Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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श्री गुरुदेवस्तवन
भारतखंडमां संत एक ऊगियो, भाग्यवान आंगणे कहान
ए पाकियो;
चैतन्यज्योति अखंड संत एवा पूजवा पधारजो.
जागियो ए संत आज, जगतने जगाडवा;
मुक्तिमंत्र आपियो, स्वतंत्रताने पामवा;
शक्ति एनी छे प्रचंड.....संत०
सीमंधरदेवना चरण-उपासक, पूर्णानंद स्वरूपतणो ग्राहक;
जाग्यो ए संत एकाएक....संत०
कुंदकुंदगुरुनो केडायत संत ए,
समयसार शास्त्रनो पचावनार संत ए;
खोल्यां रहस्य अणमूल...संत०
अज्ञान अंधारा नशाडवा ए शूरवीर,
ज्ञानप्रकाश प्रकाशवा ए भडवीर;
भव्यनो उद्धारनार वीर...संत०
निज स्वरूपनी मस्तीमां मस्त ए,
आत्म अखंडमां थया अलमस्त ए;
वाणीए झरे अमीरस...संत०
उत्तम भाग्यथी संत ए सेवीया,
सेवकना सर्व कार्य सुधरीया,
वंदन होजो अनंत.....संत०

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श्री गुरुदेवस्तवन
(रागभेटे झूले छे तलवार)
वैशाख सुद बीजने वार, उजमबा घेर कहान पधार्या;
गर्ज्या दुदुंभिना नाद, उमराळा गामे कहान पधार्या,
न माय आनंद कुटुंबीजन हैये, भाग्यवान मोतीचंदभाई....
उजमबा०
वीत्या वीत्या ते कांई बाळकाळ वीत्या, लागी धून आतमानी मांही....
उजमबा०
वैरागी कहाने त्याग ज लीधो, काढ्युं अलौकिक कांई.....
उजमबा०
पाक्या छे युगप्रधानी संत ए, सेवकने हरख न माय....
उजमबा०
एवा संतनी चरण सेवाथी, भवना आवे छे अंत.....
उजमबा०
पंचमकाळे अहो भाग्य खील्या छे, वंदन होजो अनंत.....
उजमबा०
श्री गुरुदेव-स्तवन
(रागभेटे झूले छे तलवार)
सुवर्णपुरे वसे एक संत, भव्य सहु आवो जोवाने;
अपूर्व अलख कोई एणे जगाड्यो, जगाड्या अनेक भव्य
जीव; भव्य०

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सोळ कळाए ज्ञानसूर्य प्रकाश्यो, प्रकाश्यो चैतन्यराज;
भव्य०
जेनी मुद्रामां शांत रस छवाणा, वाणीमां अमीरस धार;
भव्य०
अंतरपटमां गूढता भरी छे, कळवी महा मुश्केल; भव्य०
अंतरहृदयमां करुणानो पिंड छे, द्रढतानो नहीं पार. भ०
दर्शनथी सत् रुचि जागे छे, वाणीथी अंतर पलटाय. भ०
सद्गुरुदेव अमृत पीरसे छे, सेवक वारी वारी जाय. भ०
सिंह केसरीना सिंह नादेथी, हलाव्युं छे आखुं हिंद; भ०
सुवर्णपुरीमां नित्य गाजे छे, आत्म-बंसी केरा सुर. भ०
ज्ञाता-अकर्तानुं स्वरूप समजावे, स्वपरनो बतावे खरो भेद; भ०
कल्पवृक्ष अम आंगणे फळियो, आनंदनो नहीं पार....भ०
श्री गुरुदेवनी चरण सेवाथी, मारुं अंतर ऊछळी जाय. भ०
तन मन धन प्रभु चरणे अर्पुं, तोये पूरुं नव थाय. भ०
श्री गुरुदेवस्तवन
(सोनगढमां पूज्य गुरुदेवना मंगल आगमन प्रसंगनुं स्तवन)
अपूर्व अवसर स्वर्णपुरीमां, पधार्या सद्गुरुदेव रे;
धन्य दिन आजे ऊग्यो रे.
भव्य हृदयमां तत्त्व रेडीने, पधार्या तीर्थधाम रे; धन्य०

