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गाथा
९०
आस्रवना बे प्रकार ... ५०
तिर्यंचोनी स्थिति ...... ८७
९१ – ९१
द्रष्टांत .................... ५१
९३ – ९४
सफळ .................... ५२
९५ – १०१
९५ – ९६
९७ – ९९
अनुप्रेक्षा, चरित्रनुं
स्वरूप ................... ५४
कथन .............. ९१ – ९३
१००-१०१ संवरशून्यने संसारभ्रमण
संवरस्फुरण.............. ५५
१०२ – ११४
१०२ – १०५निर्जरानुं कारण, स्वरूप,
१०६ – १०८ निर्जरानी वृद्धिनां स्थान ५८
१०९ – ११४अधिक निर्जरा कोने थाय
नथी ................... १००
११५ – २८३ १०. लोकानुप्रेक्षा
मानवामां दोष१०० – १०१
११५ – १२० लोकाकाशनुं स्वरूप तथा
यथातथ सिद्धि१०१ – १०३
१२१
१२२ – १३३ जीवोना भेद .... ७३
१३४ – १३८ पयारप्तिनुं वर्णन . ८१
कारण ........ १०३ – १०४
१३९ – १४१ प्राणोनुं स्वरूप, संख्या
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गाथा
१८८ – १९१ जीव स्वयं कर्ता, भोक्ता,
छे. ........... १०५ – १०६
२२४ – २२५ अनेकांतात्मक वस्तुने ज ....
१९२ – १९९ जीवना
स्वरूप ....... १०७ – ११०
अभाव ...... १२२ – १२३
२०० – २०१ जीवने अनदिथी
निषेध ................. १११
२०२ – २०३ अशुद्धता
दोष .......... १२५ – १२६
स्वरूप ................ ११२
भिन्नभिन्नपणुं..... १२७
२०४ – २०५ जीव ज उत्तम तत्त्व छे
२०६ – २०७ पुद्गलद्रव्यनुं
युक्तपणुं ..... १२७ – १२८
२०८ – २१० पुद्गलने जीवनुं ने
उपकारीपणुं . ११४ – ११५
२११
शक्ति ................. ११५
काळदि
लब्धिथी ..... १३० – १३१
२१२ – २१६ धर्म-अधर्म-आकाश-काळनुं
भेदाभेद .............. १३१
२१७ – २१८ परिणामनुं कारण द्रव्य
छे ............ ११८ – ११९
भेद मानवामां दोष १३२
२१९
लब्धि सहित छे. ... ११९
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गाथा
दुर्लभ ................. १५३
२५० – २५२ नस्तिक महाअसत्यवादी
२५३ – २६० सामान्य-विशेष
२६१
कथंचित् एकान्तपणुं १३९
तिर्यंचनां दुःख ...... १५५
२६२
वस्तुने प्रकाशे छे. .. १४०
सत्समागम, सम्यक्त्व,
चरित्र वगेरे पामवुं
अनुक्रमे दुर्लभ
छे. ........... १५५-१५९
२६३ – २६५ श्रुतज्ञानना भेदरूप नयोनुं
२६६
निरपेक्ष ते दुर्नय.... १४२
२६७
स्वरूप ................ १४२
पामी विषयोमां रमनार
राखने माटे रत्नने
बाळे छे .............. १५९
२६८ – २७८ नयोना भेद (नैगम
२७९ – २८० तत्त्वनुं श्रवण, ज्ञान,
बोधीने दुर्लभमां दुर्लभ
जाणी तेनो महान आदर
करो.................... १५९
विरला छे; तत्त्वनुं ग्रहण
करनार तत्त्वने जाणे
छे ..................... १५०
२८१ – २८२ अज्ञानी स्त्री-अदिने
नहि. .................. १५१
धर्म............१६१ – १६२
२८३
माहात्म्य ............. १५१
२८४ – ३०१ ११. बोधिादुर्लभानुप्रेक्षा
योग्यता ............... १६३
२८४
स्थावरपणुं दुर्लभ... १५३
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गाथा
३०८ – ३०९ त्रणे प्रकारनां
थाय? .........१६४ – १६५
३१०
विसंयोजन अने देशव्रत
उत्कृष्ट असंख्य वार ग्रहे
छोडे ....................१६६
करवानुं फळ २१५
३११ – ३१२ तत्त्वार्थश्रद्धान निरूपण१६६
३१३ – ३१७ सम्यग्द्रष्टिना
करवो २३५-३२७
३१८
आठ गुण
३१९ – ३२० व्यंतरदि कांई आपता
३२१ – ३२२ जन्म-मरण, दुःख-सुख,
संबंधमां सम्यग्द्रष्टिनां
विचार ................ १७६
छोडो
३२३
जाणे ते शुद्ध सम्यग्द्रष्टि;
शंका करे ते
मिथ्याद्रष्टि ........... १७७
३२४
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ए प्रमाणे देव-शास्त्र-गुरुने नमस्काररूप मंगलाचरणपूर्वक प्रतिज्ञा
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करी स्वमिकर्त्तिकेयानुप्रेक्षा नामना ग्रंथनी देशभाषामय वचनिका करीए छीए; त्यां संस्कृत टीका अनुसार मारी बुद्धि प्रमाणे गाथानो संक्षेपमां अर्थ लखीश; तेमां कोई ठेकाणे भूल होय तो विशेष बुद्धिमान सुधारी लेशो*.
