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स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा
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प्रथम आवृत्तिवीर सं. २५१३वि. सं. २०४३प्रतः १००० द्वितीयावृत्तिवीर सं. २५१६वि. सं. २०४६प्रतः १००० तृतीयावृत्तिवीर सं. २५३३वि. सं. २०६३प्रतः १०००
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ज्ञानी सुकानी मळ्या विना ए नाव पण तारे नहीं;
आ काळमां शुद्धात्मज्ञानी सुकानी बहु बहु दोह्यलो,
मुज पुण्यरशि फळ्यो अहो! गुरु क्हान तुं नविक मळ्यो.
अने ज्ञप्तिमांही दरव-गुण-पर्याय विलसे;
निजालंबीभावे परिणति स्वरूपे जई भळे,
निमित्तो वहेवारो चिदघन विषे कांई न मळे.
जे वज्रे सुमुमुक्षु सत्त्व झळके; परद्रव्य नातो तूटे;
ऊंडी ऊंडी, ऊंडेथी सुखनिधि सतना वायु नित्ये वहंती, वाणी चिन्मूर्ति! तारी उर-अनुभवना सूक्ष्म भावे भरेली;
भावो ऊंडा विचारी, अभिनव महिमा चित्तमां लावी लावी, खोयेलुं रत्न पामुं, — मनरथ मननो; पूरजो शक्तिशाळी!
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भगवानश्रीकुंदकुंदकहानजैनशास्त्रमाळाना १८१मा पुष्परूपे गुजराती भाषामां स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षानुं आ बीजुं संस्करण श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट, सोनगढ द्वारा प्रकशित करतां अति प्रसन्नता अनुभवीए छीए. गुजराती भाषानुवाद युक्त आ ग्रंथनुं प्रथम संस्करण ‘श्रीमद् राजचंद्र ज्ञानप्रचारक ट्रस्ट’ — अमदावाद तरफथी वि. सं. २००७मां प्रकशित करवामां आव्युं हतुं. तेना आधारे आ द्वितीय संस्करण मुद्रित करवामां आव्युं छे.
बाळब्रह्मचारी अध्यात्मयोगी निर्ग्रंथ दिगंबर मुनिवर श्री ‘स्वामी कुमार’ अपरनाम ‘स्वामी कर्तिकेय’ प्रणित आ ‘अनुप्रेक्षाग्रंथ’ सम्यग्ज्ञान- वैराग्यनो अनुपम बोध आपनार उच्च कोटिनुं एक महान शास्त्र छे. प्राकृतभाषामां रचायेल आ पवित्र शास्त्रमां, वैराग्यजननी अध्रुवदि बार भावनाना अति भाववाही तेमज रहस्यगंभीर वर्णननी साथे साथे, प्रकरणना प्रसंग अनुसार, वीतराग जैनदर्शननुं प्रयोजनभूत तत्त्वज्ञान पण अति सुंदर रीते निरूपवामां आव्युं छे. ‘अनुप्रेक्षा’ना आ भाववाही महान ग्रंथ उपर, अध्यात्मरसानुभवी बाळब्रह्मचारी सन्मार्गप्रकाशक परमपूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीए अध्यात्मरसभरपूर सुंदर प्रवचनो आप्यां छे. पूज्य गुरुदेवे ‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’नां प्रवचनोमां जे अर्थगंभीर तेम ज ज्ञान-वैराग्यप्रेरक अद्भुत रहस्यो खोल्यां छे तेमनाथी अनेक मुमुक्षुहृदयो प्रभवित थयां छे; अने तेथी केटलाक मुमुक्षु महानुभावोनी, घणा वखतथी अप्राप्य एवा आ महान ग्रंथनुं नवुं संस्करण छपाववानी मागणी हती.
अध्यात्मयुगप्रवर्तक परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीनी पवित्र साधनाभूमि अध्यात्मतीर्थधाम सुवर्णपुरी (सोनगढ) मां स्वानुभवविभूषित प्रशममूर्ति पूज्य बहेनश्री चंपाबेननी, अध्यात्म साधना तेम ज देव-गुरु- भक्तिभीनी मंगळ छायातळे पूर्ववत् जे अनेकविध धर्मिक गतिविधि चाले छे तेना एक अंगरूप सत्सहित्य प्रकाशनविभाग द्वारा जे आर्षप्रणीत मूळ
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शास्त्रो तथा प्रवचन ग्रंथो वगेरे प्रकशित करवामां आवे छे ते पैकीनुं आ एक नूतन प्रकाशन छे.
आ ग्रंथनुं सुंदर मुद्रण करी आपवा बदल ‘कहान मुद्रणालय’ना मलिक श्री ज्ञानचंदजी जैननो आभार मानीए छीए.
तत्त्वज्ञान तेमज वैराग्यरसथी भरपूर आ पवित्र ग्रंथनुं आत्मार्थना लक्षे ऊंडुं अवगाहन करीने मुमुक्षु जीवो ज्ञानवैराग्यरसभीनी भगवती साधना प्राप्त करो! – ए ज, प्रकाशनना शुभावसरे मंगळ भावना.
दीपावली-पर्व, वि. सं. २०४३ (महावीर-निर्वाण दिन)
प्रथमावृत्ति अने द्वितीयावृत्ति अति अल्प समयमां वेचाण थई जतां, आपणा परम तारणहार पू. सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अतिशय प्रभावना उदये अने पू. भगवतीमाता चंपाबेननी पवित्र छत्रछायाना प्रभावे आत्मार्थी जीवोमां जागृत थयेल आत्मार्थताने लीधे आ वैराग्यवर्धक अने आत्मार्थपोषक शास्त्रनी वधु मांग थतां आ शास्त्र फरीथी प्रथमावृत्ति प्रमाणे ज छापवामां आवे छे.
