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अने लोकना स्वरूपनुं चिंतवन करे ते संस्थानविचय छे. वळी आ धर्मध्यान दशप्रकारथी पण कह्युं छे – अपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, आज्ञविचय, विपाकविचय, अजीवविचय, हेतुविचय, विरागविचय, भवविचय अने संस्थानविचय. ए प्रमाणे दशेनुं चिंतवन छे ते आ चारे भेदोना विशेषभेद छे. वळी पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ अने रूपातीत — एवा चार भेदरूप पण धर्मध्यान होय छे.१ त्यां पद तो अक्षरोना समुदायनुं नाम छे अने ते परमेष्ठीवाचक अक्षर छे जेनी मंत्र संज्ञा छे. ए अक्षरोने प्रधान करी परमेष्ठीनुं चिंतवन करे त्यां ते अक्षरमां एकाग्रचित्त थाय तेनुं ध्यान कहे छे. त्यां नमोकारमंत्रना पांत्रीस२ अक्षरो प्रसिद्ध छे; तेमां मनने जोडे तथा ते ज मंत्रना भेदरूप टूंकामां सोळ अक्षरो छे. ‘अरहंत – सिद्ध – आयरिय – उवझाय – साहूद३’ ए सोळ अक्षर छे तथा तेना ज भेदरूप ‘अरिहंत – सिद्ध’ ए छ अक्षर छे अने तेना ज संक्षेपमां ‘अ – सि – आ – उ – सा’ ए अदि अक्षररूप पांच अक्षर छे. अरिहंत ए चार अक्षर छे, ‘सिद्ध’ वा ‘अर्हं’ ए बे अक्षर छे. ॐ ए एक अक्षर छे. तेमां परमेष्ठीना सर्व अदि अक्षरो छे. अरहंतनो अ, अशरीरी जे सिद्ध तेनो अ, आचार्यनो आ, उपाध्यायनो उ, अने मुनिनो म्, ए प्रमाणे अ + अ + आ + उ + म् = ॐ४’ एवो ध्वनि सिद्ध थाय छे. ए मंत्रवाक्योने उच्चारणरूप करी मनमां तेनुं चिंतवनरूप ध्यान करे, एनो वाच्य अर्थ जे परमेष्ठी तेनुं अनंतज्ञानदि स्वरूप विचारी ध्यान करे तथा अन्य पण बार हजार श्लोकप्रमाण नमस्कारग्रंथ अनुसार
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तथा लघुबृहद्दसिद्धचक्र अने प्रतिष्ठाग्रंथोमां मंत्रो कह्या छे तेनुं ध्यान करे. ए मंत्रोनुं केटलुंक कथन संस्कृत-टीकामां छे त्यांथी जाणवुं, अहीं तो मात्र संक्षेपमां लख्युं छे. ए प्रमाणे पदस्थध्यान छे.
वळी ‘पिंड’ नाम शरीरनुं छे, त्यां पुरुषाकार अमूर्तिक अनंतचतुष्टययुक्त जेवुं परमात्मानुं स्वरूप छे तेवुं आत्मानुं चिंतवन करवुं ते पिंडस्थध्यान छे.
वळी ‘रूप’ अर्थात् समवसरणमां घतिकर्म रहित, चोत्रीस अतिशय अने आठ प्रतिहार्य सहित, अनंतचतुष्टयमंडित, इन्द्रदि देवो द्वारा पूज्य तथा परमौदरिकशरीरयुक्त एवा अरिहंतने ध्यावे, तथा एवो ज संकल्प पोताना आत्माना संबंधमां करीने पोताने ध्यावे ते रूपस्थध्यान छे.
वळी देह विना, बाह्य अतिशयदि विना, स्व-परना ध्याता – ध्यान – ध्येयना भेद विना, सर्व विकल्परहित परमात्मस्वरूपमां तल्लीनताने प्राप्त थाय ते रूपातीतध्यान छे. आवुं ध्यान सातमा गुणस्थानमां होय त्यारे मुनि श्रेणि मांडे छे, तथा आ ध्यान व्यक्त राग सहित चोथा गुणस्थानथी मांडी सातमा गुणस्थान सुधी अनेक भेदरूप प्रवर्ते छे.
