व्यंतर जाति असंखित देव, चैत्य असंख्य नमहुं इह भेव;
ज्योतिष संख्यातैं अधिकाय, चैत्य असंख्य नमूं चितलाय. १६
अब सुरलोक कहूं परकाश, जाके नमत जाहिं अघ नाश;
प्रथम स्वर्ग सौधर्म विमान, लाख बतीस नमूं तिहं थान. १७
दूजो उत्तर श्रेणि इशान, लक्ष्य अठाईस चैत्य निधान;
तीजो सनतकुमार कहाय, बारह लाख नमूं धर भाय. १८
चौथो स्वर्ग महेन्द्र सुठामि, लाख आठ जिनचैत्य नमामि;
ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर दोय, लाख च्यार जिनमंदिर होय. १९
लांतव और कहूं कापिष्ट, सहस पचास नमूं उतकिष्ट;
शुक्र रु महाशुक्र अभिराम, चालिस सहँसनि करुं प्रणाम. २०
सतार सहस्रार सुर लोक, षट सहस्र चरनन द्यों धोक;
आनत प्राण आरण अच्युत, चार स्वर्गसे सात संयुत. २१
प्रथमहि ग्रैव चैत्य जिन देव, इकसो ग्यारह कीजे सेव;
मध्यग्रैव एकसो सात, ताकी महिमा जग विख्यात. २२
उपरि ग्रैव निब्बै अरु एक, ताहि नमूं धर परम विवेक;
नव नवउत्तर नव प्रासाद, ताहि नमूं तजिके परमाद. २३
सबके उपर पंच विमान, तहँ जिनचैत्य नमूं धर ध्यान;
सब सुरलोकनकी मरजाद, कही कथन जिनवचन अनाद. २४
लख चौरासी मंदिर दीस, सहस सत्याणव अरु तेईस;
तीन लोक जिनभवन निहार; तिनकी ठीक कहूं उरधार. २५
आठ कोड अरु छप्पन लाख, सहस सत्याणव उपर भाख;
चहुंसे इक्यासी जिनभौन, ताहि नमूं करिकें चिन्तौन. २६
१०८ ][ श्री जिनेन्द्र