श्रीमान् स्वामी कर्त्तिकेयाचार्य, पोतानां ज्ञान-वैराग्यनी वृद्धि थवी, नवीन श्रोताजनोने ज्ञान-वैराग्य ऊपजवां तथा विशुद्धता थवाथी पापकर्मनी निर्जरा, पुण्यनुं उपार्जन, शिष्टाचारनुं पालन अने निर्विध्नपणे ग्रंथनी समप्ति इत्यदि अनेक भला फळनी इच्छापूर्वक पोताना इष्टदेवने नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी प्रथम गाथासूत्र कहे छेः —
अर्थः — त्रण भुवनना तिलक अने त्रण भुवनना इन्द्रोथी पूज्य एवा देवने नमस्कार करी हुं भव्यजीवोने आनंद उपजाववावाळी अनुप्रेक्षा कहीश.
भावार्थः — अहीं ‘देव’ एवी सामान्य संज्ञा छे. त्यां क्रीडा, विजिगीषा, द्युति, स्तुति, मोद, गति, कांति अदि क्रिया करे तेने देव कहेवामां आवे छे. त्यां सामान्यपणे तो चार प्रकारना देव वा कल्पित देवोने पण (देव) गणवामां आवे छे. तेमनाथी (जिनदेवने) भिन्न दर्शाववा माटे अहीं ‘त्रिभुवनतिलकं’ एवुं विशेषण आप्युं छे. तेनाथी अन्य देवनो व्यवच्छेद (निराकरण – खंडन) थयो. *अहीं भाषानुवादक स्वर्गीय पं. जयचंद्रजीए समस्त ग्रंथनी संक्षिप्त सूचनारूप पीठिका लखी छे, पण तेने अहीं नहि मूकतां आधुनिक प्रथानुसार अमे भूमिकामां (प्रस्तावनामां) लखी छे.
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वळी त्रणभुवनना तिलक तो इन्द्र पण छे, एटले तेनाथी (जिनदेवने) भिन्न दर्शाववा माटे ‘त्रिभुवनेंद्रपरिपूज्यं’ एवुं विशेषण अहीं आप्युं; तेनाथी त्रण भुवनना इन्द्रो वडे पण पूजनीक एवा देव छे तेमने अहीं नमस्कार कर्या छे.
अहीं आ प्रमाणे समजवुं के — एवुं देवपणुं तो श्री अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, अने साधु – ए पांच परमेष्ठीमां ज संभवे छे, कारण के — परम स्वात्मजनित आनंद सहित क्रीडा, कर्मने जीतवारूप विजिगीषा, स्वात्मजनित प्रकाशरूप द्युति, स्वस्वरूपनी स्तुति, स्वस्वरूपमां परम प्रमोद, लोकालोकव्याप्तरूप गति अने शुद्ध स्वरूपमां प्रवृत्तिरूप कांति इत्यदि देवपणानी एकदेश वा सर्वदेशरूप समस्त उत्कृष्ट क्रिया तेमनामां ज होय छे तेथी सर्वोत्कृष्ट देवपणुं एमां ज आव्युं, एटले एमने ज मंगलरूप नमस्कार करवा योग्य छे.
