Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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घोर दुःखदायक कर्मोंका, जाल हुआ है नष्ट विभो!
सुख संपत्तिसे पूर्ण हुआ गृह, किया आपका दर्श प्रभो
आज घोर दुःखके उत्पादक, अष्ट कर्म हैं शांत हुए;
सुख-सागरमें मग्न हुआ, प्रभुदर्शनसे अघ हन्त हुए.
मिथ्या तम हो गया नष्ट अब, विकसित हुआ दिवाकर ज्ञान;
आत्मबोध है उदित हुआ, जब किया दर्श प्रभुका सुखखान.
जन्म सफल मम हुआ, नाथ! अघ कर्म राशिसे रहित हुआ;
प्रभुका पावन दर्श किया, मैं तीन लोकमें पूज्य हुआ. १०
प्रभो! आपकी दिव्य मूर्तिका, हुआ हृदयमें आकर्षन;
दीनबंधु ‘‘वत्सल’’ भव भवमें, मिले आपका शुभ दर्शन. ११
श्री जिनेन्द्रस्तवन
(मेरी भावनाराग)
हे करुणाकर गुण रत्नाकर, त्रिजग-उजागर दयानिधान;
हे जगत्राता, शिवसुखदाता, विश्व-विधाता दायक ज्ञान.
प्रेमसिंधु हो, दीनबंधु हो, कर्मबंधके नाशक हो;
हे जग-आश्रय हे जग-वंदन, जग हियकमल प्रकाशक हो. २
हे सुखशांतिनिकेत, अक्षय सुख हेत, भवोदधि तारक हो;
दुःख दारिद्र विनाशन, आनंद कारन जगदुद्धारक हो.
अक्षय अनुपम, आत्मबोधमय, निर्भय सत्य प्रचारक हो;
जग जीवनके अवलंबन प्रभु, दीननिके प्रतिपालक हो.

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कृपा करोर सेवक पर कीजे, दीजे पद पंकजका वास;
दुरित अज्ञान तिमिर हर लीजे, कीजे आतमबोध प्रकाश.
प्रभो! आपके सत्य गुणोंमें, रहे सर्वदा अविचल भक्ति;
रहूं ध्यानमें मग्न निरंतर, हो द्रढ प्रीति, प्रेम आसक्ति.
दीजे यह वरदान दया कर, करुणासागर हे जगतेश;
अहो भक्त ‘‘वत्सल’’ स्वभक्तको, कीजे आत्म समान सुखेश.
शारदास्तवन
केवलिकन्ये वाङ्मय गंगे जगदंबे अघ नाश हमारे;
सत्य स्वरूपे मंगलरूपे मनमंदिरमें तिष्ठ हमारे. टेक.
जंबूस्वामी गौतम गणधर, हुए सुधर्मा पुत्र तुम्हारे;
जगतैं स्वयं पार ह्वै करके, दे उपदेश बहुत जन तारे.
कुंदकुंद अकलंकदेव अरु, विद्यानंदिआदिमुनि सारे;
तव कुलकुमुद-चंद्रमा ये शुभ, शिक्षामृत दे स्वर्ग सिधारे.
तूने उत्तम तत्त्व प्रकाशे, जगके भ्रम सब क्षयकर डारे;
तेरी ज्योति निरख लज्जा वश, रविशशि छिपते नित्य बिचारे.
भवभय पीडित व्यथित चित्त जिन, जब जो आये सरन तिहारे;
छिनभरमें उनके तब तुमने, करुणा करि संकट सब टारे.

