Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Kartikeyanupreksha; Mangalacharan; Gatha: 1-27 ; 1. Adhruvanupreksha; 2. Asharananupreksha.

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गाथा

विषय
पृष्ठ
गाथा
विषय
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९०

पुण्य-पापना भेदथी
आस्रवना बे प्रकार ... ५०
१४२
विकलत्रय जीवोनां स्थान८६
१४३
अढी-द्वीप बहारना
तिर्यंचोनी स्थिति ...... ८७

९१९१

मंद तीव्र कषायनां
द्रष्टांत .................... ५१
१४४
जलचर जीवोनां स्थान८७

९३९४

आस्रवभावना कोने निष्फळ
सफळ .................... ५२
१४५१४६ भवनत्रिक, कल्पवासी ने
नारकीओनां स्थान८७८८

९५१०१

८. संवरानुप्रेक्षा
५३५५
१४७१५१ तेज, वात, पृथ्वी अदि

९५९६

संवरना नाम अने हेतु५३
जीवोनी संख्या ८८९०
-

९७९९

गुप्ति, समिति, धर्म,
अनुप्रेक्षा, चरित्रनुं
स्वरूप ................... ५४
१५२
सान्तर
निरन्तरनुं कथन ९०
१५३१६० संख्या-अपेक्षाए
जीवोनां अल्पबहुत्वनुं
कथन .............. ९१
९३

१००-१०१ संवरशून्यने संसारभ्रमण

अने आत्मनिष्ठने ..........
संवरस्फुरण.............. ५५
१६११६५ सर्वजीवोनां उत्कृष्ट
जघन्य आयुष्य ९१९५

१०२११४

९.निर्जरानुप्रेक्षा
५६६२
१६६१७५ जीवोनां शरीरोनी उत्कृष्ट

१०२१०५निर्जरानुं कारण, स्वरूप,

जघन्य अवगाहना ९५९९
भेद अने वृद्धि.... ५६-५८
१७६
जीवनुं लोकप्रमाणपणुं अने

१०६१०८ निर्जरानी वृद्धिनां स्थान ५८

देहप्रमाणपणुं .......... ९९

१०९११४अधिक निर्जरा कोने थाय

१७७
जीव सर्वथा सर्वगत
नथी ................... १००
छे? ................ ५९६२
१७८१८० गुण-गुणी प्रदेशथी

११५२८३ १०. लोकानुप्रेक्षा

६३१५२
अभिन्न छे, भिन्न .......
मानवामां दोष१००
१०१

११५१२० लोकाकाशनुं स्वरूप तथा

विस्तार ........... ७०७३
१८११८४ जीव पंचभूतोनो विकार
होवानो निषेध तथा तेनी
यथातथ सिद्धि१०१
१०३

१२१

‘लोक’ शब्दनी निरुक्ति ७३

१२२१३३ जीवोना भेद .... ७३

८१
१८५१८७ देह अने जीवमां

१३४१३८ पयारप्तिनुं वर्णन . ८१

८४
एकत्व भासवानुं
कारण ........ १०३
१०४

१३९१४१ प्राणोनुं स्वरूप, संख्या

अने स्वामी...... ८५८६

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गाथा

विषय
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गाथा
विषय
पृष्ठ
२२०२२१ व्यवहारकाळ तथा तेनी

१८८१९१ जीव स्वयं कर्ता, भोक्ता,

संख्या ........ ११९१२०
पुण्य-पापने तीर्थ
छे. ........... १०५
१०६
२२२-२२३ कारण-कार्यनुं निरूपण१२१
२२४
२२५ अनेकांतात्मक वस्तुने ज ....

१९२१९९ जीवना

बहिरात्मा,
-
अथरक्रियाकारीपणुं १२१
१२२
अंतरात्मा ने परमात्मा
२२६२२८ सर्वथा एकान्तमां
त्रण भेद तथा तेमनुं
स्वरूप ....... १०७
११०
अथरक्रियाकरित्वनो
अभाव ...... १२२
१२३

२००२०१ जीवने अनदिथी

२२९२३२ पूर्व-उत्तर भावमां
सर्वथा शुद्ध मानवानो
निषेध ................. १११
कारणकार्यपणुं १२३१२५
२३३-२३५ सर्वथा अन्य, एक,

२०२२०३ अशुद्धता

शुद्धतानुं
अणुमात्र मानवामां
दोष .......... १२५
१२६
कारण अने बंधनुं
स्वरूप ................ ११२
२३६
सर्व द्रव्योमां
भिन्नभिन्नपणुं..... १२७

२०४२०५ जीव ज उत्तम तत्त्व छे

शाथी?....... ११२११३
२३७२३९ द्रव्यनुं गुण-पर्याय ने

२०६२०७ पुद्गलद्रव्यनुं

उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यथी .......
युक्तपणुं ..... १२७
१२८
स्वरूप ....... ११३११४

२०८२१० पुद्गलने जीवनुं ने

२४०-२४२ द्रव्य, पर्याय ने गुणनुं
जीवने अन्य जीवनुं
उपकारीपणुं . ११४
११५
स्वरूप ....... १२९१३०
२४३२४४ द्रव्यमां अविद्यमान

२११

पुद्गलनी कोई अपूर्व
शक्ति ................. ११५
पर्यायनी ज उत्पत्ति
काळदि
लब्धिथी ..... १३०
१३१

२१२२१६ धर्म-अधर्म-आकाश-काळनुं

स्वरूप ....... ११६११८
२४५
द्रव्य अने पर्यायने कथंचित्
भेदाभेद .............. १३१

२१७२१८ परिणामनुं कारण द्रव्य

छे, अन्य तो निमित्तमात्र
छे ............ ११८
११९
२४६
द्रव्य अने पर्यायमां सर्वथा
भेद मानवामां दोष १३२