‘मं’ एटले पाप, तेने ‘गल’ एटले गाळे, तथा ‘मंग’ एटले सुख तेने ‘ल’ एटले लति – ददति अर्थात् आपे तेने ‘मंगल’ कहीए छीए. एवा देवने नमस्कार करवाथी शुभ परिणाम थाय छे अने तेनाथी पापनो नाश थाय छे – शांतभावरूप सुख प्राप्त थाय छे.
वळी अनुप्रेक्षानो सामान्य अर्थ तो वारंवार चिंतवन करवुं ए छे; पण चिंतवन तो अनेक प्रकारनां छे अने तेने करवावाळा पण अनेक छे. तेमनाथी भिन्न दर्शाववा माटे अहीं ‘भव्यजनानंदजननीः’ एवुं विशेषण आप्युं छे. तेथी जे भव्यजीवोने मोक्षप्रप्ति निकट आवी होय तेमने आनंद उपजाववावाळी एवी अनुप्रेक्षा कहीश.
बीजुं अहीं ‘अनुप्रेक्षाः’ एवुं बहुवचनरूप पद छे, त्यां अनुप्रेक्षा – सामान्य चिंतवन एक प्रकाररूप छे तोपण (विशेषपणे तेना) अनेक प्रकार छे. भव्यजीवोने जे सांभळतां ज मोक्षमार्गमां उत्साह ऊपजे एवा चिंतवनना संक्षेपताथी बार प्रकार छे. तेनां नाम तथा भावनानी प्रेरणा बे गाथासूत्रोमां कहे छेः —
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अर्थः — हे भव्यात्मन्? आटलां जे अनुप्रेक्षानां नाम जिनदेव कहे छे. तेने (सम्यक् प्रकारे) जाणीने मन-वचन-काय शुद्ध करी आगळ कहीशुं ते प्रमाणे तमे निरंतर भावो (चिंतवो). ते (नाम) क्यां छे? अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ अने धर्म – ए बार छे.
भावार्थः — ए बार भावनानां नाम कह्यां, तेनुं विशेष अर्थरूप कथन तो आगळ यथास्थाने थशे ज; वळी ए नाम सार्थक छे. तेनो अर्थ शो? अध्रुव तो अनित्यने कहीए छीए, जेमां शरणपणुं नथी ते अशरण छे, परिभ्रमणने संसार कहीए छीए, ज्यां बीजुं कोई नथी ते एकत्व छे, ज्यां सर्वथी जुदापणुं छे ते अन्यत्व छे, मलिनताने अशुचित्व कहीए छीए, कर्मनुं आववुं ते आस्रव छे, कर्मास्रव रोकवो ते संवर छे, कर्मनुं खरवुं ते निर्जरा छे, जेमां छ द्रव्योनो समुदाय छे ते लोक छे, अति कठणताथी प्राप्त करीए ते दुर्लभ (बोधिदुर्लभ) छे अने संसारथी जीवोनो उद्धार करे ते वस्तुस्वरूपदिक धर्म छे; ए प्रमाणे तेनो अर्थ छे. हवे प्रथम अध्रुवानुप्रेक्षा कहे छेः
❃ पाठांतरः दस दो य भणिया हु।
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अर्थः — जे कांई उत्पन्न थयुं तेनो नियमथी नाश थाय छे अर्थात् परिणामस्वरूपथी तो कोई पण (वस्तु) शाश्वत नथी.
भावार्थः — सर्व वस्तु सामान्य-विशेषस्वरूप छे; त्यां सामान्य तो द्रव्यने कहेवामां आवे छे तथा विशेष, गुण-पर्यायने कहेवामां आवे छे. हवे द्रव्यथी तो वस्तु नित्य ज छे, गुण पण नित्य ज छे; अने पर्याय छे ते अनित्य छे, तेने परिणाम पण कहेवामां आवे छे. आ जीव पर्यायबुद्धिवाळो होवाथी पर्यायने ऊपजती-विणसती देखीने हर्ष-शोक करे छे तथा तेने नित्य राखवा इच्छे छे; अने ए अज्ञान वडे ते व्याकुळ थाय छे. तेथी तेणे आ भावना (अनुप्रेक्षा) चिंतववी योग्य छेः —
हुं द्रव्यथी शाश्वत आत्मद्रव्य छुं, आ ऊपजे छे – विणसे छे ते पर्यायनो स्वभाव छे; तेमां हर्ष-विषाद शो? मनुष्यपणुं छे ते जीव अने पुद्गलना संयोगजनित पर्याय छे अने धन-धान्यदिक छे ते पुद्गलना परमाणुओनो स्कंधपर्याय छे, एटले तेनुं मळवुं – विखरावुं नियमथी अवश्य छे, छतां तेमां स्थिरतानी बुद्धि करे छे ए ज मोहजनित भाव छे. माटे वस्तुस्वरूप जाणी तेमां हर्ष-विषाददिरूप न थवुं. आगळ तेने ज विशेषताथी कहे छेः —
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अर्थः — हे भव्य! आ जन्म छे ते तो मरण सहित छे, यौवन छे ते वृद्धावस्था सहित ऊपजे छे अने लक्ष्मी छे ते विनाश सहित ऊपजे छे; ए प्रमाणे सर्व वस्तुने क्षणभंगुर ज जाण!