श्रुतपंचमी पर्व वीर. नि.सं. २५३३
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‘द्वादश अनुप्रेक्षा’ अर्थात् ‘बार भावना’ वीतराग जैनधर्ममां आध्यत्मिक साधनानुं एक महत्त्वपूर्ण उत्तम अंग छे. जिनागममां तेनो, ‘स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचरित्रैः ।’ — ए रीते, संवरना उपायमां अंतर्भाव करवामां आव्यो छे. तेनी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ए छे के – अढी द्वीपनी, — पांच भरत, पांच ऐरावत अने पांच विदेह — ए पंदरेय कर्मभूमिमां थनारा त्रणे काळना सर्व तीर्थंकरो, गृहस्थदशामां निरपवाद नियमथी, आ ‘बार भावना’ना चिंतवनपूर्वक ज वैराग्यनी सतिशय वृद्धि पामीने, लौकांतिक देवो द्वारा नियोगजनित अनुमोदना थतां, स्वयं दीक्षित थाय छे.
अनुप्रेक्षा एटले भावना, चिंतवन, मनोगत अभ्यास, परिशीलन, वैराग्यभावना, संसार, शरीर तेम ज भोग वगेरेना अनित्य, अशरण, अशुचि अदि स्वभावनुं — अंतरमां नित्य, शरण अने परम शुचिस्वरूप निज त्रिकाळशुद्ध ज्ञायक आत्माना लक्ष तेम ज साधना सहित – संवेग तेम ज वैराग्य अर्थे फरी फरी चिंतवन करवुं ते अनुप्रेक्षा छे. (१) अनित्य-अनुप्रेक्षा, (२) अशरण-अनुप्रेक्षा, (३) संसार-अनुप्रेक्षा, (४) एकत्व-अनुप्रेक्षा, (५) अन्यत्व- अनुप्रेक्षा, (६) अशुचित्व-अनुप्रेक्षा, (७) आस्रव-अनुप्रेक्षा, (८) संवर- अनुप्रेक्षा, (९) निर्जरा-अनुप्रेक्षा, (१०) लोक-अनुप्रेक्षा, (११) बोधिदुर्लभ- अनुप्रेक्षा, अने धर्म-अनुप्रेक्षा — ए प्रमाणे अनुप्रेक्षाना बार भेद छे. आ बारेयना स्वरूपनुं, भवदुःखशामक ज्ञानवैराग्यनी वृद्धि अर्थे, वारंवार अनुचिंतन अवश्य कर्तव्य छे.
‘अनुप्रेक्षा’ विषे प्राचीन आचार्योए तेम ज मध्यकालीन विद्वानोए पण घणुं लख्युं छे. वीतराग दिगंबर संतो, भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे तेम ज मुनिवर श्री कर्तिकेयस्वामीए (अपरनाम ‘स्वामी कुमारे’) तो आ विषय उपर स्वतंत्र ग्रंथो लख्या छे. श्री कुंदकुंदाचार्यदेवनी कृति ‘बारस-अणुवेक्खा’ अने श्री कर्तिकेय मुनिवरनी कृति ‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’ नामथी प्रसिद्ध छे. ते बंने अनुप्रेक्षा-ग्रंथोनी अनेक आवृत्तिओ मुद्रित थईने प्रकशित थई गई छे.
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बार अनुप्रेक्षाओमां प्रत्येक अनुप्रेक्षा द्रव्य-अनुप्रेक्षा अने भाव-अनुप्रेक्षाना भेदथी बे प्रकारे छे. साधकभावरूप शुद्धपरिणतिमय अंतरंग विरक्तिनी पुष्टि अर्थे भव-तन-भोगनां अध्रुव, अशरण अने अशुचिपणानुं तेम ज संसार वगेरेनुं विकल्पयुक्त चिंतन ते द्रव्य-अनुप्रेक्षा छे अने विकल्पयुक्त चिंतन साथे ज्ञानीने अंतरमां ज्ञानानंदस्वभावी आत्माना अवलंबने वर्तती जे विकल्पातीत वीतराग शुद्ध परिणति ते भाव-अनुप्रेक्षा छे. आ शुद्ध परिणतिमय भाव-अनुप्रेक्षा ज साधक जीवने संवर-निर्जरानुं कारण छे; विकल्पयुक्त चिंतनमय द्रव्य-अनुप्रेक्षा तो शुभ राग छे; ते तो आस्रव-बंधनुं कारण छे, संवर-निर्जरानुं नहि. साधक जीवने जेटले अंशे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्रमय शुद्ध परिणति प्रगट थई छे तेटले अंशे तेने आस्रव – बंध थतो नथी, परंतु जेटले अंशे शुभाशुभ राग छे तेटले अंशे तेने नियमथी आस्रव-बंध थाय छे. ज्ञानीने अंतरंग शुद्ध परिणति साथे वर्तता ‘अनित्य’ अदि चिंतनना शुभ रागने व्यवहारे ‘अनुप्रेक्षा’ कहेवाय छे, परंतु ‘अनुप्रेक्षा’ तो संवरनुं कारण होवाथी, ते शुभरागयुक्त चिंतन परमार्थे ‘अनुप्रेक्षा’ नथी, ‘अनित्य’ अदिना चिंतनकाळे वर्तती अंतरंग शुद्ध परिणति ज निश्चय-अनुप्रेक्षा छे.
