Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 483-491 ; Gathanukramnika.

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अने लोकना स्वरूपनुं चिंतवन करे ते संस्थानविचय छे. वळी आ धर्मध्यान दशप्रकारथी पण कह्युं छेअपायविचय, उपायविचय, जीवविचय, आज्ञविचय, विपाकविचय, अजीवविचय, हेतुविचय, विरागविचय, भवविचय अने संस्थानविचय. ए प्रमाणे दशेनुं चिंतवन छे ते आ चारे भेदोना विशेषभेद छे. वळी पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ अने रूपातीतएवा चार भेदरूप पण धर्मध्यान होय छे. त्यां पद तो अक्षरोना समुदायनुं नाम छे अने ते परमेष्ठीवाचक अक्षर छे जेनी मंत्र संज्ञा छे. ए अक्षरोने प्रधान करी परमेष्ठीनुं चिंतवन करे त्यां ते अक्षरमां एकाग्रचित्त थाय तेनुं ध्यान कहे छे. त्यां नमोकारमंत्रना पांत्रीस अक्षरो प्रसिद्ध छे; तेमां मनने जोडे तथा ते ज मंत्रना भेदरूप टूंकामां सोळ अक्षरो छे. ‘अरहंतसिद्धआयरियउवझायसाहूद’ ए सोळ अक्षर छे तथा तेना ज भेदरूप ‘अरिहंतसिद्ध’ ए छ अक्षर छे अने तेना ज संक्षेपमां ‘असिसा’ ए अदि अक्षररूप पांच अक्षर छे. अरिहंत ए चार अक्षर छे, ‘सिद्ध’ वा ‘अर्हं’ ए बे अक्षर छे. ॐ ए एक अक्षर छे. तेमां परमेष्ठीना सर्व अदि अक्षरो छे. अरहंतनो , अशरीरी जे सिद्ध तेनो , आचार्यनो , उपाध्यायनो , अने मुनिनो म्, ए प्रमाणे अ + अ + आ + उ + म् = ॐ’ एवो ध्वनि सिद्ध थाय छे. ए मंत्रवाक्योने उच्चारणरूप करी मनमां तेनुं चिंतवनरूप ध्यान करे, एनो वाच्य अर्थ जे परमेष्ठी तेनुं अनंतज्ञानदि स्वरूप विचारी ध्यान करे तथा अन्य पण बार हजार श्लोकप्रमाण नमस्कारग्रंथ अनुसार

१.पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम्
रूपस्थं सवरचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ।।
२.णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।।
३.अहरत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः
४.अरहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणो
पढमक्खरणिप्पण्णो ओंकारो पंचपरमेट्ठी ।।

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तथा लघुबृहद्दसिद्धचक्र अने प्रतिष्ठाग्रंथोमां मंत्रो कह्या छे तेनुं ध्यान करे. ए मंत्रोनुं केटलुंक कथन संस्कृत-टीकामां छे त्यांथी जाणवुं, अहीं तो मात्र संक्षेपमां लख्युं छे. ए प्रमाणे पदस्थध्यान छे.

वळी ‘पिंड’ नाम शरीरनुं छे, त्यां पुरुषाकार अमूर्तिक अनंतचतुष्टययुक्त जेवुं परमात्मानुं स्वरूप छे तेवुं आत्मानुं चिंतवन करवुं ते पिंडस्थध्यान छे.

वळी ‘रूप’ अर्थात् समवसरणमां घतिकर्म रहित, चोत्रीस अतिशय अने आठ प्रतिहार्य सहित, अनंतचतुष्टयमंडित, इन्द्रदि देवो द्वारा पूज्य तथा परमौदरिकशरीरयुक्त एवा अरिहंतने ध्यावे, तथा एवो ज संकल्प पोताना आत्माना संबंधमां करीने पोताने ध्यावे ते रूपस्थध्यान छे.

वळी देह विना, बाह्य अतिशयदि विना, स्व-परना ध्याताध्यान ध्येयना भेद विना, सर्व विकल्परहित परमात्मस्वरूपमां तल्लीनताने प्राप्त थाय ते रूपातीतध्यान छे. आवुं ध्यान सातमा गुणस्थानमां होय त्यारे मुनि श्रेणि मांडे छे, तथा आ ध्यान व्यक्त राग सहित चोथा गुणस्थानथी मांडी सातमा गुणस्थान सुधी अनेक भेदरूप प्रवर्ते छे.

हवे पांच गाथामां शुकलध्यान कहे छेः

जत्थ गुणा सुविशुद्धा उवसमखमणं च जत्थ कम्माणं
लेसा वि जत्था सुक्का तं सुक्कं भण्णदे झाणं ।।४८३।।
यत्र गुणाः सुविशुद्धाः उपशमक्षपणं च यत्र कर्मणाम्
लेश्या अपि यत्र शुक्ला तत् शुक्लं भण्यते ध्यानम् ।।४८३।।

अर्थःज्यां, व्यक्त कषायना अनुभव रहित भला प्रकारथी, ज्ञानोपयोगदि गुणो विशुद्धउज्ज्वल होय, कर्मोनो ज्यां उपशम के क्षय होय तथा ज्यां लेश्या पण शुकल ज होय तेने शुक्लध्यान कहे छे.

भावार्थःआ सामान्यपणे शुक्लध्याननुं स्वरूप कह्युं. विशेष


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हवे कहे छे. वळी कर्मोनुं उपशमन तथा क्षपणानुं विधान अन्य ग्रंथानुसार टीकाकारे लख्युं छे ते पण हवे कहीशुं.