हवे पांच गाथामां शुकलध्यान कहे छेः —
अर्थः — ज्यां, व्यक्त कषायना अनुभव रहित भला प्रकारथी, ज्ञानोपयोगदि गुणो विशुद्ध – उज्ज्वल होय, कर्मोनो ज्यां उपशम के क्षय होय तथा ज्यां लेश्या पण शुकल ज होय तेने शुक्लध्यान कहे छे.
भावार्थः — आ सामान्यपणे शुक्लध्याननुं स्वरूप कह्युं. विशेष
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हवे कहे छे. वळी कर्मोनुं उपशमन तथा क्षपणानुं विधान अन्य ग्रंथानुसार टीकाकारे लख्युं छे ते पण हवे कहीशुं.
हवे शुक्लध्यानना विशेष (भेदो) कहे छेः —
अर्थः — उपशम तथा क्षपक ए बंने श्रेणीमां आरूढ थतो थको समये समये कर्मोने उपशम तथा क्षयरूप करी अनंतगुणी विशुद्धताथी शुद्ध थतो थको मुनि प्रथम पृथक्त्ववितकरविचार नामनुं शुक्लध्यान ध्यावे छे.
भावार्थः — प्रथम मिथ्यात्वनी त्रण अने अनंतानुबंधीकषायनी चार प्रकृतिओनो उपशम वा क्षय करी सम्यग्द्रष्टि थाय, पछी अप्रमत्तगुणस्थानमां सतिशय विशुद्धता सहित थई श्रेणीनो आरंभ करे त्यारे अपूर्वकरणगुणस्थान थई त्यां शुक्लध्याननो पहेलो पायो प्रवर्ते. त्यां जो मोहनी प्रकृतिओने उपशमाववानो प्रारंभ करे तो अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण अने सूक्ष्मसांपराय ए त्रण गुणस्थानोमां समये समये अनंतगुणी विशुद्धताथी वर्धमान थतो थको मोहनीयकर्मनी एकवीश प्रकृतिओने उपशमावी उपशांतकषायगुणस्थानने प्राप्त थाय छे, अने जो मोहनी प्रकृतिओने क्षपाववानो प्रारंभ करे तो आ त्रणे गुणस्थानमां मोहनी एकवीस प्रकृतिओने सत्तामांथी नाश करी क्षीणकषाय नामना बारमा गुणस्थानने प्राप्त थाय छे. आ प्रमाणे त्यां पृथक्त्ववितकरविचार नामनो शुक्लध्याननो पहेलो पायो प्रवर्ते छे. पृथक् एटले जुदा जुदा, वितर्क एटले श्रुतज्ञानना अक्षरो तथा विचार एटले अर्थनुं, व्यंजन अर्थात् अक्षररूप वस्तुना नामनुं तथा मन-वचन-कायाना योगनुं पलटवुं. ए बधुं आ पहेला शुक्लध्यानमां थाय छे, त्यां अर्थ तो द्रव्य-गुण -पर्यायनी पलटना छे अर्थात् द्रव्यथी द्रव्यान्तर, गुणथी गुणान्तर अने
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पर्यायथी पर्यायान्तर छे. ए ज प्रमाणे वर्णथी वर्णान्तर तथा योगथी योगान्तर छे.
प्रश्नः — ध्यान तो एकाग्रचिंतनिरोध छे पण पलटवाने ध्यान केम कही शकाय?
समाधानः — जेटली वार एक (ज्ञेय) उपर उपयोग स्थिर थाय ते तो ध्यान छे अने त्यांथी पलटाई बीजा ज्ञेय उपर स्थिर थयो ते पण ध्यान छे. ए प्रमाणे ध्यानना संतानने पण ध्यान कहे छे. अहीं ए संताननी जति एक छे ए अपेक्षा लेवी. वळी उपयोग पलटाय छे त्यां ध्याताने पलटाववानी इच्छा नथी. जो इच्छा होय तो ते राग सहित होवाथी आ पण धर्मध्यान ज ठरे. अहीं अव्यक्त राग छे ते पण केवळज्ञानगम्य छे, आ ध्याताना ज्ञानने गम्य नथी. पोते शुद्धोपयोगरूप बन्यो थको ए पलटनानो पण ज्ञाता ज छे अने पलटावुं ए क्षयोपशमज्ञाननो स्वभाव छे. ए उपयोग घणो वखत एकाग्र रहेतो नथी. तेने ‘शुक्ल’ एवुं नाम राग अव्यक्त थवाथी ज कह्युं छे.