बार अनुप्रेक्षानुं माहात्म्य तेम ज फळ अचिंत्य छे. अनदि काळथी आज सुधी जे कोई भव्य जीवो पूर्णानंदमय मुक्तदशाने पाम्या छे ते बधा आ अनित्य अदि बार भावनाओनुं — एक, अनेक अथवा बधीयनुं — तत्त्वतः अंतरंग शुद्धियुक्त चिंतन के ध्यान करीने ज पाम्या छे. विशेष कहेवानी आवश्यकता नथी, एटलुं ज कहेवुं पर्याप्त छे के जे भूतकालमां तीर्थंकरो, चक्रवर्तीओ, बळदेवो, गणधरो वगेरे श्रेष्ठ पुरुषो सिद्धिने वर्या अने जेओ भविष्यमां वरशे ते बधुं आ भावनाओना तत्त्विक शुद्धियुक्त चिंतवननुं ज अचिंत्य फळ छे. खरेखर, ए बधुं ज्ञानवैराग्यवर्धक भावनाओनुं ज माहात्म्य छे. आ बार भावनाओना चिंतननो निरंतर अभ्यास करवाथी आत्मार्थी जीवोनां हृदयमां रहेलो कषायरूप अग्नि बुझाई जाय छे, परद्रव्यो प्रत्येनो रागभाव क्षीण थई जाय छे अने अज्ञानरूप अंधकारनो विलय थईने ज्ञानरूप दीपकनो प्रकाश थाय छे. माटे मोक्षेच्छु आत्माए बार भावनाओनुं तत्त्विक चिंतवन निरंतर करवुं जोईए, केमके अंतरंग शुद्धियुक्त आ बार भावना समस्त विभावो तेम ज कर्मोना क्षयनुं कारण थाय छे.
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अनित्यदि बार भावनाना तत्त्वज्ञानपूर्वक चिंतवननुं सामान्यपणे प्रयोजन ए छे के – धर्मध्यानमां जे प्रवृत्ति करे छे तेने आ द्वादशानुप्रेक्षा आधाररूप छे, अनुप्रेक्षाना बळे ध्यातापुरुष धर्मध्यानमां स्थिर रहे छे; वस्तुस्वरूपमां जे एकाग्रचित्त थाय छे ते, तेनुं विस्मरण थतां तेनाथी चलित थई जाय छे, परंतु वारंवार तेने एकाग्रता माटे जो भावनानुं आलंबन मळी जाय तो ते चलित नहि थाय. माटे आत्महितना इच्छुक जीवोए आ बार भावना भाववी जोईए.
प्रत्येक भावनानुं व्यवहार-निश्चय चिंतवन निम्न प्रकारे मोक्षेच्छु भव्य जीवोए करवुं जोईए.
अध्रुव-अनुप्रेक्षाःउत्तम भवन, सवारी, वाहन, शयन, आसन, देव, मनुष्य, राजा, माता, पिता, कुटुंबी अने सेवक अदि बधाय संयोगो अनित्य अर्थात् छूटा पडी जनार छे. बधा प्रकारनी सामग्री — परिग्रह, इन्द्रियो, रूप, नीरोगता, यौवन, बळ, तेज, सौभाग्य अने सौंदर्य वगेरे बधुंय मेघधनुषनी जेम नश्वर छे. अहमिंद्रनां पद, चक्रवर्ती अने बळदेव अदिनी पर्यायो — पाणीना परपोटा, इन्द्रधनुष, विजळी अने वादळांनी शोभा समान – क्षणभंगुर छे. ज्यां, दूध अने पाणीनी जेम जीवो साथे निबद्ध, देह पण शीघ्र नष्ट थई जाय छे त्यां भोगोपभोगनां साधनभूत पृथक्वर्ती पदार्थो — स्त्री अदि परिकरनो संयोग शाश्वत केम होई शके? न ज होई शके. अध्रुवभावनानुं निश्चयथी चिंतन आ प्रमाणे करवुं के – परमार्थथी ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा देव, असुर अने नरेन्द्रना वैभवोथी ने शरीरदि परपदार्थोथी तद्दन भिन्न त्रिकाळशुद्ध तेम ज शाश्वत परम पदार्थ छे. तत्त्वज्ञानपूर्वक तेनुं अनुप्रेक्षण करवाथी शाश्वत सिद्धगति प्राप्त थाय छे.
अशरण-अनुप्रेक्षाःमरण समये त्रणे लोकमां जीवने मरणथी बचावनार कोई नथी. मणि, मंत्र, औषध, रक्षक सामग्री, हाथी, घोडा, रथ अने समस्त विद्याओ वगेरे कोई शरण आपनार नथी. स्वर्ग जेनो किल्लो छे, देवो सेवक छे, वज्र शस्त्र छे अने ऐरावत गजराज छे एवा इन्द्रने पण कोई शरण नथी — तेने पण मृत्युथी बचावनार कोई नथी. नव निधि, चौद रत्न, घोडा, मत्त गजेन्द्रो अने चतुरंगिणी सेना वगेरे कांई पण चक्रवर्तीने शरणरूप नथी, जोतजोतामां काळ तेने कोळियो करी जाय छे. तो पछी जीवने
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निश्चये शरण कोण छे? जन्म, जरा, मरण, रोग अने भय इत्यदिथी आत्मानुं रक्षण करवावाळो सर्व द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी भिन्न त्रिकाळ शुद्ध निज ज्ञायक आत्मा ज शरण छे. आत्मा स्वयं पंचपरमेष्ठीरूप परिणमन करे छे तेथी आत्मा ज आत्मानुं शरण छे.
संसार-अनुप्रेक्षाःजिनेन्द्रदेवप्रणीत अध्यात्ममार्गनी अंतरमां सम्यक् प्रतीति तेम ज परिणति विना जीव अनदिकाळथी जन्म, जरा, मरण, रोग अने भयथी प्रचुर एवा पंच परवर्तनरूप संसारमां परिभ्रमण करे छे. कर्मोना निमित्ते आ जीव संसाररूपी भयानक वनमां भ्रमण करे छे; परंतु निश्चयनये जीव सदा कर्मोथी रहित छे तेथी तेने संसार ज नथी. संसारथी अतिक्रान्त निज नित्य शुद्ध आत्मा उपादेय छे अने संसारदुःखोथी आक्रांत क्षणिक दशा हेय छे
— एवुं चिंतवन करवुं ते संसार-अनुप्रेक्षा छे.