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जबतक विषय कषाय नशै नहि, कर्मशत्रु नहि जाय निवारे;
तबतक ‘ज्ञानानंद’ रहै नित, सब जीवनतैं समता धारे.
आराधना पाठ
(हरिगीत)
मैं देव नित अरहंत चाहूं सिद्धका सुमिरन करौं;
मैं सूर गुरु मुनि तीनि पद मैं साधुपद हृदये धरौं;
मैं धर्म करुणामयी चाहूं जहां हिंसा रंच ना;
मैं शास्त्रज्ञान विराग चाहूं जासु में परपंच ना.
चौबीस श्री जिनदेव चाहूं और देव न मन बसैं;
जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूं बंदिते पातिक नशै;
गिरनार शिखर संमेद चाहूं, चम्पापुरी पावापुरी;
कैलास श्री जिनधाम चाहूं, भजत भाजें भ्रमजुरी.
नवतत्त्वका सरधान चाहूं, और तत्त्व न मन धरौं;
षटद्रव्य गुण परजाय चाहूं ठीकतासों भय हरौं;
पूजा परम जिनराज चाहूं और देव न हूं सदा;
तिहुंकालकी मैं जाप चाहूं पाप नहि लागै कदा.
सम्यक्त्व दरशन ज्ञान चारित्र सदा चाहूं भावसों;
दशलक्षणी मैं धर्म चाहूं महा हर्ष उछावसों;
सोलह जु कारण दुःखनिवारण सदा चाहूं प्रीतिसों;
मैं चित्त अठाई पर्व चाहूं महा मंगल रीतिसों.

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मैं वेद चारों सदा चाहूं आदि अंत निवाहसों,
पाए धरमके चार चाहूं अधिक चित्त उछाहसों;
मैं दान चारों सदा चाहूं भुवन वशि लाहो लहूं,
आराधना मैं चारि चाहूं अन्तमें ये ही गहूं.
भावना बारह सदा भाऊं, भाव निरमल होत हैं,
मैं व्रत जु बारह सदा चाहूं त्याग भाव उद्योत हैं;
प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूं ध्यान आसन सोहना,
वसुकर्मतैं मैं छुटा चाहूं शिव लहूं जहं मोह ना.
मैं साधुजनको संघ चाहूं प्रीति तिन ही सों करौ,
मैं पर्वके उपवास चाहूं अरम्भै मैं परिहरौं;
इस दुःख पंचमकाल माहीं कुल शरावक मैं लहौं,
अरु महाव्रत धरि सकौं नाहीं निबल तन मैंने गहो.
आराधना उत्तम सदा चाहूं सुनो जिनरायजी,
तुम कृपानाथ अनाथ ‘द्यानत’ दया करना न्यायजी;
वसुकर्मनाश विकाश ज्ञान प्रकाश मोको कीजीए,
करि सुगतिगमन समाधिमरन सुभक्ति चरनन दीजिए.
दर्शनस्तुति
(दोहा)
सकल ज्ञेयज्ञायक तदपि निजानंदरसलीन;
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरजरहसविहीन.

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(पद्धरी छंद)
जय वीतराग विज्ञानपूर, जय मोहतिमिरको हरन सूर;
जय ज्ञान अनंतानंत धार, द्रगसुखवीरजमंडित अपार.
जय परमशांत मुद्रा समेत, भविजनको निज अनुभूति हेत;
भवि भागनवशजोगेवशाय, तुम धुनि ह्वे सुनि विभ्रम नसाय.
तुम गुण चिंतत निजपरविवेक, प्रगटै विघटे आपद अनेक;
तुम जगभूषण दूषणवियुकत, सब महिमायुकत विकल्पमुकत.
अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप;
शुभअशुभविभाव अभाव कीन, स्वाभाविक-परिणतिमय अछीन.
अष्टादशदोषविमुक्त धीर, सुचतुष्टयमय राजत गंभीर;
मुनिगणधरादि सेवत महंत, नवकेवललब्धि रमा धरंत.
तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव;
भवसागरमें दुःख छार वारि, तारनको अवर न आप टारि.
तातैं अब ऐसी करहु नाथ, विछुरै न कभी तुव चरण साथ;
तुम गुणगणको नहिं छेव देव, जग तारनको तुम विरद एव.
आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय,
मैं रहूं आपमैं आप लीन, सो करो होउं ज्यों निजाधीन.
मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश;
मुज कारज के कारण सु आप, शिव करहु, हरहु मम मोहताप.
१०