हवे शुक्लध्यानना विशेष (भेदो) कहे छेः

पडिसमयं सुज्झंतो अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए
पढमं सुक्कं झायदि आरूढो उभयसेणीसु ।।४८४।।
प्रतिसमयं शुध्यन् अनन्तगुणितया उभयशुद्धया
प्रथमं शुक्लं ध्यायति आरूढः उभयश्रेणीषु ।।४८४।।

अर्थःउपशम तथा क्षपक ए बंने श्रेणीमां आरूढ थतो थको समये समये कर्मोने उपशम तथा क्षयरूप करी अनंतगुणी विशुद्धताथी शुद्ध थतो थको मुनि प्रथम पृथक्त्ववितकरविचार नामनुं शुक्लध्यान ध्यावे छे.

भावार्थःप्रथम मिथ्यात्वनी त्रण अने अनंतानुबंधीकषायनी चार प्रकृतिओनो उपशम वा क्षय करी सम्यग्द्रष्टि थाय, पछी अप्रमत्तगुणस्थानमां सतिशय विशुद्धता सहित थई श्रेणीनो आरंभ करे त्यारे अपूर्वकरणगुणस्थान थई त्यां शुक्लध्याननो पहेलो पायो प्रवर्ते. त्यां जो मोहनी प्रकृतिओने उपशमाववानो प्रारंभ करे तो अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण अने सूक्ष्मसांपराय ए त्रण गुणस्थानोमां समये समये अनंतगुणी विशुद्धताथी वर्धमान थतो थको मोहनीयकर्मनी एकवीश प्रकृतिओने उपशमावी उपशांतकषायगुणस्थानने प्राप्त थाय छे, अने जो मोहनी प्रकृतिओने क्षपाववानो प्रारंभ करे तो आ त्रणे गुणस्थानमां मोहनी एकवीस प्रकृतिओने सत्तामांथी नाश करी क्षीणकषाय नामना बारमा गुणस्थानने प्राप्त थाय छे. आ प्रमाणे त्यां पृथक्त्ववितकरविचार नामनो शुक्लध्याननो पहेलो पायो प्रवर्ते छे. पृथक् एटले जुदा जुदा, वितर्क एटले श्रुतज्ञानना अक्षरो तथा विचार एटले अर्थनुं, व्यंजन अर्थात् अक्षररूप वस्तुना नामनुं तथा मन-वचन-कायाना योगनुं पलटवुं. ए बधुं आ पहेला शुक्लध्यानमां थाय छे, त्यां अर्थ तो द्रव्य-गुण -पर्यायनी पलटना छे अर्थात् द्रव्यथी द्रव्यान्तर, गुणथी गुणान्तर अने


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पर्यायथी पर्यायान्तर छे. ए ज प्रमाणे वर्णथी वर्णान्तर तथा योगथी योगान्तर छे.

प्रश्नःध्यान तो एकाग्रचिंतनिरोध छे पण पलटवाने ध्यान केम कही शकाय?

समाधानःजेटली वार एक (ज्ञेय) उपर उपयोग स्थिर थाय ते तो ध्यान छे अने त्यांथी पलटाई बीजा ज्ञेय उपर स्थिर थयो ते पण ध्यान छे. ए प्रमाणे ध्यानना संतानने पण ध्यान कहे छे. अहीं ए संताननी जति एक छे ए अपेक्षा लेवी. वळी उपयोग पलटाय छे त्यां ध्याताने पलटाववानी इच्छा नथी. जो इच्छा होय तो ते राग सहित होवाथी आ पण धर्मध्यान ज ठरे. अहीं अव्यक्त राग छे ते पण केवळज्ञानगम्य छे, आ ध्याताना ज्ञानने गम्य नथी. पोते शुद्धोपयोगरूप बन्यो थको ए पलटनानो पण ज्ञाता ज छे अने पलटावुं ए क्षयोपशमज्ञाननो स्वभाव छे. ए उपयोग घणो वखत एकाग्र रहेतो नथी. तेने ‘शुक्ल’ एवुं नाम राग अव्यक्त थवाथी ज कह्युं छे.

हवे शुक्लध्याननो बीजो भेद कहे छेः

णीसेसमोहविलए खीणकसाए य अंतिमे काले
ससरूवम्मि णिलीणो सुक्कं झाएदि एयत्तं ।।४८५।।
निःशेषमोहविलये क्षीणकषाये च अन्तिमे काले
स्वस्वरूपे निलीनः शुक्लं ध्यायति एकत्वम् ।।४८५।।

अर्थःसमस्त मोहकर्मनो नाश थतां क्षीणकषाय गुणस्थानना अंतसमयमां पोताना स्वरूपमां तल्लीन थतो थको आत्मा एकत्ववितर्कअविचार नामना बीजा शुक्लध्यानने ध्यावे छे.

भावार्थःप्रथमना पृथक्त्ववितकरविचारशुक्लध्यानमां उपयोग पलटातो हतो ते पलटावुं अहीं अटकी गयुं. अहीं एक द्रव्य, एक गुण, एक पर्याय, एक व्यंजन अने एक योग उपर उपयोग स्थिर थई गयो. पोताना स्वरूपमां लीन तो छे ज परंतु हवे घतिकर्मनो नाश करी


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उपयोग पलटाशे त्यां ‘सर्वनो प्रत्यक्ष ज्ञाता थई लोकालोकने जाणवुं’ ए ज पलटावुं रह्युं छे.