एकत्व-अनुप्रेक्षाःजीव एकलो ज कर्म करे छे, एकलो ज दीर्घ संसारमां भटके छे, एकलो ज जन्मे-मरे छे अने एकलो ज उपर्जित कर्मोनां फळ भोगवे छे. जीव एकलो ज पुण्य-पाप करे छे अने एकलो ज तेना फळमां ऊंच-नीच गति भोगवे छे. निश्चयनये एकत्वनुं अनुप्रेक्षण करनार एम भावे छे के — हुं त्रणे काळे एकलो ज छुं, ममत्वथी रहित छुं, शुद्ध छुं तथा सहज ज्ञान-दर्शन स्वभावथी परिपूर्ण छुं. आ शुद्ध एकत्वभाव ज सदा उपादेय छे. आत्मार्थी जीवे सदा आ प्रमाणे एकत्वनी विचारणा – भावना कर्तव्य छे.
अन्यत्व-अनुप्रेक्षाःमाता-पिता, भाई, पुत्र तथा स्त्री वगेरे कुटुंबीओनो आ जीव साथे परमार्थे कोई संबंध नथी, बधां पोताना स्वार्थ वश साथे रहे छे. इष्ट जननो वियोग थतां आ जीव शोक करे छे परंतु आश्चर्य छे के पोते संसाररूपी महासागरमां गळकां खाई रह्यो छे तेनो तो शोक करतो नथी! निश्चयनये अन्यत्वभावनानो चिंतक एम चिंतवे छे के आ जे शरीरदि बाह्य द्रव्यो छे ते बधां माराथी अन्य छे. मारो तो, मारी साथे त्रिकाळ-अन्यभूत सहजशुद्ध ज्ञानदर्शनमय निज आत्मा ज छे.
अशुचित्व-अनुप्रेक्षाःअशुचिमय एवुं आ शरीर हाडकांओनुं बनेलुं, मांसथी लपेटायेलुं, चामडाथी आच्छदित कीटसमूहथी भरपूर अने सदा
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मलिन छे. वळी ते दुर्गन्धथी युक्त, घृणित, गंदा मळथी भरेलुं, अचेतन, मूर्तिक, सडण-गळण स्वभाववाळुं छे, नश्वर छे. निश्चयनये आ आत्मा अशुचिमय शरीरथी भिन्न, कर्मनोकर्मथी रहित, अनंत सुखनो भंडार परमशुचिमय तथा श्रेष्ठ छे. आ रीते साधक जीवे अशुचित्वभावना निरंतर भाववी जोईए.
आस्रव-अनुप्रेक्षाःमिथ्यात्व, अविरति, कषाय अने योग — ए आस्रवो छे ने कर्मबंधनुं कारण छे. प्रत्येक भेद-प्रभेद तथा स्वरूप जिनागममां कहेल छे. भाव तेम ज द्रव्य कर्मास्रवने कारणे ज जीव संसार-अटवीमां परिभ्रमण करे छे. शुभाशुभ आस्रवने लीधे जीव संसारसागरमां डूबी जाय छे, माटे आस्रवरूप क्रिया मोक्षनुं कारण नथी; जे शुभास्रवरूप क्रिया ज्ञानीने हेयबुद्धिए होय छे ते परंपराए मोक्षनुं कारण व्यवहारे कहेवाय छे. अशुभास्रवरूप क्रिया तो मोक्षनुं कारण छे ज नहि, परंतु शुभास्रवरूप क्रिया पण मोक्षनुं कारण नथी. आस्रवरूप क्रिया द्वारा निर्वाण थतुं नथी. आस्रव संसारगमननुं ज कारण छे, माटे निंदनीय छे. निश्चयनये जीवने कोई पण आस्रव नथी. तेथी आत्माने सदैव शुभाशुभ बंने प्रकारना आस्रवोथी रहित भाववो जोईए.
संवर-अनुप्रेक्षाःचल, मलिन अने अगाढ दोष टळतां निर्मळ सम्यक्त्वरूपी द्रढ कमाड द्वारा मिथ्यात्वरूपी आस्रव बंध थई जाय छे; पंचमहाव्रतयुक्त शुद्ध परिणतिथी अविरतिरूप आस्रवनो नियमथी निरोध थाय छे; अकषायरूप शुद्ध परिणतिथी कषायरूप आस्रवोनो अभाव थाय छे अने अंतरंग शुद्धि सहित शुभयोगनी प्रवृत्ति अशुभयोगनो संवर करे छे तथा शुद्धोपयोग द्वारा शुभयोगनो निरोध थई जाय छे; शुद्धोपयोगथी जीवने धर्मध्यान अने शुक्लध्यान थाय छे, तेथी ध्यान संवरनुं कारण छे.
निरंतर संवरना स्वरूपनो विचार करवो जोईए. परम निश्चयनये जीवने संवर नथी, केम के ते तो द्रव्यस्वभावे सदा शुद्ध छे. तेथी द्रव्यद्रष्टिए आत्माने सदा संवरभावथी रहित सदा परिपूर्ण शुद्ध विचारवो जोईए.