२१९

बधां द्रव्यो काळदि
लब्धि सहित छे. ... ११९
२४७२४९ विज्ञान-अद्वैत मतमां
दोषनुं निरूपण१३२१३३

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गाथा
विषय
पृष्ठ

गाथा

विषय
पृष्ठ
२८५
त्रसपणुं चिंतामणि जेवुं
दुर्लभ ................. १५३

२५०२५२ नस्तिक महाअसत्यवादी

छे ............ १३३१३५
२८६२८७ त्रसमां पण पंचेन्द्रियपणुं

२५३२६० सामान्य-विशेष

दुर्लभ ................. १५४
ज्ञाननुं स्वरूप१३५१३८
२८८२८९ क्रूर परिणामीने नरक

२६१

अनेकांतस्वरूप वस्तुने
कथंचित् एकान्तपणुं १३९
गति; त्यांथी नीकळी ......
तिर्यंचनां दुःख ...... १५५

२६२

श्रुतज्ञान परोक्षपणे सर्व
वस्तुने प्रकाशे छे. .. १४०
२९०२९९ मनुष्यत्व, आर्यत्व, उच्च
कुळ, नीरोगपणुं,
सत्समागम, सम्यक्त्व,
चरित्र वगेरे पामवुं
अनुक्रमे दुर्लभ
छे. ........... १५५-१५९

२६३२६५ श्रुतज्ञानना भेदरूप नयोनुं

स्वरूप ....... १४०१४१

२६६

सापेक्ष ते सुनय अए
निरपेक्ष ते दुर्नय.... १४२

२६७

अनुमान प्रमाणनुं
स्वरूप ................ १४२
३००
दुर्लभ मनुष्यपणुं
पामी विषयोमां रमनार
राखने माटे रत्नने
बाळे छे .............. १५९

२६८२७८ नयोना भेद (नैगम

अदि) ....... १४३१४९

२७९२८० तत्त्वनुं श्रवण, ज्ञान,

३०१
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप
बोधीने दुर्लभमां दुर्लभ
जाणी तेनो महान आदर
करो.................... १५९
धारण, चिंतवन करवावाळा
विरला छे; तत्त्वनुं ग्रहण
करनार तत्त्वने जाणे
छे ..................... १५०
३०२४३७ १२. धार्मानुप्रेक्षा

२८१२८२ अज्ञानी स्त्री-अदिने

१६१२५०
वश थाय छे. ज्ञानी
नहि. .................. १५१
३०२३०४ सर्वज्ञ अने तेमना द्वारा
उपदिष्ट द्विविध
धर्म............१६१
१६२

२८३

लोकानुप्रेक्षाना चिंतवननुं
माहात्म्य ............. १५१
३०५३०६ गृहस्थधर्मना बार

२८४३०१ ११. बोधिादुर्लभानुप्रेक्षा

भेद ................... १६३
१५३१६०
३०७
सम्यक्त्व पामवानी
योग्यता ............... १६३

२८४

निगोदथी नीकळी
स्थावरपणुं दुर्लभ... १५३

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गाथा

विषय
पृष्ठ गाथा
विषय
पृष्ठ

३०८३०९ त्रणे प्रकारनां

३२५३२७ सम्यक्त्वनुं
सम्यक्त्व केवी रीते
थाय? .........१६४
१६५
माहात्म्य .... १७८१७९
३२८३९० अगियार प्रतिमानुं
स्वरूप ....... १७९२१४

३१०

बे सम्यक्त्व, अनंतानुबंधी
विसंयोजन अने देशव्रत
उत्कृष्ट असंख्य वार ग्रहे
छोडे ....................१६६
३९१
अंत समये आराधना
करवानुं फळ २१५
३९२४०८ उत्तम क्षमदि मुनिधर्मनुं
वर्णन
२१८२३४

३११३१२ तत्त्वार्थश्रद्धान निरूपण१६६

४०९४१३ केवळ पुण्यने अर्थे

३१३३१७ सम्यग्द्रष्टिना

धर्म अंगीकार न
करवो २३५-३२७
परिणाम..... १७११७३

३१८

मिथ्याद्रष्टिनुं स्वरूप १७४
४२४
सम्यक्त्वना निःशंकितदि
आठ गुण

३१९३२० व्यंतरदि कांई आपता

२४४
नथी .......... १७५१७६
४२५४२६ निःशंकितदि देव गुरुमां
लागु पाडवा २४५

३२१३२२ जन्म-मरण, दुःख-सुख,

४२७४३४ धर्मनुं
रोग, दरिद्र वगेरे
संबंधमां सम्यग्द्रष्टिनां
विचार ................ १७६
माहात्म्य २४६-२४८
४३५४३६ धर्म रहितनी निंदा २४९
४३७
धर्म आचरो ने पाप
छोडो

३२३

पूर्वोक्त गाथा प्रमाणे जे
जाणे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि;
शंका करे ते
मिथ्याद्रष्टि ........... १७७
२५०
४३८४८८ बार प्रकारनां तपनुं
वर्णन
२५१२८६
४८९
ग्रंथरचनानुं प्रयोजन २८३

३२४

आज्ञासम्यक्त्वनुं
४९०
अनुप्रेक्षानुं फळ २८४
स्वरूप ................ १७७
४९१
अन्त्य मंगल २८४

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श्रीपरमात्मने नमः।
स्वमिकर्त्तिकेयानुप्रेक्षा
गुजराती भाषानुवाद
मंगलाचरण
(दोहा)
प्रथम ॠषभ जिन धर्मकर, सन्मति चरम जिनेश;
विघनहरण मंगलकरण, भवतम-दुरित-दिनेश. १.
वाणी जिनमुखथी खरी, पडी गणधिप-कान;
अक्षर-पदमय विस्तरी, करहि सकल कल्याण. २.
गुरु गणधर गुणधर सकल, प्रचुर परंपर और;
व्रततपधर तनुनगनधर, वंदो वृष शिरमौर. ३.
स्वामी कर्त्तिकेय मुनि, बारह भावना भाय;
कर्युं कथन विस्तारथी, प्राकृत-छंद बनाय. ४.
संस्कृत टीका तेहनी, करी सुघर शुभचंद्र;
सुगम-देशभाषामयी, करुं नाम जयचंद्र. ५.
भणो भणावो भव्यजन, यथाज्ञान मनधार;
करो निर्जरा कर्मनी, वार वार सुविचार. ६.