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प्रभावनानो ध्वज फरकावी, भेट्या आजे भगवान रे; ध०
देशोदेश जयकार गजावी, पधार्या श्री प्रभु कहान रे; ध०
मीठो म्हेरामण आंगणे दीठो, श्री सद्गुरुदेव रे; धन्य०
सोळ कळाए सूर्य प्रकाश्यो, वरस्या अमृत मेह रे. धन्य०
सत्य स्वभावने बताववा प्रभु, अजोड जाग्यो तुं संत रे; ध०
अजब शक्ति प्रभु ताहरी देखी, इन्द्रो अति गुण गाय रे. ध०
श्री गुरुराजनी पधरामणीथी, आनंद अति उलसाय रे; ध०
मंदिर ने आ धामो अमारां, दीसे अति रसाळ रे. धन्य०
वृक्षो अने वेलडियो प्रभुजी, लळी लळी लागे पाय रे; ध०
फळ फूल आजे नीचा नमीने, पूजन करे प्रभु पाय रे. ध०
मोर ने पोपट सहु कहे, आवो आवोने कहानप्रभु देव रे; ध०
प्रभु चरणना स्पर्शथी आजे, भूमि अति हरखाय रे. ध०
रंकथी मांडी रायने प्रभु, आनंद आनंद थाय रे; धन्य०
देवो आजे वैमानथी ऊतरी, वधावे कहानप्रभु देव रे. ध०
श्री गुरुराजना पुनित चरणथी, सुवर्णपुरे जयकार रे; ध०
तीर्थधामनी शोभा अपार ज्यां, बिराजे देव
गुरुशास्त्र रे.
धन्य०
श्री जिनस्तवन
(रागमोहे प्रेमके झूले झुलादो कोई)
मोहे जिनका राह बतादो कोई,
मेरे जिनप्रभु को बतादो कोई.

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आतम किनारे मुक्तिका वासा,
मेरी आतम को व्हां वसादो कोई. मोहे०
दर्शन ज्ञानकी प्यास मुझे है,
म्हेर करीने बुझादो कोई. मोहे०
प्रभु शासनका रंग लगा है,
पूर्ण प्राप्ति उसकी करादो कोई. मोहे०
आत्म भूमिमें जिनवर प्यारा,
श्री गुरुवर चरणे वसादो कोई. मोहे०
श्री जिनेन्द्रस्तुति
(छंद १६ मात्रा)
जय जिनंद सुखकंद नमस्ते, जय जिनंद जितफंद नमस्ते;
जय जिनंद वरबोध नमस्ते, जय जिनंद जितक्रोध नमस्ते.
पापतापहर इंदु नमस्ते, अर्हवरन जुतबिंदु नमस्ते;
शिष्टाचार विशिष्ट नमस्ते, इष्ट मिष्ट उत्कृष्ट नमस्ते.
पर्म धर्म वर शर्म नमस्ते, मर्म भर्मघन धर्म नमस्ते;
द्रग विशाल वरभाल नमस्ते, हृद-दयाल गुनमाल नमस्ते.
शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध नमस्ते, रिद्धिसिद्धि वरवृद्धि नमस्ते;
वीतराग विज्ञान नमस्ते, चिद्विलास धृत-ध्यान नमस्ते.