निर्जरा-अनुप्रेक्षाःपूर्वे बांधेलां कर्मोनुं एकदेश खरी जवुं ते निर्जरा छे. जे कारणो संवरनां छे ते ज निर्जरानां छे. निर्जराना बे भेद छेः (१) सविपाक अने (२) अविपाक. सविपाक निर्जरा, अर्थात् उदयकाळ आवतां
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स्वयं पाकीने कर्मो खरी जाय ते, चारेय गतिओना जीवोने होय छे; अने अविपाक निर्जरा अंदर शुद्ध परिणतियुक्त ज्ञानीने विशेषतः व्रती जीवोने तप द्वारा, थाय छे. परमार्थनये त्रिकाळशुद्ध जीवने निर्जरा पण नथी, तेथी द्रव्यद्रष्टिए आत्माने सदा निर्जराभावथी रहित एकरूप पूर्ण शुद्ध चिंतववो जोईए.
लोक-अनुप्रेक्षाःजीवदि पदार्थोनो समूह ते लोक छे. लोकना त्रण विभाग छे. अधोलोक, मध्यलोक अने ऊर्ध्वलोक. नीचे सात नरक, मध्यमां असंख्यात द्वीप-समुद्र अने उपर त्रेसठ भेद सहित स्वर्ग छे. अने सौथी उपर मोक्ष छे. अशुभोपयोगथी नरक अने तिर्यंच गति प्राप्त थाय छे, शुभोपयोगथी देव अने मनुष्य गतिनां सुख मळे छे अने शुद्धोपयोगथी जीवने मोक्ष प्राप्त थाय छे.
गहन वात छे शिष्य आ, कही संक्षेपे साव.’
— आ रीते लोकना स्वरूपनो विचार करवो जोईए.
बोधिदुर्लभ-अनुप्रेक्षाःसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चरित्रनी एकतारूप शुद्ध परिणति ‘बोधि’ छे; तेनी प्रप्ति अत्यंत दुर्लभ छे. तेनी दुर्लभतानो वारंवार विचार करवो ते बोधिदुर्लभ-अनुप्रेक्षा छे. कर्मोदयजन्य पर्यायो तेम ज क्षायोपशमिक ज्ञान हेय छे अने कमरनिरपेक्ष त्रिकाळशुद्ध निज आत्मद्रव्य उपादेय छे – एवो अंतरमां द्रढ निर्णय ते सम्यग्ज्ञान छे. ज्ञायकस्वभावी निज आत्मद्रव्य ‘स्व’ छे अने बाकी बधुं – द्रव्यकर्म, भावकर्म ने नोकर्म – ‘पर’ छे. आ रीते स्व-परना ने स्वभाव-विभावना स्वरूपनुं चिंतवन करवाथी हेय-उपादेयनुं ज्ञान थाय छे, अर्थात् समस्त परद्रव्य ने परभाव हेय छे अने स्वद्रव्य उपादेय छे. निश्चयनये हेय-उपादेयना विकल्प पण आत्मानुं स्वरूप नथी. मुनिराज भवनो अंत लाववा माटे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्रात्मक ‘बोधि’नुं वारंवार अनुप्रेक्षण करे छे.
धर्म-अनुप्रेक्षाःमोह अने क्षोभ रहित आत्मानी निर्मळ परिणति ‘धर्म’ छे. धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. स्वानुभूतियुक्त निज शुद्धात्मदर्शन विना श्रावकधर्म के मुनिधर्म – कोई धर्म संभवी शकतो नथी. श्रावकधर्मना दर्शनप्रतिमा
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अदि अगियार भेद छे अने मुनिधर्मना उत्तम क्षमा अदि दस भेद छे. श्रावकधर्म मोक्षनुं परंपराए कारण छे अने मुनिधर्म साक्षात् कारण छे. माटे शुद्धपरिणतिमां श्रावकधर्मथी आगळ वधी जे मुनिधर्ममां प्रवृत्त थाय ते अत्यासन्नभव्यजीव शीघ्र मोक्ष प्राप्त करे छे. सम्यग्द्रष्टि श्रावक के मुनिनो जे व्रतदि शुभप्रवृत्तिरूप आचारधर्म छे ते परमार्थे ‘धर्म’ नथी. परंतु नीचली दशामां निर्मळ परिणति साथे ते हठ विना सहज वर्ततो होवाथी तेने उपचारथी ‘धर्म’ कहेवामां आवे छे. माटे शुभास्रवरूप व्रतदिमय श्रावकधर्म के मुनिधर्म
चिंतन करवुं.
अहो! परम वैराग्यनी जननी एवी आ बार अनुप्रेक्षाओनो महिमा शुं कथी शकाय! आ बार अनुप्रेक्षाओ ज खरेखर प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना अने समधि वगेरे छे. माटे आ अनुप्रेक्षाओनुं निरंतर चिंतन करवुं जोईए. भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे कह्युं छे के निश्चय अने व्यवहारथी कथवामां आवेली आ अनुप्रेक्षाओनुं जे शुद्ध मनथी चिंतवन करे छे ते परम निर्वाणने पामे छे.