ए प्रमाणे देव-शास्त्र-गुरुने नमस्काररूप मंगलाचरणपूर्वक प्रतिज्ञा


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करी स्वमिकर्त्तिकेयानुप्रेक्षा नामना ग्रंथनी देशभाषामय वचनिका करीए छीए; त्यां संस्कृत टीका अनुसार मारी बुद्धि प्रमाणे गाथानो संक्षेपमां अर्थ लखीश; तेमां कोई ठेकाणे भूल होय तो विशेष बुद्धिमान सुधारी लेशो*.

श्रीमान् स्वामी कर्त्तिकेयाचार्य, पोतानां ज्ञान-वैराग्यनी वृद्धि थवी, नवीन श्रोताजनोने ज्ञान-वैराग्य ऊपजवां तथा विशुद्धता थवाथी पापकर्मनी निर्जरा, पुण्यनुं उपार्जन, शिष्टाचारनुं पालन अने निर्विध्नपणे ग्रंथनी समप्ति इत्यदि अनेक भला फळनी इच्छापूर्वक पोताना इष्टदेवने नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी प्रथम गाथासूत्र कहे छेः

तिहुवणतिलयं देवं वंदित्ता तिहुवणिंदयपरिपुज्जं
वोच्छं अणुपेहाओ भवियजणाणंदजणणीओ ।।।।
त्रिभुवनतिलकं देवं वंदित्वा त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यं
वक्ष्ये अनुप्रेक्षाः भविकजनानन्दजननीः ।।।।

अर्थःत्रण भुवनना तिलक अने त्रण भुवनना इन्द्रोथी पूज्य एवा देवने नमस्कार करी हुं भव्यजीवोने आनंद उपजाववावाळी अनुप्रेक्षा कहीश.

भावार्थःअहीं ‘देव’ एवी सामान्य संज्ञा छे. त्यां क्रीडा, विजिगीषा, द्युति, स्तुति, मोद, गति, कांति अदि क्रिया करे तेने देव कहेवामां आवे छे. त्यां सामान्यपणे तो चार प्रकारना देव वा कल्पित देवोने पण (देव) गणवामां आवे छे. तेमनाथी (जिनदेवने) भिन्न दर्शाववा माटे अहीं ‘त्रिभुवनतिलकं’ एवुं विशेषण आप्युं छे. तेनाथी अन्य देवनो व्यवच्छेद (निराकरणखंडन) थयो. *अहीं भाषानुवादक स्वर्गीय पं. जयचंद्रजीए समस्त ग्रंथनी संक्षिप्त सूचनारूप पीठिका लखी छे, पण तेने अहीं नहि मूकतां आधुनिक प्रथानुसार अमे भूमिकामां (प्रस्तावनामां) लखी छे.


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वळी त्रणभुवनना तिलक तो इन्द्र पण छे, एटले तेनाथी (जिनदेवने) भिन्न दर्शाववा माटे ‘त्रिभुवनेंद्रपरिपूज्यं’ एवुं विशेषण अहीं आप्युं; तेनाथी त्रण भुवनना इन्द्रो वडे पण पूजनीक एवा देव छे तेमने अहीं नमस्कार कर्या छे.

अहीं आ प्रमाणे समजवुं केएवुं देवपणुं तो श्री अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, अने साधुए पांच परमेष्ठीमां ज संभवे छे, कारण केपरम स्वात्मजनित आनंद सहित क्रीडा, कर्मने जीतवारूप विजिगीषा, स्वात्मजनित प्रकाशरूप द्युति, स्वस्वरूपनी स्तुति, स्वस्वरूपमां परम प्रमोद, लोकालोकव्याप्तरूप गति अने शुद्ध स्वरूपमां प्रवृत्तिरूप कांति इत्यदि देवपणानी एकदेश वा सर्वदेशरूप समस्त उत्कृष्ट क्रिया तेमनामां ज होय छे तेथी सर्वोत्कृष्ट देवपणुं एमां ज आव्युं, एटले एमने ज मंगलरूप नमस्कार करवा योग्य छे.

‘मं’ एटले पाप, तेने ‘गल’ एटले गाळे, तथा ‘मंग’ एटले सुख तेने ‘ल’ एटले लतिददति अर्थात् आपे तेने ‘मंगल’ कहीए छीए. एवा देवने नमस्कार करवाथी शुभ परिणाम थाय छे अने तेनाथी पापनो नाश थाय छेशांतभावरूप सुख प्राप्त थाय छे.

वळी अनुप्रेक्षानो सामान्य अर्थ तो वारंवार चिंतवन करवुं ए छे; पण चिंतवन तो अनेक प्रकारनां छे अने तेने करवावाळा पण अनेक छे. तेमनाथी भिन्न दर्शाववा माटे अहीं ‘भव्यजनानंदजननीः’ एवुं विशेषण आप्युं छे. तेथी जे भव्यजीवोने मोक्षप्रप्ति निकट आवी होय तेमने आनंद उपजाववावाळी एवी अनुप्रेक्षा कहीश.