हवे शुक्लध्याननो त्रीजो भेद कहे छे

केवलणाणसहावो सुहुमे जोगम्हि संठिओ काए
जं झायदि सजोगिजिणो तं तिदियं सुहुमकिरियं च ।।४८६।।
केवलज्ञानस्वभावः सूक्ष्मे योगे संस्थितः काये
यत् ध्यायति सयोगिजिनः तत् तृतीयं सूक्ष्मक्रियं च ।।४८६।।

अर्थःकेवळज्ञान छे स्वभाव जेनो एवा सयोगकेवळी- भगवान ज्यारे सूक्ष्मकाययोगमां बिराजे छे त्यारे ते काळमां जे ध्यान होय छे ते सूक्ष्मक्रिया नामनुं त्रीजुं शुक्लध्यान छे.

भावार्थःज्यारे घतिकर्मनो नाश करी केवळज्ञान उत्पन्न थाय त्यारे तेरमा गुणस्थानवर्ती सयोगकेवळी थाय छे. त्यां ते गुणस्थानना अंतमां अंतर्मुहूर्तकाळ बाकी रहे त्यारे मनोयोगवचनयोग रोकाई जाय छे अने काययोगनी सूक्ष्मक्रिया रही जाय छे, त्यारे तेने शुक्लध्याननो (सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामनो) त्रीजो पायो कहे छे. अहीं केवळज्ञान ऊपज्युं त्यारथी उपयोग तो स्थिर छे अने ध्यानमां अंतर्मुहूर्त टकवानुं कह्युं छे; परंतु ए ध्याननी अपेक्षाए तो अहीं ध्यान नथी पण मात्र योग थंभाई जवानी अपेक्षाए ध्याननो उपचार छे. अने जो उपयोगनी अपेक्षाए कहीए तो उपयोग अहीं थंभी ज रह्यो छेकांई जाणवानुं बाकी रह्युं नथी. वळी पलटाववावाळुं प्रतिपक्षी कर्म पण रह्युं नथी, तेथी तेने सदाय ध्यान ज छेपोताना स्वरूपमां रमी रह्या छे, समस्त ज्ञेयो आरसीनी माफक प्रतिबिंबित थई रह्या छे अने मोहना नाशथी कोई पदार्थोमां इष्टअनिष्टभाव नथी. ए प्रमाणे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामनुं त्रीजुं शुक्लध्यान प्रवर्ते छे.

हवे व्युपरतक्रियनिवृत्ति नामनुं चोथुं शुक्लध्यान कहे छेः


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जोगविणासं किच्चा कम्मचउक्कस्स खवणकरणट्ठं
जं झायदि अजोगिजिणो णिक्किरियं तं चउत्थं च ।।४८७।।
योगविनाशं कृत्वा कर्मचतुष्कस्य क्षपणकरणार्थम्
यत् ध्यायति अयोगिजिनः निष्कियं तत् चतुर्थं च ।।४८७।।

अर्थःयोगोनी प्रवृत्तिनो अभाव करी ज्यारे केवळीभगवान अयोगीजिन थाय छे, त्यारे अघतिकर्मोनी पंचाशी प्रकृतिओ जे सत्तामां रही छे तेनो क्षय करवा अर्थे जे ध्यावे छे ते व्युपरतक्रियनिवृत्ति नामनुं चोथुं शुक्लध्यान छे

भावार्थःचौदमा अयोगीजिनगुणस्थाननी स्थिति पांच लघु अक्षर (अ-इ-उ-ऋ-लृ) प्रमाण छे. त्यां योगोनी प्रवृत्तिनो अभाव छे अने अघतिकर्मोनी पंचाशी प्रकृति सत्तामां रही छे, तेना नाशनुं कारण आ योगोनुं रोकावुं छे, तेथी तेने ध्यान कह्युं छे. तेरमा गुणस्थाननी माफक अहीं पण ध्याननो उपचार समजवो, कारण के इच्छापूर्वक उपयोगने थंभाववारूप ध्यान अहीं नथी. ए कर्मप्रकृतिओनां नाम तथा अन्य पण विशेष कथन बीजा ग्रंथो अनुसार छे ते संस्कृतटीकाथी जाणी लेवां. ए प्रमाणे ध्यान नामना तपनुं स्वरूप कह्युं.

हवे तपना कथनने संकोचे छेः

एसो बारसभेओ उग्गतवो जो चरेदि उवजुत्तो
सो खविय कम्मपुंजं मुत्तिसुहं अक्खयं लहदि ।।४८८।।
एतत् द्वादशभेदं उग्रतपः यः चरति उपयुक्तः
सः क्षपयित्वा कर्मपुञ्जं मुक्तिसुखं अक्षयं लभते ।।४८८।।

अर्थःआ बार प्रकारनां तप कह्यां तेमां उपयोगने लगावी जे मुनि उग्रतीव्र तपनुं आचरण करे छे ते मुनि कर्मपुंजनो क्षय करीने मोक्षसुखने प्राप्त थाय छे. केवुं छे मोक्षसुख? जे अक्षयअविनाशी छे.