भावार्थः — जेटली अवस्थाओ जगतमां छे तेटली बधीय प्रतिपक्षभाव सहित छे छतां आ जीव, जन्म थाय त्यारे तेने स्थिर जाणी हर्ष करे छे अने मरण थाय त्यारे तेने गयो मानी शोक करे छे. ए प्रमाणे इष्टनी प्रप्तिमां हर्ष, अप्रप्तिमां विषाद तथा अनिष्टनी प्रप्तिमां विषाद अने अप्रप्तिमां हर्ष करे छे; ए सर्व मोहनुं माहात्म्य छे पण ज्ञानीए तो समभावरूप रहेवुं.
अर्थः — जेम नवीन मेघनां वादळ तत्काळ उदय पामीने विलय पामी जाय छे तेवी ज रीते आ संसारमां परिवार, बंधुवर्ग, पुत्र, स्त्री, भला मित्रो, शरीरनी सुंदरता, घर अने गोधन अदि समस्त वस्तुओ अस्थिर छे.
भावार्थः — ए सर्व वस्तुने अस्थिर जाणी तेमां हर्ष-विषाद न करवो.
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अर्थः — आ जगतमां इन्द्रियोना विषयो छे ते इन्द्रधनुष अने विजळीना चमकार जेवा चंचळ छे; प्रथम देखाय पछी तुरत ज विलय पामी जाय छे. वळी तेवी ज रीते भला चाकरोनो समूह अने सारा घोडा-हाथी-रथ छे ते सर्व वस्तु पण ए ज प्रमाणे छे.
भावार्थः — आ जीव, सारा सारा इन्द्रियविषयो अने उत्तम नोकर, घोडा, हाथी अने रथदिकनी प्रप्तिथी सुख माने छे परंतु ए सर्व क्षणभंगुर छे. माटे अविनाशी सुखनो उपाय करवो ज योग्य छे.
हवे बंधुजनोनो संयोग केवो छे ते द्रष्टांतपूर्वक कहे छेः —
अर्थः — जेम पंथमां पथिकजनोनो संयोग क्षणमात्र छे, ते ज प्रमाणे संसारमां बंधुजनोनो संयोग पण अस्थिर छे.
भावार्थः — आ जीव, बहोळो कुटुंब-परिवार पामतां अभिमानथी तेमां सुख माने छे अने ए मद वडे पोताना स्वरूपने भूले छे, पण ए बंधुवगारदिनो संयोग मार्गना पथिकजन जेवो ज छे, थोडा ज समयमां विखराई जाय छे. माटे एमां ज संतुष्ट थईने स्वरूपने न भूलवुं.
हवे आगळ देहना संयोगनी अस्थिरता दर्शावे छेः —
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अर्थः — जुओ तो खरा आ देह, स्नान अने सुगंधी वस्तुओ वडे सजाववा छतां पण तथा अनेक प्रकारनां भोजनदि भक्ष्यो वडे पालन करवा छतां पण, जळ भरेला काचा घडानी माफक, क्षणमात्रमां विलय पामी जाय छे.
भावार्थः — एवा आ शरीरमां स्थिरबुद्धि करवी ते मोटी भूल छे.