हवे शुक्लध्याननो बीजो भेद कहे छेः —
अर्थः — समस्त मोहकर्मनो नाश थतां क्षीणकषाय गुणस्थानना अंतसमयमां पोताना स्वरूपमां तल्लीन थतो थको आत्मा एकत्ववितर्कअविचार नामना बीजा शुक्लध्यानने ध्यावे छे.
भावार्थः — प्रथमना पृथक्त्ववितकरविचारशुक्लध्यानमां उपयोग पलटातो हतो ते पलटावुं अहीं अटकी गयुं. अहीं एक द्रव्य, एक गुण, एक पर्याय, एक व्यंजन अने एक योग उपर उपयोग स्थिर थई गयो. पोताना स्वरूपमां लीन तो छे ज परंतु हवे घतिकर्मनो नाश करी
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उपयोग पलटाशे त्यां ‘सर्वनो प्रत्यक्ष ज्ञाता थई लोकालोकने जाणवुं’ ए ज पलटावुं रह्युं छे.
हवे शुक्लध्याननो त्रीजो भेद कहे छेः —
अर्थः — केवळज्ञान छे स्वभाव जेनो एवा सयोगकेवळी- भगवान ज्यारे सूक्ष्मकाययोगमां बिराजे छे त्यारे ते काळमां जे ध्यान होय छे ते सूक्ष्मक्रिया नामनुं त्रीजुं शुक्लध्यान छे.
भावार्थः — ज्यारे घतिकर्मनो नाश करी केवळज्ञान उत्पन्न थाय त्यारे तेरमा गुणस्थानवर्ती सयोगकेवळी थाय छे. त्यां ते गुणस्थानना अंतमां अंतर्मुहूर्तकाळ बाकी रहे त्यारे मनोयोग – वचनयोग रोकाई जाय छे अने काययोगनी सूक्ष्मक्रिया रही जाय छे, त्यारे तेने शुक्लध्याननो (सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामनो) त्रीजो पायो कहे छे. अहीं केवळज्ञान ऊपज्युं त्यारथी उपयोग तो स्थिर छे अने ध्यानमां अंतर्मुहूर्त टकवानुं कह्युं छे; परंतु ए ध्याननी अपेक्षाए तो अहीं ध्यान नथी पण मात्र योग थंभाई जवानी अपेक्षाए ध्याननो उपचार छे. अने जो उपयोगनी अपेक्षाए कहीए तो उपयोग अहीं थंभी ज रह्यो छे – कांई जाणवानुं बाकी रह्युं नथी. वळी पलटाववावाळुं प्रतिपक्षी कर्म पण रह्युं नथी, तेथी तेने सदाय ध्यान ज छे – पोताना स्वरूपमां रमी रह्या छे, समस्त ज्ञेयो आरसीनी माफक प्रतिबिंबित थई रह्या छे अने मोहना नाशथी कोई पदार्थोमां इष्ट – अनिष्टभाव नथी. ए प्रमाणे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामनुं त्रीजुं शुक्लध्यान प्रवर्ते छे.
हवे व्युपरतक्रियनिवृत्ति नामनुं चोथुं शुक्लध्यान कहे छेः —
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अर्थः — योगोनी प्रवृत्तिनो अभाव करी ज्यारे केवळीभगवान अयोगीजिन थाय छे, त्यारे अघतिकर्मोनी पंचाशी प्रकृतिओ जे सत्तामां रही छे तेनो क्षय करवा अर्थे जे ध्यावे छे ते व्युपरतक्रियनिवृत्ति नामनुं चोथुं शुक्लध्यान छे
भावार्थः — चौदमा अयोगीजिनगुणस्थाननी स्थिति पांच लघु अक्षर (अ-इ-उ-ऋ-लृ) प्रमाण छे. त्यां योगोनी प्रवृत्तिनो अभाव छे अने अघतिकर्मोनी पंचाशी प्रकृति सत्तामां रही छे, तेना नाशनुं कारण आ योगोनुं रोकावुं छे, तेथी तेने ध्यान कह्युं छे. तेरमा गुणस्थाननी माफक अहीं पण ध्याननो उपचार समजवो, कारण के इच्छापूर्वक उपयोगने थंभाववारूप ध्यान अहीं नथी. ए कर्मप्रकृतिओनां नाम तथा अन्य पण विशेष कथन बीजा ग्रंथो अनुसार छे ते संस्कृतटीकाथी जाणी लेवां. ए प्रमाणे ध्यान नामना तपनुं स्वरूप कह्युं.
