Shri Jinendra Stavan Manjari-Gujarati (Devanagari transliteration).

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करतैं नहि कुछ कारज तातैं, आलंबित भुज कीन अभंग;
गमनकाज कछु हू नहि तातैं, गति तजि छाके निजरसरंग.
श्रीमुनि०
लोचनतैं लखिबो कछु नाहीं, तातैं नाशाद्रग अचलंग;
सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातैं प्राप्त इकंत सुचंग.
श्रीमुनि०
तह मध्याह्नमांहि निज ऊपर, आयो उग्रप्रताप पतंग;
कैधों ज्ञानपवनबलप्रजुलित, ध्यानानलसों उछलि फुलिंग.
श्रीमुनि०
चित्त निराकुल अतुल उठत जंह, परमानंद-पियूष-तरंग;
‘भागचंद’ ऐसे श्रीगुरुपद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग.
श्रीमुनि०
श्री कुंदकुंदाचार्यस्तुति
(शांतिजिनेश्वर साचो साहिबराग)
गिरिवनवासी हो मुनिराज, मनबसिया म्हारै हो. गिरि० टेक.
कारन विन उपगारी जगके, तारन तरन जिहाज. गिरि० १.
जन्मजरामृत-गद-गंजनको करत-विवेक-इलाज. गिरिवन० २.
एकाकी जिम रहत केशरी, निरभय स्वगुन समाज. गिरि० ३.
१ सूरज. २ मानों ज्ञानरूपी पवनके बलसे जलाई हुई.

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निर्भूषन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज. गिरिवन०
ध्यानाध्ययनमांहि तत्पर नित, ‘भागचंद’ शिवकाज. गिरिवन०
श्री कुंदकुंदप्रभुस्तुति
(मेरी भावनाराग)
देखे मुनिराज आज अद्भुत जीवनमूल वे. देखे० टेक.
शीस लगावत सुरपति जिनकी, चरन कमलकी धूर वे. देखे०
सूखी सरिता नीर बहत है, वैर तज्यो मृग सूर वे;
चालत मंद सुगंध पवनवन, फूल रहे सुब फूल वे. देखे०
तनकी तनक खबर नहि तिनको, जर जावो जैसें तूल वे;
रंकरावतैं रंच न ममता, मानत कनकको धूल वे. देखे०
भेद करत हैं चेतन जडको, मेटत हैं भवि-भूल वे;
उपकारक लखि ‘बुधजन’ उरमें, धारत आतम कबूल वे. देखे०
अक्षय तृतीया पर्वस्तवन
(धन्य धन्य देवदेवी नरनार एराग)
धन धन श्री श्रेयांसकुमार, श्री तीर्थदान करतार.
प्रभु लखि जाहि पूर्व श्रुत आई, चित हरषाय उदार,
नवधा भक्तिसमेत इक्षुरस प्रासुक दियो आहार....धन०
१ रूईकी तरह.

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रतन वृष्टि सुरगन तब कीनी, अमित अमोघ सुधार;
कलपवृक्ष पहुपनकी वर्षा, जहं अलि करत गुँजार....धन०
सुरदुन्दुभि सुन्दर अति बाजी, मन्द सुगंधि बयार;
धन धन यह दातार इमि नभमें, चहुँदिशि होत उचार...धन०
जस ताको अमरी नित गावत, चन्द्रोज्ज्वल अविकार;
भागचन्द लघुमति क्या वरनैं, सो तो पुन्य अपार......धन०
श्री जिनवाणीस्तवन
अब मोहिं जान परी, भवोदधि तारनको है जैन...अब. (टेक)
मोहतिमिरतैं सदा कालके, छाय रहे मेरे नैन;
ताके नासनहेत लियो मैं, अंजन जैन सु ऐन. अब०
मिथ्यामती भेषको लेकर, भाषत है जो वैन;
सो वे वैन असार लखे मैं, ज्यों पानीके फैन. अब०
मिथ्यामती वेल जगफैली, सो दुखफलकी दैन;
सतगुरु-भक्ति-कुठार हाथ लै, छेद लिया अति चैन. अब०
जा विन जीव सदैव कालतैं, विधिवस सुख न लहैन;
अशरन शरन अभय दौलत अब, भजो रैन दिन जैन. अब०
१ शास्त्र, जिनवाणी