आगळ लक्ष्मीनुं अस्थिरपणुं दर्शावे छेः —
अर्थः — जे लक्ष्मी अर्थात् संपदा (उत्कृष्ट) पुण्यकर्मना उदय सहित जे चक्रवर्ती तेमने पण शाश्वतरूप नथी तो अन्य जे पुण्योदय विनाना वा अल्पपुण्यवाळा पुरुषो तेनी साथे केम राग बांधे? अपितु न बांधे.
भावार्थः — ए संपदाना अभिमानथी आ प्राणी तेमां प्रीति करे छे ते वृथा छे.
आगळ ए ज अर्थने विशेषताथी कहे छेः —
अर्थः — आ लक्ष्मी – संपदा कुळवान, धैर्यवान, पंडित, सुभट, पूज्य, धर्मात्मा, रूपवान, सुजन अने महा पराक्रमी इत्यदि कोई पुरुषोमां पण राचती नथी.
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भावार्थः — कोई जाणे के – हुं मोटा कुळनो छुं, मारे पेढी दर पेढीथी आ संपदा चाली आवे छे तो ते कयां जवानी छे? हुं धीरजवान छुं एटले केवी रीते गुमावीश? हुं पंडित छुं – विद्यावान छुं, तो तेने कोण लई शकवानुं छे? ऊलटा मने तेओ आपशे ज; हुं सुभट छुं तेथी केवी रीते कोईने लेवा दईश? हुं पूजनिक छुं तेथी मारी पासेथी कोण लई शके? हुं धर्मात्मा छुं अने धर्मथी तो ते आवे छे, छतां जाय केवी रीते? हुं महा रूपवान छुं, मारुं रूप देखतां ज जगत प्रसन्न थाय छे, तो आ संपदा क्यां जवानी छे? हुं सज्जन अने परोपकारी छुं एटले ते क्यां जशे? तथा हुं महा पराक्रमी छुं, संपदाने वधारीश ज, छतीने वे क्यां जवा दईश?
कारण के आ संपदा जोत-जोतामां विलय पामी जाय छे, कोईनी राखी ते रहेती नथी.
हवे कहे छे के – लक्ष्मी प्राप्त थई तेने शुं करीए? तेनो उत्तरः —
अर्थः — आ लक्ष्मी जलतरंगनी माफक चंचळ छे एटले ज्यां सुधी ते बे – त्रण दिवस सुधी चेष्टा करे छे – मोजूद छे त्यां सुधी तेने भोगवो वा दयाप्रधानी थईने दानमां आपो.
भावार्थः — कोई कृपणबुद्धि आ लक्ष्मीने मात्र संचय करी स्थिर राखवा इच्छे छे तेने उपदेश छे के – आ लक्ष्मी चंचळ छे, स्थिर रहेवानी नथी, माटे ज्यां सुधी थोडा दिवस ए विद्यमान (मोजूद) छे त्यां सुधी तेने प्रभुभक्ति अर्थे वा परोपकार अर्थे दानदिमां खरचो तथा भोगवो.
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प्रश्नः — एने भोगववामां ते पाप उत्पन्न थाय छे ते पछी एने भोगववानो उपदेश अहीं शा माटे आपो छो?
समाधानः — मात्र संचय करी राखवामां प्रथम तो ममत्व घणुं थाय छे तथा कोई कारणे ते विनाश पामी जाय ते वखते विषाद (खेद) घणो थाय छे अने वळी आसक्तपणाथी निरंतर कषायभाव तीव्र-मलिन रहे छे, परंतु तेने भोगववामां परिणाम उदार रहे छे – मलिन रहेता नथी; वळी उदारतापूर्वक भोगसामग्रीमां खरचतां जगत पण जश करे छे त्यां पण मन उज्ज्वल (प्रसन्न) रहे छे, कोई अन्य कारणे ते विणसी जाय तो पण त्यां घणो विषाद थतो नथी इत्यदि, तेने भोगववामां पण, गुण थाय छे; परंतु कृपणने तो तेनाथी कांई पण गुण (फायदो) नथी, मात्र मननी मलिनतानुं ज ते कारण छे. वळी जे कोई तेनो सर्वथा त्याग ज करे छे तो तेने कांई अहीं भोगववानो उपदेश छे ज नहि.
अर्थः — परंतु जे पुरुष लक्ष्मीनो मात्र संचय करे छे पण पात्रोने अर्थे आपतो नथी, तथा भोगवतो पण नथी, ते तो मात्र पोताना आत्माने ज ठगे छे; एवा पुरुषनुं मनुष्यपणुं निष्फळ छे – वृथा छे.