बीजुं अहीं ‘अनुप्रेक्षाः’ एवुं बहुवचनरूप पद छे, त्यां अनुप्रेक्षा सामान्य चिंतवन एक प्रकाररूप छे तोपण (विशेषपणे तेना) अनेक प्रकार छे. भव्यजीवोने जे सांभळतां ज मोक्षमार्गमां उत्साह ऊपजे एवा चिंतवनना संक्षेपताथी बार प्रकार छे. तेनां नाम तथा भावनानी प्रेरणा बे गाथासूत्रोमां कहे छेः


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अद्ध्रुव असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं
आसव-संवरणामा णिज्जर-लोयाणुपेहाओ ।।।।
इय जणिऊण भावह दुल्लह-धम्माणुभावणा णिच्चं
मणवयणकायसुद्धी एदा उद्देसदो भणिया ।।।। युग्मम्
अध्रुव अशरणं भणिताः संसारमेकमन्यमअशुचित्वम्
आस्रवसंवरनामा निर्जरालोकानुप्रेक्षाः ।।
इति ज्ञात्वा भावयत दुर्लभधर्मानुभावनाः नित्यम्
मनोवचनकायशुद्धया एताः उद्देशतः भणिताः ।।

अर्थःहे भव्यात्मन्? आटलां जे अनुप्रेक्षानां नाम जिनदेव कहे छे. तेने (सम्यक् प्रकारे) जाणीने मन-वचन-काय शुद्ध करी आगळ कहीशुं ते प्रमाणे तमे निरंतर भावो (चिंतवो). ते (नाम) क्यां छे? अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ अने धर्मए बार छे.

भावार्थःए बार भावनानां नाम कह्यां, तेनुं विशेष अर्थरूप कथन तो आगळ यथास्थाने थशे ज; वळी ए नाम सार्थक छे. तेनो अर्थ शो? अध्रुव तो अनित्यने कहीए छीए, जेमां शरणपणुं नथी ते अशरण छे, परिभ्रमणने संसार कहीए छीए, ज्यां बीजुं कोई नथी ते एकत्व छे, ज्यां सर्वथी जुदापणुं छे ते अन्यत्व छे, मलिनताने अशुचित्व कहीए छीए, कर्मनुं आववुं ते आस्रव छे, कर्मास्रव रोकवो ते संवर छे, कर्मनुं खरवुं ते निर्जरा छे, जेमां छ द्रव्योनो समुदाय छे ते लोक छे, अति कठणताथी प्राप्त करीए ते दुर्लभ (बोधिदुर्लभ) छे अने संसारथी जीवोनो उद्धार करे ते वस्तुस्वरूपदिक धर्म छे; ए प्रमाणे तेनो अर्थ छे. हवे प्रथम अध्रुवानुप्रेक्षा कहे छेः

पाठांतरः दस दो य भणिया हु।


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१. अधा्रुवानुप्रेक्षा
जं किंचि वि उप्पप्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण
परिणामसरूवेण वि ण य किंचि वि सासयं अत्थि ।।।।
यत्किंचिदपि उत्पन्नं तस्य विनाशो भवति नियमेन
परिणामस्वरूपेणपि न च किंचिदपि शाश्वतमस्ति ।।।।

अर्थःजे कांई उत्पन्न थयुं तेनो नियमथी नाश थाय छे अर्थात् परिणामस्वरूपथी तो कोई पण (वस्तु) शाश्वत नथी.

भावार्थःसर्व वस्तु सामान्य-विशेषस्वरूप छे; त्यां सामान्य तो द्रव्यने कहेवामां आवे छे तथा विशेष, गुण-पर्यायने कहेवामां आवे छे. हवे द्रव्यथी तो वस्तु नित्य ज छे, गुण पण नित्य ज छे; अने पर्याय छे ते अनित्य छे, तेने परिणाम पण कहेवामां आवे छे. आ जीव पर्यायबुद्धिवाळो होवाथी पर्यायने ऊपजती-विणसती देखीने हर्ष-शोक करे छे तथा तेने नित्य राखवा इच्छे छे; अने ए अज्ञान वडे ते व्याकुळ थाय छे. तेथी तेणे आ भावना (अनुप्रेक्षा) चिंतववी योग्य छेः

हुं द्रव्यथी शाश्वत आत्मद्रव्य छुं, आ ऊपजे छेविणसे छे ते पर्यायनो स्वभाव छे; तेमां हर्ष-विषाद शो? मनुष्यपणुं छे ते जीव अने पुद्गलना संयोगजनित पर्याय छे अने धन-धान्यदिक छे ते पुद्गलना परमाणुओनो स्कंधपर्याय छे, एटले तेनुं मळवुंविखरावुं नियमथी अवश्य छे, छतां तेमां स्थिरतानी बुद्धि करे छे ए ज मोहजनित भाव छे. माटे वस्तुस्वरूप जाणी तेमां हर्ष-विषाददिरूप न थवुं. आगळ तेने ज विशेषताथी कहे छेः

जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं
लच्छी विणाससहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह ।।।।

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जन्म मरणेन समं सम्पद्यते यौवनं जरासहितम्
लक्ष्मीः विनाशसहिता इति सर्वं भंगुरं जानीहि ।।।।

अर्थःहे भव्य! आ जन्म छे ते तो मरण सहित छे, यौवन छे ते वृद्धावस्था सहित ऊपजे छे अने लक्ष्मी छे ते विनाश सहित ऊपजे छे; ए प्रमाणे सर्व वस्तुने क्षणभंगुर ज जाण!

भावार्थःजेटली अवस्थाओ जगतमां छे तेटली बधीय प्रतिपक्षभाव सहित छे छतां आ जीव, जन्म थाय त्यारे तेने स्थिर जाणी हर्ष करे छे अने मरण थाय त्यारे तेने गयो मानी शोक करे छे. ए प्रमाणे इष्टनी प्रप्तिमां हर्ष, अप्रप्तिमां विषाद तथा अनिष्टनी प्रप्तिमां विषाद अने अप्रप्तिमां हर्ष करे छे; ए सर्व मोहनुं माहात्म्य छे पण ज्ञानीए तो समभावरूप रहेवुं.