भावार्थःतपथी कमरनिर्जरा थाय छे तथा संवर थाय छे अने


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ए (निर्जरा तथा संवर) बंने मोक्षनां कारण छे. जे मुनिव्रत लईने बाह्यअभ्यंतरभेदथी कहेलां आ तपने ते ज विधानपूर्वक आचरे छे ते मोक्षने प्राप्त थाय छे अने त्यारे ज कर्मोनो अभाव थाय छे. तेनाथी ज अविनाशी बाधारहित आत्मीयसुखनी प्रप्ति थाय छे. ए प्रमाणे आ बार प्रकारनां तपना धारक तथा आ तपनां फळने पामे छे तेवा साधु चार प्रकारना कह्या छेअणगार, यति, मुनि अने ॠषि. तेमां गृहवासना त्यागी अने मूळगुणोना धारक सामान्य साधुने अणगार कहे छे, ध्यानमां रहीने जे श्रेणि मांडे ते यति छे, जेमने अवधि मनःपर्ययकेवळज्ञान होय ते मुनि छे तथा जे ॠद्धिधारक होय ते ॠषि छे. ए ॠषिना पण चार भेद छेः राजर्षि, ब्रह्मर्षि, ,देवर्षि तथा परमर्षि. त्यां विक्रियाॠद्धिवाळा राजॠषि छे, अक्षीणमहानस- ॠद्धिवाळा ब्रह्मॠषि छे, आकाशगामी (चारणॠद्धिवाळा) देवॠषि छे तथा केवळज्ञानी परमॠषि छे; एम समजवुं.

हवे ग्रंथकर्ता श्री स्वामीकर्त्तिकेयमुनि पोतानुं कर्तव्य प्रगट करे छेः

जिणवयणभावणट्ठं समिकुमारेण परमसद्धाए
रइया अणुवेक्खाओ चंचलमणरुंभणट्ठं च ।।४८९।।
जिनवचनभावनार्थं स्वमिकुमारेण परमश्रद्धया
रचिताः अनुप्रेक्षाः चञ्चलमनोरुन्धनार्थं च ।।४८९।।

अर्थःस्वामी कुमार अर्थात् स्वामीकर्त्तिकेय नामना मुनिए आ अनुप्रेक्षा नामनो ग्रंथ गाथारूप रचनामां रच्यो छे. अहीं ‘कुमार’ शब्दथी एम सूचव्युं जणाय छे के आ मुनि जन्मथी ज ब्रह्मचारी हता. तेमणे ‘आ ग्रंथ श्रद्धापूर्वक रच्यो छे, पण एम नथी के कथनमात्र बनावी दीधो होय!’ आ विशेषणथी अनुप्रेक्षामां अति प्रीति सूचवे छे. वळी प्रयोजन कहे छे के‘जिनवचननी भावना अर्थे रच्यो छे.’ वाक्यथी एम जणाव्युं छे के ख्यतिलाभपूजदि लौकिक प्रयोजन अर्थे रच्यो नथी. जिनवचननुं ज्ञानश्रद्धान थयुं छे तेने वारंवार भाववुं


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स्पष्ट करवुं के जेथी ज्ञाननी वृद्धि थाय, कषायो नाश पामे ए प्रयोजन जणाव्युं छे. वळी बीजुं प्रयोजन‘चंचळ मनने स्थिर करवा अर्थे रच्यो छे.’ आ विशेषणथी एम समजवुं केमन चंचळ छे, ते एकाग्र रहेतुं नथी, तेने जो आ शास्त्रमां लगावीए तो राग-द्वेषनां कारणो जे विषयो छे तेमां जाय नहि. ए प्रयोजन अर्थे आ अनुप्रेक्षाग्रंथनी रचना करी छे. भव्यजीवोए तेनो अभ्यास करवो योग्य छे के जेथी जिनवचननी श्रद्धा थाय, सम्यग्ज्ञाननी वृद्धि थाय, तथा आना अभ्यासमां जोडातां चंचळ मन अन्य विषयोमां जाय नहि.

हवे अनुप्रेक्षानुं माहात्म्य कही भव्यजीवोने उपदेशरूप फळनुं वर्णन करे छेः

बारसअणुवेक्खाओ भणिया हु जिणागमाणुसारेण
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ उत्तमं सोक्खं ।।४९०।।
द्वादशअनुप्रेक्षाः भणिताः स्फु टं जिनागमानुसारेण
यः पठति शृणोति भावयति सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यं ।।४९०।।

अर्थःआ बार अनुप्रेक्षा जिनागमअनुसार प्रगटपणे कही छे; ए वचनथी एम जणाव्युं छे केमें कल्पना करी कही नथी पण पूर्व (आम्नाय) अनुसार कही छे, तेने जे भव्यजीवो भणशे, सांभळशे अथवा तेनी भावना एटले वारंवार चिंतवन करशे ते बाधारहित अविनाशीस्वात्मीय उत्तम सुखने प्राप्त थशे.ए संभावनारूप कर्तव्यअर्थनो उपदेश समजवो. माटे हे भव्यजीवो! आने भणो, सांभळो अने वारंवार चिंतवनरूप भावना करो.

हवे अंतमंगळ करे छेः

तिहुयणपहाणसमिं कुमारकाले वि तविय तवयरणं
वसुपुज्जसुयं मल्लिं चरिमतियं संथुवे णिच्चं ।।४९१।।
त्रिभुवनप्रधानस्वमिनं कुमारकाले अपि तप्ततपश्चरणम्
वसुपूज्यसुतं मल्लिं चरमत्रिकं संस्तुवे नित्यम् ।।४९१।।

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अर्थःत्रण भुवनना प्रधानस्वामी श्री तीर्थंकरदेव के जेमणे कुमारकाळमां ज तपश्चरण धारण कर्युं एवा वसुपूज्यराजाना पुत्र वासुपूज्यजिन तथा मल्लिजिन अने चरमत्रिक अर्थात् छेल्ला त्रण नेमिनाथजिन, पार्श्वनाथजिन, वर्द्धमानजिन ए पांच जिनोने हुं नित्य स्तवुं छुं, तेमनो गुणानुवाद करुं छुंवंदु छुं.