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शशि शांतिकरन तपहरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत;
पीवत पियूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभवतैं भव नसाय.
११
त्रिभुवन तिहुंकाल मंझार कोय, नहि तुम विन निज सुखदाय होय;
मो उर यह निश्चय भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जिहाज.
(दोहा)
तुम गुणगणमणि गणपती गनत न पावहिं पार;
‘दौल’ स्वल्पमति किम कहै, नमूं त्रियोग संभार. १३
श्री सिद्ध भगवाननी स्तुति
(पद्धरी छंद)
विरागसनातनशांतनिरंश, निरामय निर्भय निर्मल हंस;
सुधाम विबोधनिधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
विदूरितसंसृतिभाव निरंग, समामृतपूरित देव विसंग;
अबंधकषाय विहीनविमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
निवारितदुष्कृतकर्मविपास, सदामल केवलकेलिनिवास;
भवोदधिपारग शान्त विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
अनंतसुखामृतसागर धीर, कलंकरजोमलभूरिसमीर;
विखंडितकाम विराम विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
विकार विवर्जित तर्जितशोक, विबोधसुनेत्रविलोकितलोक;
विहार विराव विरंग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.

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रजोमलखेदविमुक्त विगात्र, निरंतर नित्य सुखामृतपात्र;
सुदर्शनराजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
नरामरवंदित निर्मल भाव, अनंत मुनीश्वर-पूज्य विहाव;
सदोदय विश्वमहेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापरशंकरसार वितंद्र;
विकोप विरूप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
जरामरणोज्झित वीतविहार, विचिंतित निर्मल निरहंकार;
अचिंत्यचरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह.
विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ;
अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह. १०
श्री जिनेंद्र दर्शन
(मेरी भावनाराग)
श्री जिनेन्द्रका पावन दर्शन अगणित पातक नाशक है;
शुभ सोपान स्वर्ग वैभवका, मोक्षमार्गका साधन है.
श्री जिनदर्शन, गुरुवंदनसे, पाप न पाते किंचित् फल;
सहसा शीघ्र पलायन होते, यथा भग्न अंजुलिका जल.
पद्मराग मणि सद्रश कांति युत, श्री जिन आनन दर्श किया;
चिर संचित अघ गणका सत्वर, है समूल कुल नष्ट हुआ.

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श्री जिन-रवि दर्शन द्वारा, अज्ञान तिमिरका होता नाश;
मानस कंज प्रफुल्लित होता, आत्म-तत्त्वका पूर्ण प्रकाश.
इन्दु सद्रश जिन अवलोकनसे, जन्म भ्रमण दव होती शान्त;
धर्मामृतका वर्षण होता, सुख जलनिधिकी बढती कान्त.
जीवादिक सातों तत्त्वोंके, उपदेशक गुण अष्ट निधान;
शान्त स्वरूप दिगंबर मुद्रा, नमों जिनेश्वर समकित-खान.
ज्ञानानंद स्वरूप अष्ट, कर्मोंके विजयी सिद्ध अनूप;
आत्ममग्न परमात्म-प्रकाशक, प्रणमों अविचल शिवपुर भूप.
प्रभो! आप ही शरण सहाई अन्य शरण नहिं त्रिजग मझार;
अतः घोर संसार पतनसे, कीजे कृपया मम उद्धार.
त्रिजग मध्य नहि रक्षक कोई, यदि हैं तो श्री जिनवरदेव;
कारण तिनसम अखिल विश्वमें, हुआ न होगा कोई देव.
प्रभो! यही आकांक्षा मेरी, पूर्ण कीजिए अहो! जिनेश;
प्रतिदिन तथा अन्य भवमें हो, भक्ति आपकी अटल महेश. १०
श्री जिनधर्म विहीन चक्रपति, होना भी स्वीकार नहीं;
किन्तु धर्म संयुत निर्धन,सेवक होना है उचित कहीं. ११
इस प्रकार जिनवर दर्शनसे, विषम अमित दुख होते नष्ट;
जन्म, जरा मृत-तीव्र रोगका, मिट जाता है सत्वर कष्ट. १२
अतः बंधु स्थिर चित निर्मल,भाव युक्त जिनदर्श करो;
शुद्ध ज्ञान अरु आत्मशक्तिका, ‘‘सेवक’’ अनुपम तेज धरो. १३