भावार्थः — जे पुरुषे, लक्ष्मी पामीने तेने मात्र संचय ज करीने पण दान के भोगमां न खरची, तो तेणे मनुष्यपणुं पामीने शुं कर्युं? मनुष्यपणुं निष्फळ ज गुमाव्युं, अने पोते ज ठगायो.
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अर्थः — जे पुरुष पोतानी संचित लक्ष्मीने घणे ऊंडे पृथ्वीतळमां दाटे छे ते पुरुष ए लक्ष्मीने पाषाण समान करे छे.
भावार्थः — जेम मकानना पायामां पथ्थर नाखीए छीए तेम तेणे लक्ष्मी पण दाटी, तेथी ते पण पाषाण समान ज थई.
अर्थः — जे पुरुष लक्ष्मीनो निरंतर संचय ज करे छे पण नथी दान करतो के नथी भोगवतो, ते पुरुष पोतानी लक्ष्मीने पारकी लक्ष्मी जेवी करे छे.
भावार्थः — लक्ष्मी पामीने जे दान के भोग करतो नथी तेने, ते लक्ष्मी पेलानी (तेना खरा मलिकनी) छे अने पोते तो मात्र रखेवाळ (चोकीदार) छे; ए लक्ष्मीने तो कोई बीजो ज भोगवशे.
अर्थः — जे पुरुष लक्ष्मीमां आसक्तचित्त थईने पोताना आत्माने कष्टमां राखे छे ते मूढात्मा मात्र राजाओनुं अने कुटुंबीओनुं ज कार्य साधे छे.
भावार्थः — लक्ष्मीमां आसक्तचित्त थईने तेने कमावा माटे तथा
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तेनी रक्षा माटे जे अनेक कष्ट सहे छे ते पुरुषने मात्र फळमां कष्ट ज थाय छे; ए लक्ष्मीने तो कुटुंब भोगवशे के राजा लई जशे.
अर्थः — जे पुरुष अनेक प्रकारनी कळा — चतुराई — बुद्धि वडे लक्ष्मीने मात्र वधारे जाय छे पण तृप्त थतो नथी, एना माटे असि, मसि अने कृषि अदि सर्व आरंभ करे छे, रत्रि-दिवस तेना ज आरंभने चिंतवे छे, वेळाए भोजन पण करतो नथी अने चिंतामग्न बनी रात्रीमां सूतो (ऊंघतो) पण नथी ते पुरुष लक्ष्मीरूप स्त्रीमां मोहित थयो थको तेनुं किंकरपणुं करे छे.
भावार्थः — जे स्त्रीनो किंकर थाय तेने लोकमां ‘मोहल्या’ एवुं निंद्य नाम कहे छे. तेथी जे पुरुष निरंतर लक्ष्मीना अर्थे ज प्रयास करे छे ते पण लक्ष्मीरूप स्त्रीनो मोहल्या छे.
हवे, जे लक्ष्मीने धर्मकार्यमां लगावे छे तेनी प्रशंसा करे छेः —
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अर्थः — जे पुरुष पुण्योदयथी वधती जती जे लक्ष्मी, तेने निरंतर धर्मकार्योमां आपे छे ते पुरुष पंडितजनो वडे स्तुति करवा योग्य छे अने तेनी ज लक्ष्मी सफळ छे.
भावार्थः — लक्ष्मीने पूजा, प्रतिष्ठा, यात्रा, पात्रदान अने परोपकार इत्यदि धर्मकार्योमां खरचवाथी ज ते सफळ छे अने पंडितजनो पण ते दातानी प्रशंसा करे छे.
अर्थः — जे पुरुष उपर कह्या प्रमाणे जाणीने धर्मयुक्त जे निर्धनजन छे तेमने, प्रत्युपकारनी वांछारहित थईने, ते लक्ष्मीने आपे छे तेनुं जीवन सफळ छे.
भावार्थः — पोतानुं प्रयोजन साधवा अर्थे तो दान आपवावाळा जगतमां घणा छे, परंतु जे प्रत्युपकारनी वांछारहितपणे धर्मात्मा तथा दुःखी-दरिद्र पुरुषोने धन आपे छे तेवा विरला छे अने तेमनुं ज जीवित सफळ छे.