भावार्थःए प्रमाणे कुमारश्रमण जे पांच तीर्थंकर छे तेमनुं स्तवननमस्काररूप अंतमंगळ कर्युं छे. अहीं एम सूचवे छे के पोते कुमारअवस्थामां मुनि थया छे, तेथी तेमने कुमारतीर्थंकरो प्रत्ये विशेष प्रीति उत्पन्न थई छे अने एटला माटे तेमना नामरूप अहीं अंतमंगळ कर्युं छे.

ए प्रमाणे श्री स्वमिकर्त्तिकेयमुनिए रचेलो आ अनुप्रेक्षाग्रंथ समाप्त थयो.

हवे आ वचनिका थवानो संबंध लखीए छीएः

(दोहरो)
प्राकृत स्वमिकुमारकृत, अनुप्रेक्षा शुभ ग्रंथ;
देशवचनिका तेहनी, भणो लागो शिवपंथ.
(चोपाई)
देश ढुंढाहड जयपुर स्थान, जगतसिंह नृपराज महान;
न्यायबुद्धि तेने नित रहे, तेना महिमाने कवि कहे.
तेनो मंत्री बहु गुणवान, तेनाथी मंत्र राजसुविधान;
इतिभीति लोकने नहि, जो व्यापे तो झट दूर थाई.
धर्मभेद सौ मतना भले, पोतपोताना इष्टथी चले;
जैनधर्मनी कथनी तणी, भक्तिप्रीति जैनोने घणी.
तेमां तेरापंथ कहाय, धरे गुणीजन करे बढाय;
ते मध्ये छे नाम जयचंद, हुं छुं आतमराम अनंद.

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धर्मानुरागथी ग्रंथ विचार, करी अभ्यास लई मनधार;
बारहभावना चिंतवनसार, ‘ते हुं लखुं’ उपज्यो सुविचार.
देशवचनिका करीए जोई, सुगम होय वांचे सौ कोई;
रचि वचनिका तेथी सार, केवळ धर्मानुराग निरधार.
मूळग्रंथथी वधघट होय, ज्ञानी पंडित सोधो सोय;
अल्पबुद्धिनी हास्य न करे, संतपुरुष मारग ए धरे.
बारहभावन सुभावना, लई बहु पुण्ययोग पावना;
तीर्थंकर वैराग्य जब होय, तव भावे सौ राग जु खोय.
दीक्षा धारे तब निर्दोष, केवळ लई अर पामे मोक्ष;
एम विचारी भावो भविजीव, सौ कल्याण सु धरो सदैव. ०.
पंच परमगुरु अर जिनधर्म, जिनवाणी भाखे सौ मर्म;
चैत्य-चैत्यमंदिर पढि नाम, नमूं मानी नव देव सुधाम. ११.
(दोहरा)
संवत्सर विक्रम तणुं, अष्टादश शत जाण;
त्रेसठ श्रावण त्रीज वद, पूरण थयो सुमान. १२.
जैनधर्म जयवंत जग, जेनो मर्म सु पाय;
वस्तु यथारथरूप लखी, ध्यावे शिवपुर जाय. १३.

इति श्री स्वामीकर्त्तिकेयानुप्रेक्षानो पंडित जयचंद्रजीकृत

हिंदीवचनिकानो गुर्जरानुवाद समाप्त.
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक
अप्पाणं पि चवंतं
२९
अप्पाणं पि य सरणं
३१