अथिरं परियणसयणं पुत्तकलत्तं सुमित्तलावण्णं
गिहगोहणाइ सव्वं णवघणविंदेण सरिच्छं ।।।।
अस्थिर परिजनस्वजनं पुत्रकलत्रं सुमित्रलावण्यम्
गृहगोधनदि सर्वं नवघनवृन्देन सदृशम् ।।।।

अर्थःजेम नवीन मेघनां वादळ तत्काळ उदय पामीने विलय पामी जाय छे तेवी ज रीते आ संसारमां परिवार, बंधुवर्ग, पुत्र, स्त्री, भला मित्रो, शरीरनी सुंदरता, घर अने गोधन अदि समस्त वस्तुओ अस्थिर छे.

भावार्थःए सर्व वस्तुने अस्थिर जाणी तेमां हर्ष-विषाद न करवो.

सुरधणुतडिव्व चवला इंदियविसया सुभिच्चवग्गा य
दिट्ठपणट्ठा सव्वे तुरयगया रहवरादी य ।।।।
सुरधनुस्तडिद्वच्चपला इन्द्रियविषयाः सुभृत्यवर्गाश्च
दृष्टप्रणष्टाः सर्वे तुरगगजाः रथवरादयश्च ।।।।

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अर्थःआ जगतमां इन्द्रियोना विषयो छे ते इन्द्रधनुष अने विजळीना चमकार जेवा चंचळ छे; प्रथम देखाय पछी तुरत ज विलय पामी जाय छे. वळी तेवी ज रीते भला चाकरोनो समूह अने सारा घोडा-हाथी-रथ छे ते सर्व वस्तु पण ए ज प्रमाणे छे.

भावार्थःआ जीव, सारा सारा इन्द्रियविषयो अने उत्तम नोकर, घोडा, हाथी अने रथदिकनी प्रप्तिथी सुख माने छे परंतु ए सर्व क्षणभंगुर छे. माटे अविनाशी सुखनो उपाय करवो ज योग्य छे.

हवे बंधुजनोनो संयोग केवो छे ते द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः

पंथे पहियजणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्तं
बंधुजणाणं च तहा संजोओ अद्ध्रुओ होइ ।।।।
पथि पथिकजनानां यथा संयोगो भवति क्षणमात्रम्
बन्धुजनानां च तथा संयोगः अध्रुवः भवति ।।।।

अर्थःजेम पंथमां पथिकजनोनो संयोग क्षणमात्र छे, ते ज प्रमाणे संसारमां बंधुजनोनो संयोग पण अस्थिर छे.

भावार्थःआ जीव, बहोळो कुटुंब-परिवार पामतां अभिमानथी तेमां सुख माने छे अने ए मद वडे पोताना स्वरूपने भूले छे, पण ए बंधुवगारदिनो संयोग मार्गना पथिकजन जेवो ज छे, थोडा ज समयमां विखराई जाय छे. माटे एमां ज संतुष्ट थईने स्वरूपने न भूलवुं.

हवे आगळ देहना संयोगनी अस्थिरता दर्शावे छेः

अइललिओ वि देहो ण्हाणसुयंधेहिं विविहभक्खेहिं
खणमित्तेण वि विहडइ जलभरिओ आमघडओ व्व ।।।।
अतिललितः अपि देहः स्नानसुगन्धैः विविधभक्ष्यैः
क्षणमात्रेण अपि विघटते जलभृतः आमघटः इव ।।।।

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अर्थःजुओ तो खरा आ देह, स्नान अने सुगंधी वस्तुओ वडे सजाववा छतां पण तथा अनेक प्रकारनां भोजनदि भक्ष्यो वडे पालन करवा छतां पण, जळ भरेला काचा घडानी माफक, क्षणमात्रमां विलय पामी जाय छे.

भावार्थःएवा आ शरीरमां स्थिरबुद्धि करवी ते मोटी भूल छे.

आगळ लक्ष्मीनुं अस्थिरपणुं दर्शावे छेः

जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं
सा किं बंधेइ रइं इयरजणाणं अपुण्णाणं ।।१०।।
या शाश्वता न लक्ष्मीः चक्रधराणां अपि पुण्यवताम्
सा किं बध्नति रतिं इतरजनानां अपुण्यानाम् ।।१०।।

अर्थःजे लक्ष्मी अर्थात् संपदा (उत्कृष्ट) पुण्यकर्मना उदय सहित जे चक्रवर्ती तेमने पण शाश्वतरूप नथी तो अन्य जे पुण्योदय विनाना वा अल्पपुण्यवाळा पुरुषो तेनी साथे केम राग बांधे? अपितु न बांधे.

भावार्थःए संपदाना अभिमानथी आ प्राणी तेमां प्रीति करे छे ते वृथा छे.

आगळ ए ज अर्थने विशेषताथी कहे छेः

कत्थवि ण रमइ लच्छी कुलीणधीरे वि पंडिए सूरे
पुज्जे धम्मिट्ठे वि य सुरूवसुयणे महासत्ते ।।११।।
कुत्र अपि न रमते लक्ष्मीः कुलीनधीरे अपि पण्डिते शूरे
पूज्ये धर्मिष्ठ अपि च सरूपसुजने महासत्त्वे ।।११।।

अर्थःआ लक्ष्मीसंपदा कुळवान, धैर्यवान, पंडित, सुभट, पूज्य, धर्मात्मा, रूपवान, सुजन अने महा पराक्रमी इत्यदि कोई पुरुषोमां पण राचती नथी.