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श्री जिनेन्द्रस्तवन
(भजनरागिनी मल्हारमें)
जय जय बोलिये जी सब मिलि जैनधरमकी आज;
जय जय बोलिये जी सब मिलि जैनधरमकी आज. (टेक)
जैनधर्म श्री ॠषभदेवने प्रगट किया जगमांहि;
सब जीवनके हित करनेको भिन्न भिन्न दरसांहि.
जय जय०
महावीरपर्यंत चतुर्विंशतिनि सब कियो प्रचार;
कुन्दकुन्द आदिक आचारज रचे ग्रंथ विस्तार;
जय जय०
अकलंक अरु निष्कलंक, गुरु प्राण दिये वृषकाज;
तिनहीकी तुम आम्नाय हुये, शीर चढावत हो आज,
जय जय०
चेतो अब तुम आंख खोल दो, कमर बांध हो तैयार;
वृद्धि करो श्री जैनधरमकी, कहत ‘हजारी’ पुकार.
जय जय०
श्री जिनवरस्तवन
(मेरी भावनाराग)
श्री जिनवरपद ध्यावैं जो नर, श्री जिनवर पद ध्यावैं हैं.
(टेक.)

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तिनकी कर्मकालिमा विनशै, परम ब्रह्म हो जावैं है;
उपल अग्नि संजोग पांय जिमि, कंचन विमल कहावै है.
श्री जिनवर०
चन्द्रोज्वल जस तिनको जगमें, पंडित जन नित गावैं है,
जैसे कमलसुगंध दशोंदिश, पवन सहज फैलावें है.
श्री जिनवर०
तिनहिं मिलनको मुक्ति सुंदरी, चित अभिलाषा ल्यावैं है;
कृषिमें तृण जिम सहज ऊपजै, त्यों स्वर्गादिक पावैं है.
श्री जिनवर०
जनमजरामृत दावानल ये, भाव सलिलतैं बुझावैं है;
भागचन्द कहां ताई बरनै, तिनहिं इंद्र शिर नावैं है.
श्री जिनवर०
श्री जिनस्तवन
(राग दीपचन्दी)
जिनमन्दिर जिनराई, शिव-तिय-व्याह सुमंगलग्रहवत. (टेक)
जन धर्मिष्ट समाज सकल तहां, तिष्टत मोद बढाई;
अमल धर्म आभूषनमंडित, एकसों एक सवाई. जिन०
धर्म-ध्यान निर्धूम हुताशन, कुंड प्रचंड बनाई;
होमत कर्महविष्य सुपंडित; श्रुत धुनि मंत्र पढाई. जिन०

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मनिमय तोरनादि जुत शोभत, केतुमाल लहकाई;
जिनगुन पढन मधुर सुर छावत, बुधजन गीत सुहाई. जिन०
वीन मृदंग रंगजुत बाजत, शोभा वरनि न जाई;
भागचंद वर लख हरषत मन, दूलह श्री जिनराई;
जिनमंदिर चल भाई०
श्री वीरस्तवन
(रागत्रोटक)
हे वीर तुम्हारी मुद्रा का एक द्रश्य देखने आया हूं;
ओ शान्ति सुधा जल भरने को दो नयन कटोरे लाया हूं.
अद्भुतवाणी से हृदय प्रफुल्लित करने को उठ धाया हूं;
तुम चरणों से मस्तक घिसकर सब कर्म चूरने आया हूं.
मैं मोह के फन्दे में फंसकर सब भूल गया सुध बुध तेरी;
अब देख याद आती मुझको सो भूल भूलने आया हूं.
तुम से एक अर्ज यही मेरी इस मोह को दूर हटा दीजे;
मैं अनुभव को जागृत करके, अनुपम रस पीने आया हूं.
श्री जिनस्तवन
(तर्जपुजारी मोरे मंदिरमें आओ०)
प्रभुजी मन मन्दिर में आओ, प्रभुजी०
हृदय सिंहासन सूना तुम बिन,
उसमें आ बस जाओ. प्रभु०