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स्वच्छगुणांबुधि रत्न नमस्ते, सत्त्व-हिंतकरयत्न नमस्ते;
कुनयकरीमृगराज नमस्ते, मिथ्याखगवरबाज नमस्ते.
भव्यभवोदधिपार नमस्ते, शर्मामृतशिवसार नमस्ते;
दरशज्ञानसुखवीर्य नमस्ते, चतुराननधरधीर्य नमस्ते.
हरिहर ब्रह्मा विष्णु नमस्ते, मोहमर्दमनुजिष्णु नमस्ते;
महादान महभोग नमस्ते, महाज्ञान महजोग नमस्ते.
महाउग्रतपसूर नमस्ते, महा मौनगुणभूरि नमस्ते;
धरमचक्रि वृषकेतु नमस्ते, भवसमुद्रशतसेतु नमस्ते.
विद्या इश मुनीश नमस्ते, इन्द्रादिकनुतशीस नमस्ते;
जय रत्नत्रयराय नमस्ते, सकल जीव सुखदाय नमस्ते.
अशरणशरणसहाय नमस्ते, भव्यसुपंथलगाय नमस्ते;
निराकार साकार नमस्ते, एकानेक आधार नमस्ते. १०
लोकालोक विलोक नमस्ते, त्रिधा सर्वगुणथोक नमस्ते;
सल्लदल्लदलमल्ल नमस्ते, कल्लमल्लजितछल्ल नमस्ते. ११
भुक्तिमुक्तिदातार नमस्ते, उक्तिसुक्तिशृंगार नमस्ते;
गुणअनंत भगवंत नमस्ते, जै जै जै जयवंत नमस्ते. १२
दर्शनस्तुति
(हरिगीतिका)
पुलकंत नयन चकोर पक्षी, हंसत उर इंदीवरो,
दुर्बुद्धि चकवी विलख विछुरी, निबिड मिथ्या तम हरो;
आनंद अंबुधि उमगि उछर्यो, अखिल आतप निरदले,
जिनवदन पूरनचंद्र निरखत, सकल मनवांछित फले.

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मम आज आतम भयो पावन, आज विघन विनाशिया,
संसारसागर नीर निवड्यो, अखिल तत्त्व प्रकाशिया;
अब भई कमला किंकरी मम, उभय भव निर्मल थये,
दुःख जर्यो दुर्गति वास टळियो, आज नव मंगल भये.
मनहरन मूरति हेरि प्रभुकी, कौन उपमा लाईये;
मम सकल तनके रोम हुलसे, हर्ष ओर न पाईये;
कल्याणकाल प्रतच्छ प्रभुको, लखैं जे सुरनर घने;
तिह समयकी आनंद महिमा, कहत क्यों मुख सों बने.
भर नयन निरखे नाथ तुमको, और वांछा ना रही,
मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंक मानो निधि लही;
अब होउ भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये;
कर जोर भूधरदास विनवै, यही वर मोही दीजिये.
श्री जिनेन्द्रस्तवन
(गीता छंद)
मंगलसरूपी देव उत्तम तुम शरण्य जिनेशजी,
तुम अधमतारण अधम मम लखि मेट जन्मक्लेश जी. टेक.
तुम मोह जित अजित इच्छातीत शर्मामृत भरे,
रजनाश तुम वर भासद्रग नभ ज्ञेय सब इक उडुचरे;
रटरास क्षति अति अमित वीर्य सुभाव अटल सरूप हो,
सब रहित दूषण त्रिजगभूषण अज अमल चिद्रूप हो.

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इच्छा विना भविभाग्यतैं तुम, ध्वनि सु होय निरक्षरी,
षट्द्रव्यगुणपर्यय अखिलयुत एक छिनमैं उच्चरी;
एकांतवादी कुमत पक्षविलिप्त इम ध्वनि, मद हरी,
संशयतिमिरहर रविकला भविशस्यकों अमरित झरी.
वस्त्राभरण विन शांतमुद्रा, सकल सुरनरमन हरै,
नाशाग्रद्रष्टि विकारवर्जित निरखि छबि संकट टरै;
तुम चरणपंकज नखप्रभा नभ कोटिसूर्य प्रभा धरै,
देवेंद्र नाग नरेंद्र नमत सु, मुकुटमणिद्युति विस्तरै.
अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी, तुम असाधारण लसै,
तुम जाप पापकलाप नासै, ध्यावते शिवथल बसै;
मैं सेय कुद्रग कुबोध अव्रत, चिर भ्रम्यो भववन सबै,
दुःख सहे सर्व प्रकार गिरिसम, सुख न सर्वपसम कबै.
परचाहदाहदह्यो सदा कबहुं न साम्यसुधा चख्यो,
अनुभव अपूरव स्वादु विन नित, विषय रसचारो भाख्यो;
अब बसो मो उरमें सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों,
वर भक्ति अति द्रढ होहु मेरे, अन्य विभव नहीं चहों.
एकेंद्रियादि अंतग्रीवक तक तथा अंतर घनी,
पर्याय पाय अनंतवार अपूर्व, सो नहिं शिवधनी;
संसृतिभ्रमणत थकित लखि निज, दासकी सुन लीजिये,
सम्यकदरश-वरज्ञान-चारितपथ ‘विहारी’ कीजिये.