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भावार्थःकोई जाणे केहुं मोटा कुळनो छुं, मारे पेढी दर पेढीथी आ संपदा चाली आवे छे तो ते कयां जवानी छे? हुं धीरजवान छुं एटले केवी रीते गुमावीश? हुं पंडित छुंविद्यावान छुं, तो तेने कोण लई शकवानुं छे? ऊलटा मने तेओ आपशे ज; हुं सुभट छुं तेथी केवी रीते कोईने लेवा दईश? हुं पूजनिक छुं तेथी मारी पासेथी कोण लई शके? हुं धर्मात्मा छुं अने धर्मथी तो ते आवे छे, छतां जाय केवी रीते? हुं महा रूपवान छुं, मारुं रूप देखतां ज जगत प्रसन्न थाय छे, तो आ संपदा क्यां जवानी छे? हुं सज्जन अने परोपकारी छुं एटले ते क्यां जशे? तथा हुं महा पराक्रमी छुं, संपदाने वधारीश ज, छतीने वे क्यां जवा दईश?

ए सर्व विचारो मिथ्या छे;

कारण के आ संपदा जोत-जोतामां विलय पामी जाय छे, कोईनी राखी ते रहेती नथी.

हवे कहे छे केलक्ष्मी प्राप्त थई तेने शुं करीए? तेनो उत्तरः

ता भुंजिज्जउ लच्छी दिज्जउ दाणे दयापहाणेण
जा जलतरंगचवला दो तिण्ण दिणणि चिट्ठेइ ।।१२।।
तावत् भुज्यतां लक्ष्मीः दीयतां दाने दयाप्रधानेन
या जलतरङ्गचपला द्वित्रिदिननि चेष्टते ।।१२।।

अर्थःआ लक्ष्मी जलतरंगनी माफक चंचळ छे एटले ज्यां सुधी ते बेत्रण दिवस सुधी चेष्टा करे छेमोजूद छे त्यां सुधी तेने भोगवो वा दयाप्रधानी थईने दानमां आपो.

भावार्थःकोई कृपणबुद्धि आ लक्ष्मीने मात्र संचय करी स्थिर राखवा इच्छे छे तेने उपदेश छे केआ लक्ष्मी चंचळ छे, स्थिर रहेवानी नथी, माटे ज्यां सुधी थोडा दिवस ए विद्यमान (मोजूद) छे त्यां सुधी तेने प्रभुभक्ति अर्थे वा परोपकार अर्थे दानदिमां खरचो तथा भोगवो.


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प्रश्नःएने भोगववामां ते पाप उत्पन्न थाय छे ते पछी एने भोगववानो उपदेश अहीं शा माटे आपो छो?

समाधानःमात्र संचय करी राखवामां प्रथम तो ममत्व घणुं थाय छे तथा कोई कारणे ते विनाश पामी जाय ते वखते विषाद (खेद) घणो थाय छे अने वळी आसक्तपणाथी निरंतर कषायभाव तीव्र-मलिन रहे छे, परंतु तेने भोगववामां परिणाम उदार रहे छेमलिन रहेता नथी; वळी उदारतापूर्वक भोगसामग्रीमां खरचतां जगत पण जश करे छे त्यां पण मन उज्ज्वल (प्रसन्न) रहे छे, कोई अन्य कारणे ते विणसी जाय तो पण त्यां घणो विषाद थतो नथी इत्यदि, तेने भोगववामां पण, गुण थाय छे; परंतु कृपणने तो तेनाथी कांई पण गुण (फायदो) नथी, मात्र मननी मलिनतानुं ज ते कारण छे. वळी जे कोई तेनो सर्वथा त्याग ज करे छे तो तेने कांई अहीं भोगववानो उपदेश छे ज नहि.

जो पुण लच्छिं संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु
सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।।१३।।
यः पुनः लक्ष्मीं संचिनोति न च भुङ्क्ते नैव ददति पात्रेषु
सः आत्मानं वंचयति मनुजत्वं निष्फलं तस्य ।।१३।।

अर्थःपरंतु जे पुरुष लक्ष्मीनो मात्र संचय करे छे पण पात्रोने अर्थे आपतो नथी, तथा भोगवतो पण नथी, ते तो मात्र पोताना आत्माने ज ठगे छे; एवा पुरुषनुं मनुष्यपणुं निष्फळ छेवृथा छे.

भावार्थःजे पुरुषे, लक्ष्मी पामीने तेने मात्र संचय ज करीने पण दान के भोगमां न खरची, तो तेणे मनुष्यपणुं पामीने शुं कर्युं? मनुष्यपणुं निष्फळ ज गुमाव्युं, अने पोते ज ठगायो.

जो संचिऊण लच्छिं धरणियले संठवेदि अइदूरे
सो पुरिसो तं लच्छिं पाहाणसमणियं कुणदि ।।१४।।

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यः सचित्य लक्ष्मीं घरणीतले संस्थापयति अतिदूरे
सः पूरुषः तां लक्ष्मीं पाषाणसमनिकां करोति ।।१४।।

अर्थःजे पुरुष पोतानी संचित लक्ष्मीने घणे ऊंडे पृथ्वीतळमां दाटे छे ते पुरुष ए लक्ष्मीने पाषाण समान करे छे.

भावार्थःजेम मकानना पायामां पथ्थर नाखीए छीए तेम तेणे लक्ष्मी पण दाटी, तेथी ते पण पाषाण समान ज थई.

अणवरयं जो संचदि लच्छिं ण य देदि णेय भुंजेदि
अप्पणिया वि य लच्छी परलच्छीसमणिया तस्स ।।१५।।
अनवरतं यः संचिनोति लक्ष्मीं न च ददति नैव भुङ्क्ते
आत्मीया अपि च लक्ष्मीः परलक्ष्मीसमनिका तस्य ।।१५।।

अर्थःजे पुरुष लक्ष्मीनो निरंतर संचय ज करे छे पण नथी दान करतो के नथी भोगवतो, ते पुरुष पोतानी लक्ष्मीने पारकी लक्ष्मी जेवी करे छे.