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ताप त्रय संतप्त आत्म पर,
शान्ति सुधा बरसाओ. प्रभु०
नीरस मन को भक्ति के रस से,
भगवन् अब सरसाओ. प्रभु०
भरदे सद्गुण गण प्रभु मुझमें,
दुर्गुण दूर हटाओ. प्रभु०
आनंदमय बन जाऊं ऐसा,
प्रभु सन्मार्ग बताओ. प्रभु०
जीवन यह आदर्श बने प्रभु,
ज्ञान की ज्योति जगाओ. प्रभु०
शुद्ध उपयोगमें रमण करूं मैं,
सज्जन तुम मिल जाओ. प्रभु०
श्री जिनस्तवन
(रागअहो मारा नसीब जागे)
मोहनी छबि अय प्रभुजी! मुझको भाती आपकी;
ज्ञान केवल की दशा, अब याद आती आपकी.
धन्य हैं ये नेत्र मेरे धन घडी शुभ आजकी,
हो गये सब दूर संशय, देख प्रभुकी आपकी.
नाशा द्रष्टि शान्ति मुद्रा, पद्म आसन मन हरण,
कर्म आठों देख भागे, ध्यानावस्था आपकी.

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तुमको जो ध्यावे प्रभुजी, शुद्ध कर तन मन वचन;
बेडा उसका पार होवे, ऐसी महिमा आपकी.
दासकी अरदास यह है, मेट दो आवागमन;
हो प्रभु! ‘शिवराम’ पर अब, महरबानी आपकी.
मोहनी छबि अय प्रभुजी! मुझको भाती आपकी;
ज्ञान केवल की दशा, अब याद आती आपकी.
श्री सीमंधर जिनस्तवन
मेरे मन मंदिरमें आन, पधारो सीमंधर भगवान; टेक.
भगवन् तुम आनंद सरोवर, रूप तुम्हारा महा मनोहर;
निशि दिन रहे तुम्हारा ध्यान, पधारो सीमंधर भगवान.
सुर किन्नर गणधर गुण गाते, योगी तेरा ध्यान लगाते;
गाते सब तेरा यशगान, पधारो सीमंधर भगवान.
मेरे०
जो तेरी शरणागत आया, तूने उसको पार लगाया;
तुम हो दयानिधि भगवान, पधारो सीमंधर भगवान.
मेरे०
भक्त जनों के कष्ट निवारे, आप तिरे हमको भी तारे;
कीजे हमको आप समान, पधारो सीमंधर भगवान.
मेरे०

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आये हैं अब शरण तिहारी, पूजा हो स्वीकार हमारी;
तुम हो करुणा-दया निधान, पधारो सीमंधर भगवान.
मेरे०
रोम रोम पर तेज तुम्हारा, भूमण्डल तुम से उजियारा;
रवि शशि तुम से ज्योतिर्मान, पधारो सीमंधर भगवान.
मेरे०
श्री जिनस्तवन
तुम्हारे दर्श बिन स्वामी, मुझे नहि चैन पडती है;
छबी वैराग तेरी सामने, आंखो के फिरती है. (टेक)
निराभूषण विगत दूषण; परम आसन मधुर भाषण;
नजर नैनों की नाशा की, अनी पर से गुजरती है.
नहीं कर्मों का डर हमको, कि जब लग ध्यान चरणन में;
तेरे दर्शन से सुनते हैं, करम रेखा बदलती है.
मिले गर स्वर्ग की सम्पति; अचम्भा कौनसा इसमें;
तुम्हें जो नयन भर देखे; गती दुरगति की टरती है.
हजारों मूर्तियां हमने बहुतसी, अन्यमत देखी;
शांति मूरत तुम्हारीसी, नहीं नजरों में चढती है.
जगत सिरताज हो जिनराज, ‘सेवक’ को दरश दीजे;
तुम्हारा क्या बिगडता है, मेरी बिगडी सुधरती है.