हवे तपना कथनने संकोचे छेः —
अर्थः — आ बार प्रकारनां तप कह्यां तेमां उपयोगने लगावी जे मुनि उग्र – तीव्र तपनुं आचरण करे छे ते मुनि कर्मपुंजनो क्षय करीने मोक्षसुखने प्राप्त थाय छे. केवुं छे मोक्षसुख? जे अक्षय – अविनाशी छे.
भावार्थः — तपथी कमरनिर्जरा थाय छे तथा संवर थाय छे अने
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ए (निर्जरा तथा संवर) बंने मोक्षनां कारण छे. जे मुनिव्रत लईने बाह्य – अभ्यंतरभेदथी कहेलां आ तपने ते ज विधानपूर्वक आचरे छे ते मोक्षने प्राप्त थाय छे अने त्यारे ज कर्मोनो अभाव थाय छे. तेनाथी ज अविनाशी बाधारहित आत्मीयसुखनी प्रप्ति थाय छे. ए प्रमाणे आ बार प्रकारनां तपना धारक तथा आ तपनां फळने पामे छे तेवा साधु चार प्रकारना कह्या छे — अणगार, यति, मुनि अने ॠषि. तेमां गृहवासना त्यागी अने मूळगुणोना धारक सामान्य साधुने अणगार कहे छे, ध्यानमां रहीने जे श्रेणि मांडे ते यति छे, जेमने अवधि – मनःपर्यय – केवळज्ञान होय ते मुनि छे तथा जे ॠद्धिधारक होय ते ॠषि छे. ए ॠषिना पण चार भेद छेः राजर्षि, ब्रह्मर्षि, ,देवर्षि तथा परमर्षि. त्यां विक्रियाॠद्धिवाळा राजॠषि छे, अक्षीणमहानस- ॠद्धिवाळा ब्रह्मॠषि छे, आकाशगामी (चारणॠद्धिवाळा) देवॠषि छे तथा केवळज्ञानी परमॠषि छे; एम समजवुं.
हवे ग्रंथकर्ता श्री स्वामीकर्त्तिकेयमुनि पोतानुं कर्तव्य प्रगट करे छेः —
अर्थः — स्वामी कुमार अर्थात् स्वामीकर्त्तिकेय नामना मुनिए आ अनुप्रेक्षा नामनो ग्रंथ गाथारूप रचनामां रच्यो छे. अहीं ‘कुमार’ शब्दथी एम सूचव्युं जणाय छे के आ मुनि जन्मथी ज ब्रह्मचारी हता. तेमणे ‘आ ग्रंथ श्रद्धापूर्वक रच्यो छे, पण एम नथी के कथनमात्र बनावी दीधो होय!’ आ विशेषणथी अनुप्रेक्षामां अति प्रीति सूचवे छे. वळी प्रयोजन कहे छे के – ‘जिनवचननी भावना अर्थे रच्यो छे.’ — आ वाक्यथी एम जणाव्युं छे के ख्यति – लाभ – पूजदि लौकिक प्रयोजन अर्थे रच्यो नथी. जिनवचननुं ज्ञान – श्रद्धान थयुं छे तेने वारंवार भाववुं
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– स्पष्ट करवुं के जेथी ज्ञाननी वृद्धि थाय, कषायो नाश पामे ए प्रयोजन जणाव्युं छे. वळी बीजुं प्रयोजन – ‘चंचळ मनने स्थिर करवा अर्थे रच्यो छे.’ आ विशेषणथी एम समजवुं के – मन चंचळ छे, ते एकाग्र रहेतुं नथी, तेने जो आ शास्त्रमां लगावीए तो राग-द्वेषनां कारणो जे विषयो छे तेमां जाय नहि. ए प्रयोजन अर्थे आ अनुप्रेक्षाग्रंथनी रचना करी छे. भव्यजीवोए तेनो अभ्यास करवो योग्य छे के जेथी जिनवचननी श्रद्धा थाय, सम्यग्ज्ञाननी वृद्धि थाय, तथा आना अभ्यासमां जोडातां चंचळ मन अन्य विषयोमां जाय नहि.