अइबलिओ वि रउद्दो

२६
अलियवयणं पि सच्चं
४३४

अइललिओ वि देहो

अवसप्पिणिए पढमे
१७२

अग्गी वि य होदि हिमं

४३२
अविरयसग्मदिट्ठी
१९७

अच्छीहिं पिच्छमाणो

२५०
असुइमयं दुग्गंधं
३३७

अज्जवमिलेच्छखण्डे

१३२
असुराणं पणवीसं
१६९

अट्ठ वि गब्भज दुविहा

१३१
असुरोदीरियदुक्खं
३५

अणउदयादो छह्णं

३०९
असुहं अट्टरउद्दं
४७१

अणवरयं जो संचदि लच्छिं

१५
अह कह वि पमादेण य
४५२

अणुद्धरीयं कुंथो

१७५
अह कह वि हवदि देवो
५८

अणुपरिमाणं तच्चं

२३५
अह गब्भे वि य जायदि
४५

अण्णइरूवं दव्वं

२४०
अह णीरोओ देहो
५२

अण्णभवे जो सुयणो

३९
अह णीरोओ होदि हु
२९३

अण्णं देहं गिह्णदि जणणी

८०
अह धणसहिदो होदि
२९२

अण्णं पि एवमाई

२०९
अह लहदि अज्जवत्तं
२९१

अण्णोण्णपवेसेण य

११६
अहवा देवो होदि हु
२९८

अण्णोण्णं खज्जंता

४२
अहवा बंभसरूवं
२३४

अथिरं परियणसयणं

अह होदि सीलजुत्तो
२९४

अद्धुव असरण भणिया

अंगुलअसंखभागो
१६६

अप्पसंसणकरणं

९२
अंतरतच्चं जीवो
२०५

अप्पसरूवं वत्थु चत्तं

९९
अंतोमुहुत्तमेत्तं लीणं
४७०

अप्पाणं जो णिंदइ

११२

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक

उत्तमपत्तविसेसे
३६६
उववासं कुव्वंतो आरंभं
३७८

आउक्खएण मरणं

२८
उववासं कुव्वणो आरंभं
४४२

आहारगिद्धिरहिओ

४४३
उवसप्पिणिअवसप्पिणि
६९

आहारसरीरिंदिय

१३४
उवसमणो अक्खाणं
४३९
उवसमभावतवाणं
१०५

इक्को जीवो जायदि

७४
उस्सासट्ठारसमे भागे
१३७

इक्को रोई सोई

७५

इक्को संचदि पुण्णं

७६
एइंदिएहिं भरिदो
१२२

इच्चेवमाइदुक्खं

३७
एक्कं चयदि सरीरं
३२

इट्ठविओगे दुक्खं

५९
एक्कं पि णिरारंभं उववासं
३७७

इदि एसो जिणधम्मो

४०८
एक्कं पि वयं विमलं
३७०

इय जणिऊण भावह

एक्के काले एक्कं णाणं
२६०

इय दुलहं मणुयत्तं

३००
एगदिगिहपमाणं
४४५

इय पच्चक्खं पिच्छिय

४३७
एदे दहप्पयारा पावं
४०९

इय सव्वदुलहदुलहं

३०१
एदे मोहयभावा जो
९४

इय संसारं जणिय

७३
एदे संवरहेदू वियारमाणो
१००

इहपरलोयणिरीहो

३६५
एयक्खे चदु पाणा
१४०

इहपरलोयसुहाणं

४००
एयम्मि भवे एदे
६५

इंदियजं मदिणाणं

२५८
एयंतं पुणु दव्वं
२२६
एवं अणाइकाले
७२

उत्तमगुणगहणरओ

३१५
एवं जं संसरणं
३३

उत्तमगुणाण धामं

२०४
एवं जाणंतो वि हु
९३

उत्तमणाणपहाणो

३९५
एवं जो जणित्ता
२०

उत्तमधम्मेण जुदो होदि

४३१

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक
किं जीवदया धम्मो
४१४
एवं जो णिच्छयदो
३२३
किं बहुणा उत्तेण य
२५२
एवं पंचपयारं अणत्थ
३४९
केवलणाणसहावो
४८६
एवं पेच्छंतो वि हु
२७
को ण वसो इत्थिजणे
२८१
एवं बहुप्पयारं दुक्खं
४४
कोहेण जो ण तप्पदि
३९४
एवं बहिरदव्वं जाणदि
८१
एवं मणुयगदीए
५५
खरभायंपंकभाए
१४५
एवं लोयसहावं
२८३
खवगो य खीणमोहो
१०८
एवं विविहणएहिं
२७८
एवंविहं पि देहं
८६
गिह्णदि मुंचदि जीवो
३१०
एवं सुट्ठु असारे संसारे
६२
गिहवावारं चत्ता रत्तिं
३७४
एसो दहप्पयारो धम्मो
४०५
गुत्ती जोगणिरोहो
९७
एसो बारसभेओ
४८८
गुत्ती समिदी धम्मो
९६
कज्जं किं पि ण साहदि
३४३
घऽपडजडदव्वणि
२४८
कत्थ वि ण रमइ लच्छी
११
कप्पसुरा भावणया
१६०
कम्मं पुण्णं पावं हेउं
९०
चइऊण महामोहं
२२
कम्माण णिज्जरट्ठं आहारं
४४१
चउरक्खा पंचक्खा
१५५
चदुगदिभव्वो सण्णी
३०७
कस्स वि णत्थि कलत्तं
५१
चिंतंतो ससरूवं जिणबिंबं
३७२
कस्स वि दुट्ठकलत्तं
५३
कारणकज्जविसेसा
२२३
कालाइलद्धिजुत्ता
२१९
छिज्जइ तिलतिलमित्तं
३६
का वि अउव्वा दीसदि
२११
किच्चा देसपमाणं
३५७
जइ देवो वि य रक्खदि
२५