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श्री जिनवाणीस्तवन
नित पीज्यो धी धारी, जिनवानि सुधासम जानकै; नित (टेक)
वीरमुखारविन्दतैं प्रगटी, जन्मजरागदटारी;
गौतमादि गुरुउर घटव्यापी, परम सुरुचि-करतारी
नित पीज्यो०
सलिल समान कलिलमल-गंजन, बुधमनरंजनहारी;
भंजन विभ्रम धूलि-प्रभंजन, मिथ्या-जलद-निवारी.....
नित पीज्यो०
मंगलतरु उपावन धरनी, तरनी भवजल-तारी;
बंधविदारन पैनी छैनी, मुक्तिनसैंनी सम्हारी.....
नित पीज्यो०
स्वपरस्वरूप-प्रकासनको यह, भानु-किरन अविकारी;
मुनिमन-कुमुद निमोदन-शशिभा, शमसुख-सुमन-सुवारी..
नित पीज्यो०
जाके सेवत बेवत निजपद, नसत अविद्या सारी;
तीनलोकपति पूजत जाको, जान त्रिजग-हितकारी....
नित पीज्यो०
कोटि जीभसों महिमा जाकी, कहि न सकै पवि धारी;
दौल अल्पमति केम कहैं यह, अधमउधारनहारी......
नित पीज्यो०
१ मुनियोंके मनरूपी कुमुदनीको प्रफुल्लित करनेके लिये चन्द्रमाकी रोशनी.
२ समतारूपी सुख-पुष्पोंको पैदा करनेके लिये अये अच्छी बाटिका.
३ जानते वा अनुभव करते हैं.

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श्री जिनवाणीस्तवन
(शांति जिनेश्वर साचो साहिबराग)
महिमा है अगम जिनागमकी, महिमा है० टेक.
जाहि सुनत जन भिन्न पिछानी,
हम चिनमूरति आतमकी. महिमा०
रागादिक दुखकारन जाने,
त्याग बुद्धि दीनी भ्रमकी. महिमा०
ज्ञानजोति जागी उर अंतर,
रुचि बाढी पुनि शमदमकी. महिमा०
कर्मबंधकी भई निर्जरा कारण परंपराक्रमकी. महिमा०
भागचंद शिव लालच लाग्यो,
पहुंच नहीं है जहं जमकी महिमा०
श्री जिनवाणीस्तवन
(आशावरीराग)
म्हाकै घर जिनधुनि अब प्रगटी, म्हारे घर० टेक.
जाग्रत दशा भई अब मेरी, सुप्त-दशा विघटी;
जगरचना दीसत अब मोकों, जैसी रहंटघटी. म्हाके घर०
विभ्रम-तिमिर-हरन निज द्रगकी, जैसी अंजन वटी;
तातैं स्वानुभूति प्रापतितैं, परपरनति सब हटी. म्हाके घर०

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ताके विन जो अवगम चाहै, सो तो शठ कपटी;
तातैं भागचंद निशिवासर, इक ताहीको रटी. म्हाके घर०
श्री जिनवाणीस्तवन
(श्री श्रेयांसजिन अंतरजामीराग)
सुनकर वानी जिनवरकी म्हारै, हरष हिये न समाय जी,
सुनकर० (टेक)
काल अनादिकी तपन बुझाई, निजनिधि मिली अघाय जी.
सुनकर०
संशय भर्म विपर्जय नास्या, सम्यक्बुधि उपजाय जी.
सुनकर०
अब निरभय पद पाया उर मैं, बंदों मनवचकायजी.
सुनकर०
नरभव सुफल भया अब मेरा, बुधजन भेंटत पांय जी.
सुनकर०
श्री अंजनशलाका विषे
आज मारे सोना सूरज ऊगियो रे रोज.
वरस्या आजे अमृतना वरसाद रे.
१ पदार्थाेंका ज्ञान.