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श्री जिनेन्द्रस्तवन
(हरिगीत)
तुम परमपावन देव जिन अरि, -रजरहस्य विनाशनं,
तुम ज्ञानद्रग जलवीच त्रिभुवन, कमलवत प्रतिभासनं;
आनंद निजज अनंत अन्य, अचिंत संतत परनये,
बल अतुलकलित स्वभावतैं नहिं, खलितगुन अमिलित थये.
सब रागरुषहन परम श्रवन, स्वभावघननिर्मल दशा,
इच्छारहित भविहित खिरत वच, सुनत ही भ्रमतमनशा;
एकांतगहनसुदहन स्यात्पद, बहनमय निजपर दया,
जाके प्रसाद विषाद विन, मुनिजन सपदि शिवपद लहा.
भूषनवसनसुमनादिविनतन, ध्यानमयमुद्रा दिपै,
नासाग्रनयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै;
पुनि वदननिरखत प्रशमजल, वरखत सुहरखत उरधरा,
बुद्धि स्वपर परखत पुन्य आकर, कलिकलिक दरखत जरा.
इत्यादि बहिरंतर असाधारन सुविभव निधान जी,
इंद्रादिवंद्यपदारविंद अनिंद तुम भगवान जी;
मैं चिरदुखी परचाहतैं, तव धर्म नियत न उर धर्यो,
परदेव सेव करी बहुत नहिं काज एकहु तहँ सर्यो.

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अब ‘भागचंद’ उदय भयौ मैं शरन आयो तुम-तनी,
इक दीजिये वरदान तुम जस, स्व-पददायक बुधमनी;
परमाहिं इष्ट-अनिष्ट-मति-तजि, मगन निजगुनमें रहौं,
द्रग-ज्ञान-चरन समस्त पाऊं, ‘भागचंद’ न पर चहौं.
गुरुस्तुति
(रागभरतरी दोहा)
ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जिहाज;
आप तिरहिं पर तारहीं ऐसे श्री ॠषिराज. ते गुरु० १.
मोहमहारिपु जानिकैं, छांड्यो सब घरबार;
होय दिगंबर वन बसे, आतम शुद्ध विचार. ते गुरु० २.
रोग-उरग-विल वपु गिण्यो, भोग भुजंग समान;
कदलीतरु संसार है, त्याग्यो सब यह जान ते गुरु० ३.
रतनत्रयनिधि उर धरैं, अरु निरग्रंथ त्रिकाल;
मार्यो कामखवीसको, स्वामी परमदयाल. ते गुरु० ४.
पंचमहाव्रत आदरे, पांचो समिति समेत;
तीन गुपति पालैं सदा, अजर अमर पदहेत. ते गुरु० ५.
धर्म धरैं दशलाछनी, भावैं भावना सार;
सहैं परीषह बीस द्वै, चारित-रतन भँडार. ते गुरु० ६.