हवे आगळ मोहनुं माहात्म्य दर्शावे छेः —
अर्थः — आ प्राणी धन-यौवन-जीवनने जलना बुदबुदनी (परपोटा) माफक तुरत विलय पामी जतां जोवा छतां पण तेने नित्य माने छे ए ज मोटुं आश्चर्य छे — ए ज मोहनुं महा बळवान माहात्म्य छे.
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भावार्थः — वस्तुनुं स्वरूप अन्यथा जणाववामां मद्यपान, ज्वरदि रोग, नेत्रविकार अने अंधकार इत्यदि अनेक कारणो छे, परंतु आ मोह तो ए सर्वथी पण बळवान छे, के जे प्रत्यक्ष वस्तुने विनाशीक देखे छे छतां तेने नित्यरूप ज मनावे छे. तथा मिथ्यात्व, काम, क्रोध, शोक इत्यदि बधा मोहना ज भेद छे. ए बधाय वस्तुस्वरूपमां अन्यथा बुद्धि करावे छे.
हवे आ कथनने संकोचे छेः —
अर्थः — हे भव्यजीव! तुं समस्त विषयोने विनाशीक जाणीने महामोहने छोडी तारा अंतःकरणने विषयोथी रहित कर, जेथी तुं उत्तम सुखने प्राप्त थाय.
भावार्थः — उपर कह्या प्रमाणे संसार, देह, भोग, लक्ष्मी इत्यदि सर्व अस्थिर दर्शाव्यां. तेमने जाणी जे पोताना मनने विषयोथी छोडावी, आ अस्थिरभावना भावशे ते भव्य जीव सिद्धपदना सुखने प्राप्त थशे.
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अर्थः — जे संसारमां देवोना इन्द्रोनो पण विनाश जोवामां आवे छे, ज्यां हरि अर्थात् नारायण, हर अर्थात् रुद्र अने ब्रह्मा अर्थात् विधाता तथा अदि शब्दथी मोटा मोटा पदवीधारक सर्व काळ वडे कोळियो बनी गया ते संसारमां शुं शरणरूप छे? कोई पण नहि.
भावार्थः — शरण तेने कहेवाय के ज्यां पोतानी रक्षा थाय, पण संसारमां तो जेनुं शरण विचारवामां आवे ते पोते ज काळ पामतां नाश पामी जाय छे, त्यां पछी कोनुं शरण?
हवे तेनुं द्रष्टांत कहे छेः —
अर्थः — जेम जंगलमां सिंहना पग तळे पडेला हरणने कोई पण रक्षण करवावाळुं नथी तेम आ संसारमां काळ वडे ग्रहायेला प्राणीने कोई पण रक्षण आपी शकतुं नथी.
भावार्थः — जंगलमां सिंह कोई हरणने (पोताना) पगतळे पकडे त्यां तेनुं कोण रक्षण करे? ए ज प्रमाणे आ, काळनुं द्रष्टांत जाणवुं. हवे ए ज अर्थने द्रढ करे छे.
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अर्थः — मरणने प्राप्त थता मनुष्यने जो कोई देव, मंत्र, तंत्र, क्षेत्रपाल अने उपलक्षणथी लोको जेमने रक्षक माने छे ते बधाय रक्षवावाळा होय तो मनुष्य अक्षय थई जाय अर्थात् कोई पण मरे ज नहि.
भावार्थः — लोको जीववाने माटे देवपूजा, मंत्र-तंत्र अने औषधी अदि अनेक उपाय करे छे. परंतु निश्चयथी विचारीए तो कोई जीवता (शाश्वत) देखाता नथी, छतां निरर्थक ज मोहथी विकल्प उपजावे छे.
हवे ए ज अर्थने फरीथी द्रढ करे छेः —
अर्थः — आ संसारमां अति बळवान, अति रौद्र – भयानक अने रक्षणना अनेक प्रकारोथी निरंतर रक्षण करवामां आवतो होवा छतां पण मरण रहित कोई पण देखातो नथी.
भावार्थः — गढ, कोट, सुभट अने शस्त्र अदि रक्षाना अनेक प्रकारोथी उपाय भले करो परंतु मरणथी कोई बचतुं नथी अने सर्व उपायो विफळ (निष्फळ) जाय छे.
हवे परमां शरण कल्पे तेना अज्ञानने दर्शावे छेः —