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श्री जिनस्तवन
(गजल कव्वाली)
घडी धन आजकी येही, सरा सब काज मो मनका;
गये अघ दूरि सब भजके, लख्या मुख आज जिनवरका. (टेक)
विपत्ति नासी सब मेरी, भरा भंडार सम्पतिका;
सुधा के मेघ हूं बरसे, लख्या मुख आज जिनवरका.
भई परतीत है मेरे, सही हो देव देवनके;
कटी मिथ्यात्व की डोरी, लख्या मुख आज जिनवरका.
विरद ऐसा सुना मैं तो, जगत के पार करनेका;
‘‘सेवक’’ आनन्द हूं पायो, लख्या मुख आज जिनवरका.
श्री जिनस्तवन
(चालकृष्णा कृष्णा मैं पुकारुं)
तेरे दर पर आ पडा, चंदाप्रभू महाराज जी,
दास अपना जान मुझको, लीजिये सुध आज जी. टेक
है रुलाया अशुद्धताने, चारों गति के बीच में;
मेट दो आवागमन अब, हे जगत सिरताज जी.
है सुना तुमने उबारे, चोर अंजन से अधम;
द्रौपदी सीता सती की, तुमने राखी लाज जी.
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अंजना मैना चंदना, रैन मंजुषा राजुल सती;
तिनकी विपद नाथ निवारी, मेरी वार करो महाराजजी.
हैं पशु पक्षी उगारे, वीतरागी आप हैं;
ढील मेरी बार क्यों है, दो बता महाराज जी.
है शरण ‘शिवराम’ तेरी, बिनती सुन लीजिये;
पार करने के लिये हैं, आप एक जहाजजी.
श्री जिनस्तवन
(रागरघुपति रघुवर राजाराम)
भज भज प्यारे भज भगवान, जो तू चाहे निज कल्याण. टेक
श्री अरिहंता सिद्धमहान, हैं परमातम धरिये ध्यान.
श्री आचारज गुरु मुनिराज, भज भज तारनतरन जिहाज.
वृषभादिक चौवीसे जिनेश, भज सीमंधर आदि महेश.
भज भज गौतम गुरु भगवान, कुन्दकुन्द आचार्य महान.
भज अकलंक महा विद्वान, स्वामी विद्यानन्द महान.
ये सबको पहिचावनहार, परम प्रतापी भज गुरुकहान.
भज जिनवानी सरस्वति नाम उत्तम धाम मिलै तुमदास.
श्री वीरस्तवन
(रागजय समयसार)
जय बोलो जय बोलो श्री वीरप्रभु की जय बोलो. टेक.
भारतमें अज्ञान अंधेरा था, भव्योंका हृदय तलसता था;
आप लिया अवतार प्रभु की जय बोलो.

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पुण्य उदय भारत का आया, कुण्डलपुरमें आनंद छाया;
हो रही जय जय कार प्रभु की जय बोलो.
राय सिद्धारथ राजदुलारे, त्रिशला की आंखो के तारे;
तीन लोक मनहर प्रभु की जय बोलो.
भर जोबन में दीक्षा धारी, राजपाट को ठोकर मारी;
करी तपस्या सार प्रभु की जय बोलो.
तपकर केवलज्ञान उपाया, जग का सब अन्धेर मिटाया;
कीना धर्म प्रचार प्रभु की जय बोलो.
भाव हिंसा को दूर हटाया, सब को ‘शिव’ मारग दरशाया;
किया जगत उद्धार प्रभु की जय बोलो.
श्री जिनस्तवन
(रागकाफी)
चिंतामन स्वामी सांचा साहिब मेरा;
शोक हरैं तिहुंलोकको उठि लीजतु नाम सवेरा.
चिंतामन० (टेक)
सूर समान उदोत है, जग तेज प्रताप घनेरा;
देखत मूरत भावसों, मिट जात मिथ्यात अंधेरा. चिंतामन०
दीनदयाल निवारिये, दुख संकट जोनि वसेरा;
मोहि अभयपद दीजिये फिर होय नहीं भवफेरा. चिंतामन.