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जेठ तपै रवि आकरो, सूखै सरवर नीर;
शैल-शिखर मुनि तप तपैं दाझैं नगन शरीर. ते गुरु०
पावस रैन डरावनी, बरसै जलधरधार;
तरुतल निवसैं तब यती, बाजै झंझा व्यार. ते गुरु०
शीत पडे कपि मद गलै, दाहै सब वनराय;
तालतरंगनि के तटैं, ठाडे ध्यान लगाय. ते गुरु०
इहि विधि दुर्द्धर तप तपैं, तीनों काळ मंझार;
लागे सहज सरूपमैं तनसों ममत निवार. ते गुरु० १०
पूरव भोग न चिंतवैं, आगम बांछैं नाहि;
चहुं गतिके दुखसों डरैं, सुरति लगी शिवमांहिं. ते गुरु० ११
रंगमहलमें पौढते, कोमल सेज बिछाय;
ते पच्छिम निशि भूमिमैं, सोवें संवरि काय. ते गुरु० १२
गज चढि चलते गरवसों, सेना सजि चतुरंग;
निरखि निरखि पग वे धरैं, पालैं करुणा अंग ते गुरु० १३
वे गुरु चरण जहां धरें, जगमैं तीरथ जेह;
सो रज मम मस्तक चढो, भूधर मांगे एह. ते गुरु० १४
श्री शास्त्रस्तुति
(मेरा भावनाराग)
वीर हिमाचलतैं निकरी, गुरु गौतमके मुख कुंड ढरी है;
मोहमहाचल भेद चली, जगकी जडता तप दूर करी है.
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ज्ञानपयोनिधिमांहि रली, बहुभंगतरंगनिसों उछरी है;
ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलिकर शीश धरी है.
या जगमंदिरमें अनिवार अज्ञान अँधेर छयो अति भारी;
श्री जिनकी धुनि दीपशिखासम जो नहिं होत प्रकाशनहारी,
तो किस भांति पदारथ पांति, कहां लहते, रहते अविचारी;
या विधि संत कहैं धनि हैं, धनि हैं जिनवैन बडे उपकारी.
श्री जिनस्तवन
(हरिगीत)
तुम तरणतारण भवनिवारण, भविकमन आनंदनो,
श्री नाभिनंदन जगतवंदन, आदिनाथ निरंजनो.
तुम आदिनाथ अनादि सेऊं, सेय पदपूजा करूं,
कैलाश गिरिपर रिषभजिनवर, पदकमल हिरदैं धरूं.
तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महाबली,
इह विरद सुनकर सरन आपो, कृपा कीज्यो नाथजी.
तुम चंद्रवदन सु चंद्रलच्छन चंद्रपुरी परमेश्वरो,
महासेननंदन, जगतवंदन चंद्रनाथ जिनेश्वरो.
तुम शांति पाँचकल्याण पूजों; शुद्धमनवचकाय जू,
दुर्भिक्ष चोरी पापनाशन, विघन जाय पलाय जू.

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तुम बालब्रह्म विवेकसागर, भव्यकमल विकाशनो,
श्री नेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो.
जिन तजी राजुल राजकन्या, कामसेन्या वश करी,
चारित्ररथ चढि होय दूलह; जाय शिवरमणी वरी.
कंदर्प दर्प सुसर्पलच्छन, कमठ शठ निर्मद कियो,
अश्वसेननंदन जगतवंदन सकलसँघ मंगल कियो.
जिन धरी बालकपणे दीक्षा, कमठमान विदारकैं,
श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्रके पद, मैं नमों शिरधार कैं.
तुम कर्मघाता मोक्षदाता, दीन जानि दया करो,
सिद्धार्थनंदन जगत वंदन, महावीर जिनेश्वरो. १०
छत्र तीन सोहैं सुरनर मोहैं, विनति अवधारिये,
कर जोडि सेवक विनवै प्रभु आवागमन निवारिये. ११
अब होउ भवभव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहों,
कर जोड यो वरदान मागूं, मोक्षफल जावत लहों. १२
जो एक मांही एक राजत एकमांहिं अनेकनो,
इक अनेककि नहीं संख्या नमूं सिद्ध निरंजनो. १३
श्री जिनस्तवन
(रागमेरी भावना)
श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुमारा बाना है;
मत मेरी बार अबार करो; मोहि देहु विमल कल्याना है. ।।टेक।।