भावार्थःलक्ष्मी पामीने जे दान के भोग करतो नथी तेने, ते लक्ष्मी पेलानी (तेना खरा मलिकनी) छे अने पोते तो मात्र रखेवाळ (चोकीदार) छे; ए लक्ष्मीने तो कोई बीजो ज भोगवशे.

लच्छीसंसत्तमणो जो अप्पाणं धरेदि कट्ठेण
सो राइदाइयाणं कज्जं साहेदि मूढप्पा ।।१६।।
लक्ष्मीसंसक्त मनाः यः आत्मानं धरति कष्टेन
स राजदायादीनां कार्यं साधयति मूढात्मा ।।१६।।

अर्थःजे पुरुष लक्ष्मीमां आसक्तचित्त थईने पोताना आत्माने कष्टमां राखे छे ते मूढात्मा मात्र राजाओनुं अने कुटुंबीओनुं ज कार्य साधे छे.

भावार्थःलक्ष्मीमां आसक्तचित्त थईने तेने कमावा माटे तथा


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तेनी रक्षा माटे जे अनेक कष्ट सहे छे ते पुरुषने मात्र फळमां कष्ट ज थाय छे; ए लक्ष्मीने तो कुटुंब भोगवशे के राजा लई जशे.

जो वड्ढारदि लच्छिं बहुविहबुद्धीहिं णेय तिप्पेदि
सव्वारंभं कुव्वदि रत्तिदिणं तं पि चिंतेदि ।।१७।।
ण य भुंजदि वेलाए चिंतावत्थो ण सुवदि रयणीये
सो दासत्तं कुव्वदि विमोहिदो लच्छितरुणीए ।।१८।।
यः वर्धापयति लक्ष्मीं बहुविधबुद्धिभिः नैव तृप्यति
सर्वारम्भं कुरुते रत्रिदिनं तमपि चिन्तयति ।।१७।।
न च भुङ्क्ते वेलायां चिन्तावस्थः न स्वपिति रजन्याम्
सः दासत्वं कुरुते विमोहितः लक्ष्मीतरुण्याः ।।१८।।

अर्थःजे पुरुष अनेक प्रकारनी कळाचतुराईबुद्धि वडे लक्ष्मीने मात्र वधारे जाय छे पण तृप्त थतो नथी, एना माटे असि, मसि अने कृषि अदि सर्व आरंभ करे छे, रत्रि-दिवस तेना ज आरंभने चिंतवे छे, वेळाए भोजन पण करतो नथी अने चिंतामग्न बनी रात्रीमां सूतो (ऊंघतो) पण नथी ते पुरुष लक्ष्मीरूप स्त्रीमां मोहित थयो थको तेनुं किंकरपणुं करे छे.

भावार्थःजे स्त्रीनो किंकर थाय तेने लोकमां ‘मोहल्या’ एवुं निंद्य नाम कहे छे. तेथी जे पुरुष निरंतर लक्ष्मीना अर्थे ज प्रयास करे छे ते पण लक्ष्मीरूप स्त्रीनो मोहल्या छे.

हवे, जे लक्ष्मीने धर्मकार्यमां लगावे छे तेनी प्रशंसा करे छेः

जो वड्ढमाणलच्छिं अणवरयं देदि धम्मकज्जेसु
सो पंडिएहिं थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ।।१९।।
यः वर्धमानलक्ष्मीं अनवरतं ददति धर्मकार्येषु
सः पण्डितैः स्तूयते तस्य अपि सफला भवेत् लक्ष्मीः ।।१९।।

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अर्थःजे पुरुष पुण्योदयथी वधती जती जे लक्ष्मी, तेने निरंतर धर्मकार्योमां आपे छे ते पुरुष पंडितजनो वडे स्तुति करवा योग्य छे अने तेनी ज लक्ष्मी सफळ छे.

भावार्थःलक्ष्मीने पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान अने परोपकार इत्यदि धर्मकार्योमां खरचवाथी ज ते सफळ छे अने पंडितजनो पण ते दातानी प्रशंसा करे छे.

एवं जो जणित्ता विहलियलोयाण धम्मजुत्ताणं
णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ।।२०।।
एवं यः ज्ञात्वा विफलितलोकेभ्यः धर्मयुक्तेभ्यः
निरपेक्षः तां ददति खलु तस्य भवेत् जीवितं सफलम् ।।२०।।

अर्थः जे पुरुष उपर कह्या प्रमाणे जाणीने धर्मयुक्त जे निर्धनजन छे तेमने, प्रत्युपकारनी वांछारहित थईने, ते लक्ष्मीने आपे छे तेनुं जीवन सफळ छे.

भावार्थःपोतानुं प्रयोजन साधवा अर्थे तो दान आपवावाळा जगतमां घणा छे, परंतु जे प्रत्युपकारनी वांछारहितपणे धर्मात्मा तथा दुःखी-दरिद्र पुरुषोने धन आपे छे तेवा विरला छे अने तेमनुं ज जीवित सफळ छे.

हवे आगळ मोहनुं माहात्म्य दर्शावे छेः

जलबुब्बुयसरिच्छं धणजोव्वणजीवियं पि पेच्छंता
मण्णंति तो वि णिच्चं अइबलिओ मोहमाहप्पो ।।२१।।
जलबुद्बुदसदृशं धनयौवनजीवितं अपि पश्यन्तः
मन्यन्ते तथपि नित्यं अतिबलिष्ठं मोहमाहात्म्यम् ।।२१।।

अर्थःआ प्राणी धन-यौवन-जीवनने जलना बुदबुदनी (परपोटा) माफक तुरत विलय पामी जतां जोवा छतां पण तेने नित्य माने छे ए ज मोटुं आश्चर्य छेए ज मोहनुं महा बळवान माहात्म्य छे.