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अंजनशलाका गुरुजी हाथथी रे राज;
अंजनशलाका शुद्ध भावथी रे राज,
अंजनशलाका पवित्र हाथथी रे राज;
अंजनशलाका कहान प्रभु करे रे राज.
सुवर्णपुरे प्रभुजी पधारिया रे राज;
पधार्या साक्षात् भगवान रे. अंजन०
दीठां में तो त्रिजग तारक देवने रे राज;
नयणे निरख्या सीमंधर नाथ रे. अंजन०
उपशमरस प्रभु नेणले रे राज;
वदनकमळे ज्ञानानंद अपार रे. अंजन०
धन्य वीतराग तारी दिव्यता रे राज;
धन्य धन्य पूर्ण प्रभु नाथ रे. अंजन०
देव गुरुनी जोडी शोभती रे राज;
शोभे छे कांई चंद्र सूर्यनां तेज रे. अंजन०
गुरुजीमुखे सरस्वती छूटती रे राज;
नीतरतुं शुद्ध ज्ञायकस्वरूप रे. अंजन० ७
अकर्ता स्वरूपने मलावता रे राज;
थाय जड चैतन्य विभिन्न रे. अंजन०
सुरेंद्र नरेंद्र देव मानवो रे राज;
विभु महोत्सवना जयनाद गाय रे. अंजन०

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स्तवन
आज मारे मंदिरे पधारिया रे लाल,
विदेही श्री प्रभु देव रे,
प्रतिष्ठादिन दीसे आजनो रे लाल.
अम रंकने प्रभु पावन कर्या रे लाल;
उन्नत कर्यां अम काज रे. प्रतिष्ठा०
समवसरण साथे लई रे लाल,
साथे राख्या कुंदकुंददेव रे. प्रतिष्ठा०
एवा पगरणथी प्रभु चालिया रे लाल;
स्थिरवास कर्यो अम स्थान रे. प्रतिष्ठा०
हे नाथ! तारी अमृत द्रष्टिथी रे लाल;
मारो आतम उलसित थाय रे. प्रतिष्ठा०
पंच कल्याणिक महोत्सव थया रे लाल;
गुरुजी-कमकमळे महा प्रतिष्ठा थाय रे. प्रतिष्ठा०
दमीश्वर योगीश्वर नाथ छो रे लाल;
जिनेंद्र जगनाथ भगवान रे. प्रतिष्ठा०
योगीश्वर अर्चित प्रभु पूज्य छो रे लाल;
देवेंद्र नरेंद्र पूज्य नाथ रे. प्रतिष्ठा०
समवसरण स्वामी ब्रह्मेश्वरा रे लाल;
गणाधिपति गुणाकर देव रे. प्रतिष्ठा०

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सत उदय अम पुरमां रे लाल;
सदा सौख्य देव गुरु शास्त्र रे. प्रतिष्ठा० १०
श्री वीश विहरमान जिनस्तवन
(वीरकुंवरनी वातडी केने कहियेराग)
विचरंता वीश जिनने वंदुं भावे,
हांरे ए तो साक्षात जिनवर बिराजे;
हांरे ए तो अमीरस फूलडां वरसावे,
हांरे झट देखुं जिनवृंद.....विचरंता.
धन्य विदेहना मानवी चरण सेवे,
हांरे गगने इंद्रोनां टोळां उभराये;
हांरे अहोनिश आनंद मंगळ वरतावे,
हांरे वीतरागी जयकार....विचरंता.
पांच विदेहनी अद्भुत एवी शोभा,
हांरे जीहां विचरंता वीश देवा;
हांरे गणधर मुनिवर करे जस सेवा,
हांरे देखुं धन्य ए द्रश्य. विचरंता.
विद्याचरण जंघाचरणनां टोळां ऊतरे,
हांरे सर्वे मुनिवरो प्रभुध्वनि सुणे;
हांरे कोई कोई केवळज्ञानी बनी जावे,
हांरे कोई थावे सिद्ध भगवंत...विचरंता.

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हे वीश जिनवर कृपाळु कृपा कीजो,
हांरे जेम गणधर मुनिवर इंद्रो;
हांरे जेम चरणमां शरणे राखो छो,
हांरे तेम मुज राखो देव....विचरंता.
श्री सीमंधर जिनस्तवन
(रागमेरी अरजी उपर प्रभु ध्यान धरो)
मेरा मन तो रमे, प्रभु तुंहि ध्याने;
मेरा दिल तो भमे, नाथ त्हारा गाने.
(शेर)
तुंहि माता तुंहि पिता, भ्राता मेरो तुं सच्च है;
तुंहि गति है तुंहि मति है मेरा गुरु तुंहि स्वच्छ है;
मेरा प्रभुजी तारो, नहि कहोजी शाने?........मेरा०
महाराया महातीर्थप, महायोगी तुहिं हो;
दुःखदायी भवार्णवे, जहाज सम जिन तुंहि हो,
मेरा कोटी वंदन, प्रभु होजो थाने.....मेरा०
श्रेयांसराया सत्यमाता, नंद जय जयकार हो;
वृषभ लंछन तुज सारा, जगजीवन आधार हो;
लोकालोक के भाव प्रभु तुंहि जाने......मेरा०
आधि व्याधि ने उपाधि, दुःख मुजे खूब देती है;
अब तो प्रभुजी तुम मिलनसें, चेतना मुज चेती है,
सुरासुर पूजित तुज आण माने......मेरा०