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त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो, तुमसौं कछु बात न छाना है,
मेरे उर आरत जो वरतै, निहचै सब सो तुम जाना है;
अवलोक विथा मत मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है,
हो राजिवलोचन सोचविमोचन, मैं तुमसौं हित ठाना है. श्री० १
सब ग्रंथनिमें निरग्रंथनिने, निरधार यही गणधार कही,
जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक ज्ञानमही;
यह बात हमारे कान परी, तब आन तुमारी सरन गही;
क्यों मेरी बार विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही. श्री०
काहूको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्गविमाना है;
काहूको नागनरेशपती, काहूको ॠद्धि निधाना है;
अब मोपर क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है,
इनसाफ करो मत देर करो, सुखवृंद भरो भगवाना है. श्री०
खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों आन पुकारा है,
तुम ही समरत्थ न न्याव करो, तब बंदेका क्या चारा है;
खल घालक पालक बालकका नृपनीति यही जगसारा है;
तुम नीतिनिपुन त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है. श्री०
जबसे तुमसे पहिचान भई, तबसें तुमहीको माना है,
तुमरे ही शासनका स्वामी, हमको शरना सरधाना है;
जिनको तुमरी शरनागत है, तिनसौं जमराज डराना है;
यह सुजस तुम्हारे सांचेका, सब गावत वेद पुराना है. श्री०

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जिसने तुमसे दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुःख हाना है;
अघ छोटा मोटा नाशि तुरत सुख दिया तिन्हें मनमाना है;
पावकसों शीतल नीर किया और चीर बढा असमाना है,
भोजन था जिसके पास नहीं सो किया कुबेर समाना है. श्री०
चिंतामन पारस कल्पतरु, सुखदायक ये परधाना है,
तब दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना है;
तुम भक्तनको सुरइंदपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है,
क्या बात कहौं विस्तार बडी, वे पावैं मुक्ति ठिकाना है. श्री०
गति चार चुरासी लाख विषैं, चिन्मूरत मेरा भटका है,
हो दीनबंधु करुणानिधान, अबलौं न मिटा वह खटका है;
जब जोग मिला शिवसाधनका तब विघन कर्मने हटका है,
तुम विघन हमारे दूर करो, सुख देहु निराकुल घटका है. श्री०
गजग्राहग्रसित उद्धार लिया, ज्यों अंजन तस्कर तारा है,
ज्यों सागर गोपदरूप किया, मैनाका संकट टारा है;
ज्यों शूलीतें सिंहासन औ, बेडीको काट विडारा है,
त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकूं आस तुम्हारा है. श्री०
ज्यों फाटक टेकत पांय खुला, औ सांप सुमन कर डारा है,
ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, बालकका जहर उतारा है;
ज्यों सेठ विपत चकचूर पूर, घर लक्ष्मीसुख विस्तारा है,
त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकूं आस तुम्हारा है.
श्री० १०

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यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है,
चिन्मूरति आप अनंतगुनी, नित शुद्धदशा शिवथाना है;
तद्दपि भक्तनकी भीड हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है,
यह शक्ति अचिंत तुम्हारीका, क्या पावै पार सयाना है.
श्री०
११
दुःखखंडन श्रीसुखमंडनका, तुमरा प्रन परम प्रमाना है,
वरदान दया जस कीरतका, तिहुँ लोक धुजा फहराना है;
कमलाधरजी! कमलाकरजी, करिये कमला अमलाना है,
अब मेरी विथा अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है.
श्री०
१२
हो दीनानाथ अनाथ हितू, जन दीन अनाथ पुकारी है,
उदयागत कर्मविपाक हलाहल, मोह विथा विस्तारी है;
ज्यों आप और भवि जीवनकी, ततकाल विथा निरवारी है,
त्यों ‘वृंदावन’ यह अर्ज करै, प्रभु आज हमारी बारी है.
१३