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भावार्थःवस्तुनुं स्वरूप अन्यथा जणाववामां मद्यपान, ज्वरदि रोग, नेत्रविकार अने अंधकार इत्यदि अनेक कारणो छे, परंतु आ मोह तो ए सर्वथी पण बळवान छे, के जे प्रत्यक्ष वस्तुने विनाशीक देखे छे छतां तेने नित्यरूप ज मनावे छे. तथा मिथ्यात्व, काम, क्रोध, शोक इत्यदि बधा मोहना ज भेद छे. ए बधाय वस्तुस्वरूपमां अन्यथा बुद्धि करावे छे.

हवे आ कथनने संकोचे छेः

चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे
णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहए ।।२२।।
त्यक्त्वा महामोहं विषयान् ज्ञात्वा भंगुरान् सर्वान्
निर्विषयं कुरुत मनः येन सुखं उत्तमं लभध्वे ।।२२।।

अर्थःहे भव्यजीव! तुं समस्त विषयोने विनाशीक जाणीने महामोहने छोडी तारा अंतःकरणने विषयोथी रहित कर, जेथी तुं उत्तम सुखने प्राप्त थाय.

भावार्थःउपर कह्या प्रमाणे संसार, देह, भोग, लक्ष्मी इत्यदि सर्व अस्थिर दर्शाव्यां. तेमने जाणी जे पोताना मनने विषयोथी छोडावी, आ अस्थिरभावना भावशे ते भव्य जीव सिद्धपदना सुखने प्राप्त थशे.

(दोहरो)
द्रव्यदृष्टितैं वस्तु थिर, पर्यय अथिर निहरि
उपजत विनशत देखिकैं हरष विषाद निवरि ।।
इति अध्रुवानुप्रेक्षा समाप्त.
r

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२. अशरणानुप्रेक्षा
तत्थ भवे किं सरणं जत्थ सुरिंदाण दीसदे विलओ
हरिहरबंभादीया कालेण य कवलिया जत्थ ।।२३।।
तत्र भवे किं शरणं यत्र सुरेन्द्राणां दृश्यते विलयः
हरिहरब्रह्मदिकाः कालेन च कवलिताः यत्र ।।२३।।

अर्थःजे संसारमां देवोना इन्द्रोनो पण विनाश जोवामां आवे छे, ज्यां हरि अर्थात् नारायण, हर अर्थात् रुद्र अने ब्रह्मा अर्थात् विधाता तथा अदि शब्दथी मोटा मोटा पदवीधारक सर्व काळ वडे कोळियो बनी गया ते संसारमां शुं शरणरूप छे? कोई पण नहि.

भावार्थःशरण तेने कहेवाय के ज्यां पोतानी रक्षा थाय, पण संसारमां तो जेनुं शरण विचारवामां आवे ते पोते ज काळ पामतां नाश पामी जाय छे, त्यां पछी कोनुं शरण?

हवे तेनुं द्रष्टांत कहे छेः

सीहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि
तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि ।।२४।।
सिंहस्य क्रमे पतितं सारंगं यथा न रक्षति कः अपि
तथा मृत्युना च गृहीतं जीवं अपि न रक्षति कः अपि ।।२४।।

अर्थःजेम जंगलमां सिंहना पग तळे पडेला हरणने कोई पण रक्षण करवावाळुं नथी तेम आ संसारमां काळ वडे ग्रहायेला प्राणीने कोई पण रक्षण आपी शकतुं नथी.

भावार्थःजंगलमां सिंह कोई हरणने (पोताना) पगतळे पकडे त्यां तेनुं कोण रक्षण करे? ए ज प्रमाणे आ, काळनुं द्रष्टांत जाणवुं. हवे ए ज अर्थने द्रढ करे छे.


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जइ देवो वि य रक्खदि मंतो तंतो य खेत्तपालो य
मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खाया होंति ।।२५।।
यदि देवः अपि च रक्षति मन्त्रः तन्त्रः च क्षेत्रपालः च
म्रियमाणं अपि मनुष्यं तत् मनुजाः अक्षयाः भवन्ति ।।२५।।

अर्थःमरणने प्राप्त थता मनुष्यने जो कोई देव, मंत्र, तंत्र, क्षेत्रपाल अने उपलक्षणथी लोको जेमने रक्षक माने छे ते बधाय रक्षवावाळा होय तो मनुष्य अक्षय थई जाय अर्थात् कोई पण मरे ज नहि.

भावार्थःलोको जीववाने माटे देवपूजा, मंत्र-तंत्र अने औषधी अदि अनेक उपाय करे छे. परंतु निश्चयथी विचारीए तो कोई जीवता (शाश्वत) देखाता नथी, छतां निरर्थक ज मोहथी विकल्प उपजावे छे.

हवे ए ज अर्थने फरीथी द्रढ करे छेः

अइबलिओ वि रउद्दो मरणविहीणो ण दीसदे को वि
रक्खिज्जंतो वि सया रक्खपयारेहिं विविहेहिं ।।२६।।
अतिबलिष्ट अपि रौद्रः मरणविहीनः न दृश्यते कः अपि
रक्षमाणः अपि सदा रक्षाप्रकारैः विविधैः ।।२६।।

अर्थः आ संसारमां अति बळवान, अति रौद्रभयानक अने रक्षणना अनेक प्रकारोथी निरंतर रक्षण करवामां आवतो होवा छतां पण मरण रहित कोई पण देखातो नथी.

भावार्थःगढ, कोट, सुभट अने शस्त्र अदि रक्षाना अनेक प्रकारोथी उपाय भले करो परंतु मरणथी कोई बचतुं नथी अने सर्व उपायो विफळ (निष्फळ) जाय छे.

हवे परमां शरण कल्पे तेना अज्ञानने दर्शावे छेः

एवं पेच्छंतो वि हु गहभूयपिसायजोइणीजक्खं
सरणं मण्णइ मूढो सुगाढमिच्छत्तभावादो ।।२७।।