प्राकृतभाषामां निबद्ध ४९१ गाथा द्वारा ‘स्वामी कुमार’ मुनिराजे आ कर्तिकेयानुप्रेक्षामां अनित्यदि बार भावनाओनी साथे साथे, तेमनी साथे बंधबेसता अनेक विषयोनुं घणी ज सुंदर अने सुगम रीते निरूपण कर्युं छे. ते ते विषयनुं निरूपण करनारी गाथाओनी भाषा एटली सरळ, स्पष्ट, मधुर अने तलस्पर्शी छे के एकाग्रचित्ते अध्ययन करनारने तेमां भरेला, ज्ञान- वैराग्यने सींचनारा, भावोथी हृदय आह्लदित थई जाय छे. अध्रुव अदि प्रत्येक अनुप्रेक्षानुं ते ते प्रकारनी शुद्धिए परिणत आत्मद्रव्यनुं वैराग्यप्रेरक तेम ज उपशान्तरसयुक्त हृदयग्राही चित्रण आपीने ते ते अनुप्रेक्षानी प्रायः अंतिम एक
एवुं मीठुं अने करुणारसभीनुं संबोधन कर्युं छे के जेनाथी भव्य जीवोने रोमांच खडा थई जाय. हे भव्यजीव! तुं समस्त विषयोने क्षणभंगुर सांभळी तेम ज महामोह छोडी, तारा अंतःकरणने निर्विषय – विषय रहित – कर, जेथी तुं उत्तम सुखने प्राप्त थईश....हे भव्य! तुं परमश्रद्धापूर्वक दर्शनज्ञानचरित्रस्वरूप आत्माना शरणनुं सेवन कर! आ संसारमां परिभ्रमण
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करता जीवोने निज आत्मा सिवाय अन्य कोई शरण नथी.....हे भव्यात्मा! सर्वप्रकारे उद्यम करी मोह छोडी तुं ए आत्मस्वभावनुं चिंतवन कर के जेथी संसारपरिभ्रमणनो सर्वथा नाश थाय......हे भव्यात्मा! तुं उद्यम करीने जीवने शरीरथी सर्व प्रकारे भिन्न जाण! तेने जाणतां बाकीनां सर्व परद्रव्यो तत्क्षण छोडवा योग्य भासशे...इत्यदि.
कर्तिकेयानुप्रेक्षा ‘द्वादश अनुप्रेक्षा’ विषयनो संभवतः सौथी मोटो ग्रंथ छे तेमां ग्रंथकारे ‘लोक-अनुप्रेक्षा’ (गाथा ११५ थी २८३) अने धर्म-अनुप्रेक्षा’ (गाथा ३०२ थी ४३५) नो घणी गाथाओमां विस्तार करीने द्रव्यानुयोगना तेम ज धर्म-आराधनाना अनेक विषयो आवरी लीधा छे. धर्मानुप्रेक्षाना वर्णन पछी तेनी चूलिकारूपे अनशन अदि बार तपोनुं पण एकावन गाथाओमां (गाथा ४३८ थी ४८८) घणुं सुंदर वर्णन कर्युं छे.
‘लोकभावना’मां आवेली, द्रव्यानुयोगना सिद्धान्तोनुं निरूपण करनारी (गाथा १७६ थी २८०) गाथाओमांथी निम्न गाथाओ विशेष अनुप्रेक्षणीय छेः १७८, १७९, १८०, १९१, २००, २०१, २०२, २०४, २०५; वस्तुमां कारणकार्यनी व्यवस्थानुं निरूपण करनारी गाथाओः २२२ थी २२३; गाथा २३७ थी २४६मां द्रव्य-गुण-पर्यायना स्वरूपवर्णन विषे गाथा २४३मां कह्युं छे के – जो ‘द्रव्यमां पर्यायो छे ते पण विद्यमान छे अने तिरोहित एटले ढंकायेला छे’ एम मानीए तो उत्पत्ति कहेवी ज विफल (व्यर्थ) छे. गाथा २४६मां कह्युं छेः द्रव्य अने पर्यायमां (सर्वथा) भेद माने छे तेने कहे छे के हे – मूढ! जो तुं द्रव्य अने पर्यायमां वस्तुतः भेद माने छे तो द्रव्य अने पर्याय बंनेनी निरपेक्ष सिद्धि नियमथी प्राप्त थाय छे. एम मानतां द्रव्य अने पर्याय जुदी वस्तु ठरे छे, पण तेमां धर्मधर्मीपणुं ठरतुं नथी.
आगळ ‘धर्म-अनुप्रेक्षा’ना अधिकारमां श्रावकधर्म अने मुनिधर्मना वर्णन पहेलां सम्यक्त्वनुं माहात्म्य बतावतां गाथा ३२५मां कह्युं छे के – सर्व रत्नोमां पण महारत्न सम्यक्त्व छे. वस्तुनी सिद्धि करवाना उपायरूप सर्व योग, मंत्र, ध्यान अदिमां सम्यक्त्व उत्तम योग छे, कारण के — सम्यक्त्वथी मोक्ष सधाय छे. अणिमदि ॠद्धिओमां पण सम्यक्त्व महान ॠद्धि छे. घणुं शुं कहीए! सर्व सिद्धि करवावाळुं आ सम्यक्त्व ज छे. गाथा ३२६मां कह्युं छे के – सम्यक्त्वगुण सहित जे पुरुष प्रधान (श्रेष्ठ) छे ते देवोना इन्द्रोथी तेम ज
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मनुष्योना इन्द्रो चक्रवर्ती अदिथी वंदनीय थाय छे; अने व्रत रहित होय तोपण नाना प्रकारनां स्वगारदिकनां उत्तम सुख पामे छे. गाथा ३२७मां कह्युं छे के – सम्यग्द्रष्टि जीव दुगरतिना कारणरूप अशुभ कर्मोने बांधतो नथी, परंतु आगळना घणा भवोमां बांधेलां पापकर्मोनो पण नाश करे छे. अहो! सम्यक्त्वनो ए अनुपम महिमा! माटे श्रीगुरुनो उपदेश छे के – सर्व प्रथम पोताना सर्वस्व उपाय – उद्यम – यत्नथी पण एक मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्व अवश्य अंगीकार करवुं.