हवे अनुप्रेक्षानुं माहात्म्य कही भव्यजीवोने उपदेशरूप फळनुं वर्णन करे छेः —
अर्थः — आ बार अनुप्रेक्षा जिनागमअनुसार प्रगटपणे कही छे; ए वचनथी एम जणाव्युं छे के — में कल्पना करी कही नथी पण पूर्व (आम्नाय) अनुसार कही छे, तेने जे भव्यजीवो भणशे, सांभळशे अथवा तेनी भावना एटले वारंवार चिंतवन करशे ते बाधारहित – अविनाशी – स्वात्मीय उत्तम सुखने प्राप्त थशे. — ए संभावनारूप कर्तव्यअर्थनो उपदेश समजवो. माटे हे भव्यजीवो! आने भणो, सांभळो अने वारंवार चिंतवनरूप भावना करो.
हवे अंतमंगळ करे छेः —
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अर्थः — त्रण भुवनना प्रधानस्वामी श्री तीर्थंकरदेव के जेमणे कुमारकाळमां ज तपश्चरण धारण कर्युं एवा वसुपूज्यराजाना पुत्र वासुपूज्यजिन तथा मल्लिजिन अने चरमत्रिक अर्थात् छेल्ला त्रण — नेमिनाथजिन, पार्श्वनाथजिन, वर्द्धमानजिन ए पांच जिनोने हुं नित्य स्तवुं छुं, तेमनो गुणानुवाद करुं छुं – वंदु छुं.
भावार्थः — ए प्रमाणे कुमारश्रमण जे पांच तीर्थंकर छे तेमनुं स्तवन — नमस्काररूप अंतमंगळ कर्युं छे. अहीं एम सूचवे छे के पोते कुमारअवस्थामां मुनि थया छे, तेथी तेमने कुमारतीर्थंकरो प्रत्ये विशेष प्रीति उत्पन्न थई छे अने एटला माटे तेमना नामरूप अहीं अंतमंगळ कर्युं छे.
ए प्रमाणे श्री स्वमिकर्त्तिकेयमुनिए रचेलो आ अनुप्रेक्षाग्रंथ समाप्त थयो.
हवे आ वचनिका थवानो संबंध लखीए छीएः —
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इति श्री स्वामीकर्त्तिकेयानुप्रेक्षानो पंडित जयचंद्रजीकृत
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अइबलिओ वि रउद्दो
अइललिओ वि देहो
अग्गी वि य होदि हिमं
अच्छीहिं पिच्छमाणो
अज्जवमिलेच्छखण्डे
अट्ठ वि गब्भज दुविहा
अणउदयादो छह्णं
अणवरयं जो संचदि लच्छिं
अणुद्धरीयं कुंथो
अणुपरिमाणं तच्चं
अण्णइरूवं दव्वं
अण्णभवे जो सुयणो
अण्णं देहं गिह्णदि जणणी
अण्णं पि एवमाई
अण्णोण्णपवेसेण य
अण्णोण्णं खज्जंता
अथिरं परियणसयणं
अद्धुव असरण भणिया
अप्पसंसणकरणं
अप्पसरूवं वत्थु चत्तं
अप्पाणं जो णिंदइ
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आउक्खएण मरणं
आहारगिद्धिरहिओ
आहारसरीरिंदिय
इक्को जीवो जायदि
इक्को रोई सोई
इक्को संचदि पुण्णं
इच्चेवमाइदुक्खं
इट्ठविओगे दुक्खं
इदि एसो जिणधम्मो
इय जणिऊण भावह
इय दुलहं मणुयत्तं
इय पच्चक्खं पिच्छिय
इय सव्वदुलहदुलहं
इय संसारं जणिय
इहपरलोयणिरीहो
इहपरलोयसुहाणं
इंदियजं मदिणाणं
उत्तमगुणगहणरओ
उत्तमगुणाण धामं
उत्तमणाणपहाणो
उत्तमधम्मेण जुदो होदि
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जइ पुण सुद्धसहावा