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वाणी है सच्ची प्रभुकी, भविक सुख दातार है;
तुज छोडके भजे अवरको, जीव वोही सच्च गमार है;
तेरा सेवक गुण गावे एक ताने......मेरा०
श्री वीर जिनस्तवन
(गाजे पाटणपूरमांराग)
आजे वीरप्रभुजी निर्वाण पदने पामिया रे,
श्री गौतम गणधरजी पाम्या केवळज्ञान;
सुरनर आवे निर्वाण कल्याणकने ऊजववारे. आजे०
(साखी)
चरम तीर्थंकर वीर प्रभु चोवीशमां जिनराय,
भारतना वीतरागजी विरह पड्या दुःखदाय;
आजे पावापुरमां समश्रेणी प्रभु आदरी रे,
मुक्तिमां बिराज्या आप प्रभु भगवंत;
अहीं भरतक्षेत्रे तीर्थंकर विरह पड्या रे. आजे०
त्रीश वर्षे तप आदर्या लीधा केवळज्ञान,
अगणित भव्य उगारी ने पाम्या पद निर्वाण;
प्रभुजी आपे तो आपनो स्वारथ साधियो रे,
अम बाळकनी आपे लीधी नहि संभाळ;
अमने केवळना विरहामां मूकी चालिया रे. आजे०
तोपण तुज शासनमांहि, पाक्या अमौलिक रत्न,
कुंदामृत गुरु कहान छे, शासन धोरी नाथ;

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जेणे तुज शासनने अणमूल ओप चडावियारे,
जे छे अम सेवकना आतम रक्षणहार,
जेणे भारतना भव्योने चक्षु आपियारे आजे०
भरते वीरप्रभुनुं शासन आजे झूली रह्युं रे,
ते छे कहान गुरुनो परम परम प्रताप;
जेणे वीरप्रभुनो मुक्तिमार्ग शोभावियो रे,
जेनी वाणीथी जयकार नादो गाजता रे. आजे०
श्री कुंदकुंदाचार्यस्तवन
(गाजे पाटणपुरमांराग)
आजे मंगळकारी महा सूर्योदय ऊगियो रे,
भव्यजनोनां हैये हर्षानंद अपार;
श्री कुंदकुंद प्रभुजी शासन शिरोमणी थया रे. आजे० १
(साखी)
श्री महावीर जिणंदना, केडायत कुंदनाथ;
वीर शासननो तुं थांभलो, थंभाव्यो मुक्तिनो राह.
जेने आचार्यनी पदवी आजे शोभती रे,
जेनी जळहळ ज्योति झळके दशदिशिमांय;
जेने जोवाने इंद्रोनां टोळां ऊतर्यां रे. आजे०
श्री महाविदेहक्षेत्रमां, विचरंता भगवान;
सीमंधर जिननाथना, साक्षात दर्शन करनार.

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जेओ जिनेश्वरना दर्शनथी पावन थया रे,
जेनी आतमशक्तिनी करवी शुं वात!
तेनां चरणोमां मस्तक मारुं झूकी पडे रे. आजे०
वनवासी ओ मुनिवरा! आतम ध्याने मग्न;
आतम साधना साधता अहो! दिगंबर संत.
जेनां पाद चरणने पूजे सहु नरनारीओ रे,
जेनी वाणी सुणवा आवे चारे तीर्थ;
जेनी प्रभावनानो वेग झडपथी चालियो रे,
एवा संतोनां चरणनी इच्छुं सेवना रे. आजे०
कुंद हृदयने ओळखावनार गुरु कहान छे रे,
जेना मुखकमळथी वरसे अमृतमेह;
सुणवा भक्तजनोनां टोळां स्वर्णे ऊतरे रे,
एवा सद्गुरुदेवनी सेवक इच्छे सेवनारे. आजे०
श्री पद्मप्रभु जिनस्तवन
(धरम परम अरनाथनोराग)
पद्म प्रभु जिन सेवना, में पामी पूरव पुण्यजी,
जनम सफळ ए माहरो, हुं मानुं ए दिन धन्यजी. पद्म.
विनति निज सेवक तणी, अवधारो दीनदयाळजी;
सेवक जाणी आपणो, हवे महेर करो मयाळजी. पद्म.