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एकीभावस्तोत्र भाषा
(दोहा)
वादिराज मुनिराजके, चरणकमल चित लाय,
भाषा एकीभावकी, करूं स्वपरसुखदाय.
(रोला छन्द अथवा ‘‘अहो जगत गुरुदेव सुनियो अर्ज हमारी’’
विनतीकी चालमें)
जो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी,
सो मुझ कर्मप्रबंध करत भव भव दुःख भारी;
ताहि तिहारी भक्ति जगतरवि जो निरवारै,
तो अब और क्लेश कौनसो नाहिं विदारै.
तुम जिन जोतिस्वरूप दुरतिअँधियारिनिवारी,
सो गणेश गुरु कहैं तत्त्वविद्याधनधारी;
मेरे चितघरमांहिं बसौ तेजोमय यावत,
पापतिमिर अवकाश तहां सो क्योंकरि पावत.
आनँदआँसूवदन धोय तुमसों चित सानै,
गदगद सुरसों सुयशमंत्र पढि पूजा ठानैं;
ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकालनिवासी,
भाजैं थानक छोड देहबांबईके वासी.

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दिवितैं आवनहार भये भविभागउदयबल,
पहलेही सुर आय कनकमय कीय महीतल;
मनगृहध्यानदुवार आय निवसो जगनामी,
जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी.
प्रभु सब जगके विना हेतु बांधव उपकारी,
निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी;
भक्तिरचित ममचित्त सेज नित वास करोगे,
मेरे दुखसंताप देख किम धीर धरोगे.
भववनमें चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई,
तुम थुतिकथापियूषवापिका भागन पाई;
शशि तुषार घन सार हार शीतल नहिं जा सम,
करत न्हौन तामाहिं क्यों न भवताप बुझै मम.
श्री विहार परिवाह होत शुचिरूप सकल जग,
कमलकनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग;
मेरो मन सर्वंग परस प्रभुको सुख पावै,
अब सो कौन कल्यान जो न दिन दिन ढिग आवै.
भवतज सुखपद बसे काममदसुभट संहारे,
जो तुमको निरखंत सदा प्रियदास तिहारे;
तुमवचनामृतपान भक्तिअंजुलिसों पीवै,
तिन्हे भयानक क्रूररोगरिपु कैसे छीवै.

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मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर,
ऐसे और अनेक रतन दीखैं जगअंतर;
देखत द्रष्टिप्रमान मानमद तुरत मिटावै,
जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्यौंकर पावै.
प्रभुतन पर्वतपरस पवन उरमें निवहे है,
तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर ह्वै है;
जाके ध्यानाहूत बसो उरअंबुजमाहीं,
कौन जगत उपकारकरन समरथ सो नाहीं. १०
जनमजनमके दुःख सहे सब ते तुम जानो,
याद किये मुझ हिये लगैं आयुधसे मानों;
तुम दयाल जगपाल स्वामी मैं शरन गही है,
जो कछु करनो होय करो परमान वही है. ११
मरनसमय तुम नाम मंत्र जीवकतैं पायो,
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो;
जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरंतर,
इन्द्रसंपदा लहै कौन संशय इस अंतर. १२
जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै,
अनवधि सुखकी सार भक्ति कूची नहिं लाधै;
सो शिववांछक पुरुष मोक्षपट केम उघारै,
मोह मुहर दिढ करी मोक्षमंदिरके द्वारै. १३

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शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अतिछायो,
दुःखसरूप बहु कूपखाड सों विकट बतायो;
स्वामी सुखसों तहां कौन जन मारग लागै,
प्रभुप्रवचनमणिदीप जोतके आगैं आगैं. १४
कर्मपटलभूमांहिं दबी आतमनिधि भारी,
देखत अतिसुख होय विमुखजन नहिं उघारी;
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै,
थुति कुदालसों खोद बंद-भू कठिन विदारै. १५
स्यादवादगिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई,
तुम चरणांबुज परस भक्तिगंगा सुखदाई;
मो चित निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव तामै,
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं. १६
तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो,
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो;
यदपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै,
तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै. १७
वचन-जलधि तुम देव सकल त्रिभुवनमें व्यापै,
भंग तरंगिनि विकथवादमल मलिन उथापै;
मनसुमेरुसों मथै ताहि जे सम्यग्ज्ञानी,
परमामृत सों तृपत होहिं ते चिरलों प्रानी. १८