भाषानुवादना कर्ता पं. जयचंद्रजी छाबडा, आ ग्रंथनी पीठिका लखतां, लखे छे के — ‘त्यां प्रथम एक गाथामां मंगलाचरण करी बे गाथामां बार अनुप्रेक्षानां नाम कह्यां छे. ओगणीस गाथाओमां अध्रुवानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, नव गाथाओमां अशरणानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे , बेंताळीश गाथाओमां संसारानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, – तेमां चार गतिओनां दुःखोनुं, संसारनी विचित्रतानुं अने पंचपरावर्तनरूप परिभ्रमणनुं वर्णन छे, छ गाथाओमां एकत्वानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, त्रण गाथाओमां अन्यत्वानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, पांच गाथाओमां अशुचित्वानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, सात गाथाओमां आस्रवानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, सात गाथाओमां संवरानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, तेर गाथाओमां निर्जरानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे, एकसो ओगणसीत्तेर गाथाओमां लोकानुप्रेक्षानुं वर्णन कर्युं छे.
— तेमां, आ लोक छ द्रव्योनो समूह छे; अनंत आकाशद्रव्यना मध्यमां जे जीव-अजीव द्रव्य छे तेने ‘लोक’ कहे छे, ते ‘लोक’ पुरुषाकाररूप चौद राजु ऊंचो छे अने तेनुं घनरूप क्षेत्रफळ करतां त्रणसो तेंताळीश राजु थाय छे; अने ते जीव-अजीव द्रव्योथी भरेलो छे. त्यां प्रथम जीवद्रव्यनुं वर्णन कर्युं छे अने तेना अठ्ठाणुं जीवसमास कह्या छे, ते पछी पयारप्तिओनुं वर्णन कर्युं छे, लोकमां जे जीव ज्यां ज्यां रहे छे तेनुं वर्णन करी तेनी संख्या तेनुं अल्प- बहुत्व तथा तेनां आयु-कायनुं प्रमाण कह्युं छे. वळी कोई अन्यवादी जीवनुं स्वरूप अन्यप्रकाररूप माने छे तेनुं युक्तिपूर्वक निराकरण कर्युं छे. बहिरात्मा- अंतरात्मा-परमात्मानुं वर्णन करी कह्युं छे के अंतःतत्त्व तो जीव छे अने अन्य बधां बाह्यतत्त्व छे;
निरूपण छे – त्यां पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य तथा काळद्रव्यनुं
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वर्णन कर्युं छे. वळी द्रव्योना परस्पर कार्य-कारणभावनुं निरूपण करी कह्युं छे के — बधां द्रव्यो परिणामी, द्रव्य-पर्यायरूप, अनेकान्त स्वरूप छे, कारण के अनेकान्त विना कार्य-कारणभाव बनतो नथी अने कार्य-कारणभाव विना द्रव्य शानुं? ए प्रमाणे द्रव्य-पर्यायनुं स्वरूप कही पछी सर्व पदार्थोने जाणवावाळा प्रत्यक्ष-परोक्षस्वरूप ज्ञाननुं वर्णन कर्युं छे. अनेकान्तस्वरूप वस्तुने साधवावाळुं श्रुतज्ञान छे, अने तेना भेद नय छे. ते वस्तुने अनेक धर्मस्वरूप साधे छे, तेनुं वर्णन छे. वळी कह्युं छे के – प्रमाण-नयोथी वस्तुने साधी जे मोक्षमार्गने साधे छे एवा, तत्त्वने सांभळवावाळा, जाणवावाळा, भाववावाळा तथा धारण करवावाळा विरला छे, पण विषयोने वश थवावाळा घणा छे. — एम कही लोकभावनानुं कथन कर्युं छे.
त्यार पछी अढार गाथाओमां ‘बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा’नुं वर्णन कर्युं छे. तेमां संसारी जीव निगोदथी मांडीने अनेक पर्याय सदा पाम्या करे छे, जे सर्व सुलभ छे; परंतु मात्र एक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप मोक्षमार्ग पामवो महा दुर्लभ छे – एम कह्युं छे.
त्यार पछी एकसो छत्रीस गाथाओमां ‘धर्मानुप्रेक्षा’नुं वर्णन कर्युं छे. त्यां नेवुं गाथाओमां श्रावकधर्मनुं वर्णन छे. तेमां छव्वीस गाथाओमां अविरत- सम्यग्द्रष्टिनुं वर्णन छे, बे गाथाओमां दर्शनप्रतिमानु, एकतालीस गाथाओमां व्रतप्रतिमानुं (श्रावकनां बार व्रतोनुं), बे गाथाओमां सामयिकप्रतिमानुं, छ गाथाओमां प्रोषधप्रतिमानुं, त्रण गाथाओमां सचित्तत्यागप्रतिमानुं, बे गाथाओमां रत्रिभोजनत्यागप्रतिमानुं, एक गाथामां ब्रह्मचर्यप्रतिमानुं, एक गाथामां आरंभविरतिप्रतिमानुं, बे गाथाओमां परिग्रहत्यागप्रतिमानुं, बे गाथाओमां अनुमतित्यागप्रतिमानुं अने बे गाथाओमां उद्दिष्टआहार- त्यागप्रतिमानुं वर्णन छे
बेंताळीश गाथाओमां मुनिधर्मनुं वर्णन छे. त्यां रत्नत्रययुक्त थई मुनि उत्तम क्षमदि दशलक्षणधर्मनुं पालन करे छे ते दशलक्षणधर्मनुं भिन्न भिन्न वर्णन कर्युं छे. अहिंसदि धर्मनी महत्तानुं वर्णन कर्युं छे, त्यां कह्युं छे के — धर्म सेववो, पण ते पुण्यफळना अर्थे न सेववो, परंतु मात्र मोक्ष-अर्थे सेववो, धर्ममां शंकदि आठ दूषण न राखवां, पण निःशंकितदि आठ अंग सहित धर्म सेववो. — ए वगेरे भिन्न भिन्न वर्णन छे. अंतमां धर्मना फळनुं माहात्म्य वर्णवीने धर्मानुप्रेक्षानुं कथन समाप्त कर्युं छे.