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दुषम आरे जो प्रभु मिल्यो, तो फळ्यो वंछित काजजी;
मानुं तरतां जलनिधि, में पाम्युं सफरी झाझजी. पद्म.
चउगय महाकांतारमां, हुं भमियो वार अपारजी;
चरण शरण हवे आवियो, तार तार किरतारजी. पद्म.
सेवना देवना देवनी, जो पामी में कृतपुण्यजी;
सफळ जनम हुं ए गणुं, गणुं जीवित हुं धन्य धन्यजी. पद्म.
धन्य दिवस धन्य ते घडी, धन्य धन्य वेळा ए मुजजी;
मन वचन कायाए करी, जो सेवा करीए तुजजी. पद्म.
महिर करी प्रभु माहरी, पूरजो वंछित आशजी;
भावेथी करुं सेवना, देजो तुम चरणे वासजी. पद्म.
श्री जिनवाणीस्तवन
(आशावरीराग)
कलिमैं ग्रंथ बडे उपगारी. कलिमैं० (टेक)
देव-शास्त्र-गुरु सम्यक् सरधा, तीनों जिनतैं धारी. कलिमैं०
तीन बरस बसुमास पंद्रदिन, चौथाकाल रहा था;
परम पूज्य महावीर स्वामि तब,
शिवपुरराज लहा था. कलिमैं०
केवलि तीन पांच श्रुतकेवलि, पीछैं गुरुनि विचारी;
अंगपूर्व अब है न रहैंगे, बात लखी थिरकारी. कलिमैं०
१ म्हाअटवीमां

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भविहितकारन धर्मविथारन, आचरजों बनाये;
बहुतनि तिनकी टीका कीनी, अद्भुत अरथ समाये. कलिमैं०
केवलि श्रुतकेवलि यहां नाहीं, मुनिगुन प्रगट न सूझैं;
दोऊ केवलि आज यही हैं, इनहीको मुनि बूझे. कलिमैं०
बुद्धि प्रगट करी आप बांचिये, पूजा बंदन कीजै;
दरब खरचि लिखवाय सुधायसु, पंडितजनकों दीजै. कलिमैं०
पढतैं सुनतैं चरचा करतैं, ह्वै संदेह जु कोई;
आगम माफिक ठीक करै कै, देख्यो केवलि सोई. कलिमैं०
तुच्छबुद्धि कछु अरथ जानिकै, मनसों विंग उठाये;
औधिज्ञानी श्रुतज्ञानी मानों, सीमंधर मिलि आये. कलिमैं०
ये तो आचारज है सांचे, ये आचारज झूंठे;
तिनिके ग्रंथ पढैं नित बंदै, सरधा ग्रंथ अपूठे. कलिमैं० ९
सांच झूठ तुम क्योंकर जान्यो, झूठ जान क्यों पूजो;
खोट निकाल शुद्धकर राखो, अवर बनावो दूजो कलिमैं० १०
कौन सहामी बात चलावैं, पूछै आनमती तो;
ग्रंथ लिख्यो तुम क्यों नहिं मानो, जवाब कहा कहि जीतो.
किलमैं० ११
जैनी जैनग्रंथके निंदक, हुंडासर्पिनी जोरा;
‘द्यानत’ आप जानि चुप रहिये, जगमैं जीवन थोरा. कलिमैं० १२

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श्री जिनेंद्रस्तवन
जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतमघान नशाया है; जिन०
वचनकिरनप्रसरनतैं भविजन, मन सरोज सरसाया है;
भवदुःखकारण सुखविसतारण, कुपथ सुपथ दरशाया है. जिन.
विनशाई कुंज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है;
तस्कर प्रबल कषाय पलाये, जिन घनबोध चुराया है.
लखियत उडु न कुभाव कहूं अब, मोह उलूक लजाया है;
हंस कोकको शोक नशो निज, परिणति चकवी पाया है.
कर्मबंधकजकोषबंधे चिर, भवि अलि मुंचन पाया है;
‘दौल’ उजास निजातम-अनुभव, उर जग अंतर छाया है.