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक

जइ पुण सुद्धसहावा

२००
जं सवणं सत्थाणं
३४८

जत्थ गुणा सुविसुद्धा

४८३
जं सव्वलोयसिद्धं
२४९

जत्थ ण कलयलसद्दो

३५३
जं सव्वं पि पयासदि
२५४

जदि जीवादो भिण्णं

१७९
जं सव्वं पि य संतं
२५१

जदि ण य हवेदि जीवो

१८३
जं संगहेण गहिदं
२७३

जदि ण हवदि सव्वह्णू

३०३
जणित्ता संपत्ती भोयण
३५०

जदि ण हवदि सा सत्ती

२१५
जा सासया ण लच्छी
१०

जदि दव्वे पज्जाया

२४३
जिणवयणभावणट्ठं
४८९

जदि वत्थुदो विभेदो

२४६
जिणवयणमेव भासदि
३९८

जदि सव्वमेव णाणं

२४७
जिणवयणेयग्गमणो
३५६

जदि सव्वं पि असंतं

२५१
जिणसासणमाहप्पं
४२३

जम्मं मरणेण समं

जीवस्स णिच्छयादो धम्मो
७८

जलबुब्बुयसरिच्छं

२१
जीवस्स बहुपयारं
२०८

जल्लमललित्तगत्तो

४६७
जीवस्स वि णाणस्स वि
१८०

जह जीवो कुणइ रइं

४२७
जीवाण पुग्गलाणं जे
२२०

जह लोहणासणट्ठं

३४१
जीवा विदु जीवाणं
२१०

जं इंदिएहिं गिज्झं

२०७
जीवा हवंति तिविहा
१९२

जं किंचि वि उप्पण्णं

जीवो अणंतकालं वसइ
२८४

जं किं पि तेण दिण्णं

४५३
जीवो अणाइणिहणो
२३१

जं जस्स जम्मि देसे

३२१
जीवो णाणसहावो
१७८

जं जणिज्जइ जीवो

२६७
जीवो वि हवइ भुत्ता
१८९

जं परिमाणं कीरदि

३४२
जीवो वि हवे पावं
१९०

जं वत्थु अणेयंतं तं

२२५
जीवो हवेइ कत्ता
१८८

जं वत्थु अणेयंतं एयंतं

२६१
जे जिणवयणे कुसला
१९४

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक
जो जुद्धकामसत्थं
४६४
जेण सहावेण जदा
२७७
जो ण कुणदि परतत्तिं
४२४
जो अणुमणणं ण कुणदि
३८८
जो ण य कुव्वदि गव्वं
३१३
जो अण्णोण्णपवेसो
२०३
जो ण य भक्खेदि सयं
३८०
जो अत्थो पडिसमयं
२३७
जो णवकोडिविसुद्धं
३९०
जो अप्पाणं जाणदि
४६५
जो ण वि जाणदि अप्पं
४६६
जो अहिलसेदि पुण्णं
४११
जो ण विंजाणदि तच्चं
३२४
जो आयरेण मण्णदि
३१२
जो ण वि जदि वियारं
४०४
जो आरंभं ण कुणदि
३८५
जो णिवसेदि मसाणे
४४९
जोइसियाण विमाणा
१४६
जो णिसिभुत्तिं वज्जदि
३८३
जो उवएसो दिज्जदि
३४५
जो तच्चमणेयंतं
३११
जो उवयरदि जदीणं
४५९
जो दसभेयं धम्मं
४२२
जो एगेगं अत्थं
२७६
जो दिढचित्तो कीरदि
३२९
जो कयकरियमोयण
३८४
जो देहधारणपरो
४६९
जो कुणदि काउसग्गं
३७१
जो धम्मत्थो जीवो
४२९
जोगविणासं किच्चा
४८७
जो धम्मिएसु भत्तो
४२१
जो चउविहं पि भोज्जं
३८२
जो परदव्वं ण हरदि
३३६
जो चयदि मिट्ठभोज्जं
४०१
जो परदेहविरत्तो णियदेहे
८७
जो चिंतइ अप्पाणं
४५५
जो परदोसं गोवदि
४१९
जो चिंतेइ ण वंकं
३९६
जो परिमाणं कुव्वदि
३४०
जो चिंतेइ सरीरं
१११
जो परिवज्जइ गंथं
३८६
जो जाणदि पच्चक्खं
३०२
जो परिहरेइ संतं
३५१
जो जणिऊण देहं
८२
जो परिहरेदि संगं
४०३
जो जिणसत्थं सेवदि
४६३
जो पुण चिंतदि कज्जं
३८९
जो जीवरक्खणपरो
३९९