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त्यार पछी आ धर्मानुप्रेक्षानी चूलिकारूपे बार प्रकारनां तपनुं एकावन गाथामां भिन्नभिन्नवर्णन कर्युं छे. अने छेल्ले त्रण गाथाओमां कर्ताए पोतानुं कर्तव्य प्रगट करी अंतमंगळ द्वारा आ ग्रंथ समाप्त कर्यो छे. ए प्रमाणे बधीय मळीने चारसो एकाणुं गाथाप्रमाण आ ग्रंथ छे.
आ प्रस्तुत अनुप्रेक्षाग्रंथ ‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’ नामथी प्रसिद्ध छे. तेना प्रणेता वीतराग दिगंबर जैन संत बाळब्रह्मचारी श्री ‘स्वामी कुमार’ (गाथा ४८९) अपरनाम स्वामी कर्तिकेय छे. तेमना गुरुनुं नाम विनयसेन हतुं. ‘कुमार’ नामना अनेक आचार्य तेमज विद्वान थई गया छे. तेमां आ अनुप्रेक्षा-ग्रंथना कर्ता ‘स्वामी कुमार’ लगभग इसवी सन १००८मां दक्षिण भारतने विषे विचरता हता – एवो विद्वानोनो मत छे. श्री शुभचंद्र आचार्य द्वारा वि. सं. १६१३मां रचित ‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’नी (३९४मी गाथानी) संस्कृत टीकामां ‘स्वामी कर्तिकेयमुनि क्रोंचराजाकृत उपसर्गने जीती देवलोक गया’ – एम जे उल्लेख आवे छे ते अनुमानतः इसवी सनना प्रारंभमां थयेल कोई बीजा कर्तिकेयमुनि हशे. — एम विद्वानोनुं मानवुं छे.
‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’ उपर रचायेली बे टीका उपलब्ध छे. एक श्री शुभचंद्राचार्यकृत संस्कृत-टीका अने बीजी जयपुरनिवासी पंडित जयचंद्रजी छाबडा (इसवी सन १८०९) द्वारा संस्कृत टीकाना आधारे रचित ढूंढारी भाषा टीका. वीर सं. २४४७, इ. स. १९२१मां ‘भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकशिनी संस्था’ द्वारा प्रकशित आ अनुप्रेक्षा-ग्रंथनी द्वितीयावृत्तिना आधारे कलोलनिवासी स्व. श्री सोमचंदभाई अमथालाल शाह द्वारा वि. सं. २००७मां आ गुजराती भाषानुवाद करवामां आव्यो छे. आ गुजराती भाषानुवादनुं प्रथम संस्करण ‘श्रीमद् राजचंद्र ज्ञानप्रसारक ट्रस्ट’, अमदावाद तरफथी वि. सं. २००७मां प्रकशित करवामां आव्युं हतुं. ते गुजराती संस्करणना आधारे, अध्यात्म ज्ञानवैराग्यनो अनुपम बोध आपनार सौराष्ट्रना आध्यत्मिक संत परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीए ज्ञान, वैराग्य ने भक्तिरसथी तरबोळ पोतानां स्वानुभवसुधास्यंदी अद्भुत प्रवचनोमां ‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’नां जे गहन रहस्यो खोल्यां छे ते श्रवण करीने मुमुक्षुहृदयोने अनुभव थयो के आ ग्रंथमां, द्रव्यस्वभावने यथावत् लक्षमां राखीने, स्वामी कुमार (स्वामी कर्तिकेय) मुनिवरनो विशुद्ध ज्ञान-वैराग्यरस,
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अमृतरसना अखंड झरणानी जेम नीतरी रह्यो छे. भवभीरु मुमुक्षु आत्माओने आत्यन्तिक भवनिवृत्तिनो सन्मार्ग सरळ अने सुगम भाषामां चींधतो होवाथी, आ ग्रंथ खरेखर अति-उपयोगी छे. तेथी घणा समयथी अप्राप्य एवा आ गुजराती भाषानुवादनी त्रीजी आवृत्ति श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट, सोनगढ तरफथी प्रकशित करवामां आवी छे.
‘स्वमिकर्तिकेयानुप्रेक्षा’ना आ पावन प्रकाशन द्वारा मुमुक्षुजीवो तेमां कहेलां ऊंडा तत्त्विक भावोने समजी पोतानो ज्ञानवैराग्यमय साधनापथ उज्ज्वळ करे ए ज मंगळ भावना. वि. सं. २०६३, श्रावण वद २, (बहेनश्री चंपाबेननी ९४मी जन्मजयन्ती)
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गाथा
१
वर्णन .............. २३ – २४
१ – ३
नाम .................... ३ – ४
वर्णन .............. २४ – २९
४ – २२
वर्णन .............. २९ – ३०
४ – ७
स्वरूप ................. ५ – ६
सुख नथी ............... ३०
८ – ११
अस्थिरपणुं ........... ७ – ८
जन्मे त्यां सुख मानी
ले छे. ................... ३१
१२ – १८
करवुं.................. ९ – १२
१९ – २०
लक्ष्मी सार्थक ..... १२ – १३
संबंध (एक भवमां १८
नातानी कथा) ..... ३२-३५
२१ – २२
२३ – ३१ २. अशरणानुप्रेक्षा १५-१८
स्वरूप .............. ३६-४१
२३
नथी ...................... १५
उपदेश ................... ४१
२४ – २६
द्रष्टान्त ............. १५ – १६
२७
अज्ञानी छे. .............१६
२८ – २९
थाय छे.................. १७
करवो अज्ञान छे ४६ – ४७
३० – ३१
शरण छे ................ १८
अशुचिभावना सफळ छे.४८
३२ – ७३ ३. संसारानुप्रेक्षा १९-४१
३२ – ३३
योग ज आस्रव छे ... ४९
३४ – ३९
वर्णन .............. २० – २२