहार,
तासों अनंतजित नामधार;
तुम जीत्यो दुर्जय काल देव,
तुम नाम मृत्युंजय है कहेव.
तुम लोकहितू सब कर्मचूर,
तासों ईश्वर संज्ञा हजूर;

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त्रैकाल चराचर सब लखेव,
तुम तीन नेत्रधारक कहेव.
तुम मोह-अंध को किन्हो हान,
तुम नाम अंधकान्तक वखान;
वसु कर्मन में कियो चारिघात,
है अर्धनारीश्वर नाम तात.
तुम चार शरण मंगल अगाध,
वच केवल अरहंत सिद्ध साध;
तुम उत्तम मंगल शरण देव,
पद पंच परम पावन धरेव. १०
स्वर्गागम सद्योजात नाम,
जन्माभिषेक सो वाम नाम;
अतिरूप होन सो काम नाम,
आद्योर नाम शांती प्रणाम. ११
केवल लहि जग ईश्वर कहाय,
तुम वसनहार शिवसदन जाय;
तुम मोहमल्लको किन्हो चूर,
है वीतराग संज्ञा हजूर. १२
हो वीर्य अनंतहि धरणहार,
तुम हो अनंत सुख के भंडार;
तुम लोक अलोकहि लखनहार,
हो अनंत दान दानी उदार. १३

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तुम हो स्वामी लाभहि अनंत,
भोग उपभोग तुमरो अनंत,
तुम क्रोध मान माया विदार,
तुम लोभशत्रु कीन्हो संहार. १४
तुम विषय कषायन किय विनाश,
जितशत्रु नाम तुमरो प्रकाश;
तुम योगीश्वर योगीन्द्र देव,
तुम परम योग योगीन सेव. १५
तुम नाम अयोनी योनिक्षेव,
तुम परम ॠषेश्वर आप देव;
तुम सब विद्यापति हो अनूप,
तुम परमतत्त्व परमात्मरूप. १६
तुम परम प्रतापी दुःख निवार,
हो बंध कलंकहि हरणहार;
हो परम धाम के इश आप,
हो परम ज्योति तिमिरांत आप. १७
तुम दोष मोहक्षय करणहार,
गति पंचम प्रापति करणहार;
तुम सर्वगत स्वव्यापक सर्वमांहि,
सर्वज्ञ नाम तासों कहाहि. १८
तुम ज्ञान अतेंद्रिय-देवरूप,
तुम नाथ अतेंद्रि सुख भूप;