जत्थ गुणा सुविसुद्धा
जत्थ ण कलयलसद्दो
जदि जीवादो भिण्णं
जदि ण य हवेदि जीवो
जदि ण हवदि सव्वह्णू
जदि ण हवदि सा सत्ती
जदि दव्वे पज्जाया
जदि वत्थुदो विभेदो
जदि सव्वमेव णाणं
जदि सव्वं पि असंतं
जम्मं मरणेण समं
जलबुब्बुयसरिच्छं
जल्लमललित्तगत्तो
जह जीवो कुणइ रइं
जह लोहणासणट्ठं
जं इंदिएहिं गिज्झं
जं किंचि वि उप्पण्णं
जं किं पि तेण दिण्णं
जं जस्स जम्मि देसे
जं जणिज्जइ जीवो
जं परिमाणं कीरदि
जं वत्थु अणेयंतं तं
जं वत्थु अणेयंतं एयंतं
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जो पुण लच्छिं संचदि
जो पुण विसयविरत्तो
जो पुणु कित्तिणिमित्तं
जो बहुमुल्लं वत्थुं
जो मणइंदियविजई
जो मण्णदि परमहिलं
जो रयणत्तयजुत्तो
जो रायदोसहेदू
जो लोहं णिहणित्ता
जो वज्जेदि सचित्तं
जो वट्टमाणकाले
जो वड्ढमाण लच्छिं
जो वड्ढारहि लच्छिं
जो वावरइ सरूवे
जो वावरेइ सदओ
जो विसहदि दुव्वयणं
जो सग्गसुहणिमित्तं
जो समसोक्खणिलीणो
जो संगहेदि सव्वं
जो संचिऊण लच्छिं
जो सावयवयसुद्धो
जो साहदि सामण्णं
जो साहेदि अदीदं
जो साहेदि विसेसे
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धम्मो वत्थुसहावो
पज्जत्तिं गिह्णंतो
पज्जयमित्तं तच्चं
पडिसमयं परिणामो
पडिसमयं सुज्झंतो
पढमकसायचउह्णं
पत्तेयाणं आऊ
पत्तेया वि य दुविहा
परतत्तीणिरवेक्खो
परदोसाण वि गहणं
परविसयहरणसीलो
परिणमदि सण्णिजीवो
परिणामसहावादो
परिणामेण विहीणं
पूयदिसु णिरवेक्खो जिण- ४६२
परिवज्जिय सुहुमाणं
पंचक्खा चउरक्खा
पंचक्खा वि य तिविहा
पंचमहव्वयजुत्ता
पंचसया धणुछेहा
पंचाणुव्वयधारी
पंचिंदियणाणाणं
पंथे पहियजणाणं
पावउदयेण णरए
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बारसजोयणसंखो
बारसभेओ भणिओ
बारसवएहिं जुत्तो
बारसवास वियक्खे
बारसविहेण तवसा
बालो वि य पियरचत्तो
बावीससत्तसहसा
बहिरगंथविहीणा
बिण्णि वि असुहे झाणे
बितिचउपंचक्खाणं
बितिचउरक्खा जीवा
भत्तीए पुज्जमाणो
भयलज्जालाहादो
भोयणदाणं सोक्खं
भोयणदाणे दिण्णे
भोयणबलेण साहू
मज्जारपहुदिधरणं
मणपज्जयविण्णाणं
मणवयणकायइंदिय
मणवयणकायजोया
मणहरविसयविओगे
मणुयाणं असुइमयं
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लोयपमाणो जीवो
लोयाणं ववहारं
वज्जियसयलवियप्पो
वासदिकयपमाणं
विणओ पंचपयारो
वियलिंदिएसु जायदि
विरला णिसुणहि तच्चं
विरलो अज्जदि पुण्णं
विसयासत्तो वि सया
विहलो जो वावारो
सच्चित्तं पत्तफलं
सच्चेयणपच्चक्खं
सत्तह्णं पयडीणं
सत्तमणारयहिंतो
सत्तमितेरसिदिवसे
सत्तू वि होदि मित्तो
सत्तेक्कपंचइक्का मूले
सत्थब्भासेण पुणो
सधणो वि होदि णिधणो
समसंतोसजलेणं
सम्मत्तगुणपहाणो
सम्मत्तं देसवयं