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बिंब विराजत आगरै, थिर थानथयो शुभ वेरा;
ध्यान धरै विनती करै ‘बनारसि’ बंदा तेरा, चिंतामनस्वामी०
श्री सीमंधर स्वामीस्तवन
(रागकाफी)
सीमंधर स्वामी, मैं चरननका चेरा;
इस अपार संसार में कोई, अवर न रच्छक मेरा. सीमंधर (टेक)
लख चौरासी जोनिमें मैं; फिर फिर कीना फेरा;
तुम महिमा जानी नहीं प्रभु, देख्या दुःख घनेरा.
सीमंधर०
भाग उदयतैं पाईया अब, कीजै नाथ निवेरा;
बेगि दयाकरि दीजिए मुझ, अविचल-थान बसेरा.
सीमंधर०
नाम लिए अघ ना रहै ज्यों, उगे भान अंधेरा;
‘भूधर’ चिंता क्या रही जब, समरथ साहिब तेरा.
सीमंधर०
श्री जिनस्तवन
(रागकाफी)
तू जिनवर स्वामी मेरा, मैं सेवक प्रभु हों तेरा. (टेक)
तुम सुमरन विन मैं बहु कीना, नानाजोनि-बसेरा;
भाग उदय तुम दर्शन पायो, पाप भग्यो तजि खेरा.
तू जिनवरा०

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तुम देवाधिदेव परमेश्वर, दीजे दान सवेरा;
जो तुम मोख देत नहि हमको, कहां जांय किंह डेरा.
तू जिनवर०
माता तात तू ही बड भ्राता, तोसों प्रेम घनेरा;
‘द्यानत’ तार निकार जगततैं फेर न ह्वै भवफेरा.
तू जिनवरा०
श्री नेमिनाथस्तवन
(रागख्याल)
मैं नेमिजीका बंदा मैं साहिबजीका बंदा, मैं नेमिजी० (टेक)
नैनचकोर दरसको तरसै, स्वामी पूनमचंदा. मैं नेमिजीका०
छहों दरबमें सार बतायो, आतम आनंदकंदा;
ताको अनुभव नितप्रति करते, नासै सब दुःख दंदा.
मैं नेमिजीका०
देत धरम उपदेश भविक प्रति, इच्छा नाहिं करंदा;
रागरोष मद मोह नहीं, नहि क्रोध लोभ छलछंदा.
मैं नेमिजीका०
जाको जस कहि सकै न क्योंही, इंद फनिंद नरिंदा;
सुमरन भजन सार है ‘द्यानत,’ अवर बात सब फंदा.
मैं नेमिजीका०

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श्री कुंदकुंदाचार्यस्तवन
(मेरी भावनाराग)
धनधन कुंदप्रभु योगीश्वर, तत्त्वज्ञानविलासी हो. धनधन० (टेक)
दर्शन बोधमयी निज मूरति, अपनी जिनको भासी हो;
त्यागी अन्य समस्त वस्तुमैं, अहंबुद्धि दुःखदासी हो.
धनधन०
जिन अशुभोपयोगकी परनति, सत्तासहित-विनासी हो;
होय कदापि शुभोपयोग तो, तहं भी रहत उदासी हो.
धनधन०
छेदत जे अनादि दुःखदायक, दुविध-बंधकी फांसी हो;
मोह क्षोभ विन जिनकी परनति, विमल मयंक-कलासी हो.
धनधन०
विषय-चाहदवदाह-बुझावन, साम्यसुधारसरासी हो;
‘भागचंद’ ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो.
धनधन०
श्री मुनिराजस्तुति
(मेरी भावनाराग)
श्रीमुनि राजत समतासंग, कायोत्सर्ग समाहित अंग;
श्रीमुनि०
निर्मल चंद्रमाकी कला समान.