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गाथा
गाथांक

गाथा
गाथांक

जो पुण लच्छिं संचदि

१३

जो पुण विसयविरत्तो

१०१
ण य को वि देदि लच्छी
३१९

जो पुणु कित्तिणिमित्तं

४४४
ण य जेसिं पडिखलणं
१२७

जो बहुमुल्लं वत्थुं

३३५
ण य भुंजदि वेलाए
१८

जो मणइंदियविजई

४४०
णवणवकज्जविसेसा
२२९

जो मण्णदि परमहिलं

३३८
णाणं ण जदि णेयं
२५६

जो रयणत्तयजुत्तो

३९२
णाणं भूयवियारं
१८१

जो रायदोसहेदू

४४७
णाणाधम्मजुदं पि य
२६४

जो लोहं णिहणित्ता

३३९
णाणाधम्मेहि जुदं
२५३

जो वज्जेदि सचित्तं

३८१
णिज्जियदोसं देवं
३१७

जो वट्टमाणकाले

२७४
णियणियपरिणामाणं
२१७

जो वड्ढमाण लच्छिं

१९
णिस्संकापहुडिगुणा
४२५

जो वड्ढारहि लच्छिं

१७
णीसेसकम्मणासे
१९९

जो वावरइ सरूवे

४६०
णीसेमोहविलए
४८५

जो वावरेइ सदओ

३३१
णेरइयदिगदीणं
७०

जो विसहदि दुव्वयणं

१०९
णो उप्पज्जदि जीवो
२३९

जो सग्गसुहणिमित्तं

४१६
ण्हाणविलेवणभूसण
३५८

जो समसोक्खणिलीणो

११४

जो संगहेदि सव्वं

२७२
तच्चं कहिज्जमाणं
२८०

जो संचिऊण लच्छिं

१४
तत्तो णिस्सरिदूणं
२८९

जो सावयवयसुद्धो

३९१
तत्तो णीसरिदूणं जायदि
४०

जो साहदि सामण्णं

२६९
तत्थ भवे किं सरणं
२३

जो साहेदि अदीदं

२७१
तत्थ वि असंखकालं
२८५

जो साहेदि विसेसे

२७०
तसघादं जो ण करदि
३३२

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक
तस्स य सहलो जम्मो
११३
दंसणणाणचरित्तं
४५७
तस्सेव कारणाणं
१३५
दीसंति जत्थं अत्था
१२१
तं तस्स तम्मि देसे
३२२
दक्कियकम्मवसादो
६३
ता कह गिह्णदि देहं
२०१
दुक्खयरविसयजोए
४७३
ता भुंजिज्जउ लच्छी
१२
दुगदुगचदुचदुदुगदुग
१७०
ता सव्वत्थ वि कित्ती
४३०
दुविहाणमपुण्णाणं
१४१
तिक्खं खग्गं माला
४३३
दुस्सहुउवसग्गजई
४५०
तिरिएहिं खज्जमाणो
४१
देवगुरूण णिमित्तं
४०७
तिविहेण जो विवज्जदि
४०२
देवाण णारयाणं
१६५
तिविहे पत्तम्हि सया
३६०
देवाणं पि य सुक्खं
६१
तिव्वतिसाए तिसिदो
४३
देवा वि णारया वि य
१५२
तिहुवणतिलयं देवं
देवो वि धम्मचत्तो
४३५
तिहुवणपहाणसमिं
४९१
देहमिलिदो वि जीवो
१८५
तेणुवइट्ठो धम्मो
३०४
देहमिलिदो वि पिच्छदि
१८६
तेणुवइट्ठो धम्मो
३०४
देहमिलियं पि जीवं
३१६
ते वि पुणो वि य दुविहा
१३०
दोससहियं पि देवं
३१८
ते सावेक्खा सुणया
२६६
दोसं ण करेदि सयं
४५१
तेसु अतीदा णंता
२२१
दोसु वि पव्वेसु सया
३५९
दक्खिणउत्तरदो पुण
११९
धम्ममधम्मं दव्वं
२१२
दयभावो वि य धम्मो
४१५
धम्मविहूणो जीवो
४३६
दव्वाण पज्जयाणं
२४५
धम्मं ण मुणदि जीवो
४२६
दहविहधम्मजुदाणं
४१७
धम्मादो चलमाणं जो
४२०
दंसणणाणचरित्तं
३०
धम्मे एयग्गमणो जो
४७९

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक

धम्मो वत्थुसहावो

४७८
पावेण जणो एसो
४७
पुज्जणविहिं च किच्चा
३७६
पुढवीजलग्गिवाऊ
१२४

पज्जत्तिं गिह्णंतो

१३६
पुढवीतोयसरीरा
१४८

पज्जयमित्तं तच्चं

२२८
पुणरवि काउं णेच्छदि
४५४

पडिसमयं परिणामो

२३८
पुण्णजुदस्स वि दीसदि
४९

पडिसमयं सुज्झंतो

४८४
पुण्णं बंधदि जीवो
४१३

पढमकसायचउह्णं

१०७
पुण्णं पि जो समिच्छदि
४१०

पत्तेयाणं आऊ

१६१
पुण्णा वि अपुण्णा वि य
१२३

पत्तेया वि य दुविहा

१२८
पुण्णासाए ण पुण्णं
४१२

परतत्तीणिरवेक्खो

४६१
पुत्तो वि भाउ जाओ
६४

परदोसाण वि गहणं

३४४
पुव्वह्णे मज्झह्णे अवरह्णे
३५४

परविसयहरणसीलो

४७६
पुव्वपमाणकदाणं
३६७

परिणमदि सण्णिजीवो

७१
पुव्वपरिणामजुत्तं
२३०

परिणामसहावादो

११७
पुव्वपरिणामजुत्तं
२२२

परिणामेण विहीणं

२२७
पूयदिसु णिरवेक्खो संसार- ४४८
पूयदिसु णिरवेक्खो जिण- ४६२

परिवज्जिय सुहुमाणं

१५६

पंचक्खा चउरक्खा

१५४

पंचक्खा वि य तिविहा

१२९

पंचमहव्वयजुत्ता

१९५
बहुतससमण्णिदं
३२८

पंचसया धणुछेहा

१६८
बंधदि मुंचदि जीवो
६७

पंचाणुव्वयधारी

३३०
बंधित्ता पज्जंकं
३५५

पंचिंदियणाणाणं

२५९
बादरपज्जत्तिजुदा
१४७

पंथे पहियजणाणं

बादरलद्धिअपुण्णा
१४९

पावउदयेण णरए

३४
बारस अणुवेक्खाओ
४९०

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक

बारसजोयणसंखो

१६७
मणुयादो णेरइया
१५३

बारसभेओ भणिओ

४३८
मणुवगईए वि तओ
२९९

बारसवएहिं जुत्तो

३६९
मरदि सुपुत्तो कस्स वि
५४

बारसवास वियक्खे

१६३
मंदकसायं धम्मं
४७२

बारसविहेण तवसा

१०२
मणुसखित्तस्स बहिं
१४३

बालो वि य पियरचत्तो

४६
मिच्छत्तपरिणदप्पा
१९३

बावीससत्तसहसा

१६२
मिच्छादो सद्दिट्ठी
१०६

बहिरगंथविहीणा

३८७
मेरुस्स हिट्ठभाए
२२०

बिण्णि वि असुहे झाणे

४७७
मोहविवागवसादो
८९

बितिचउपंचक्खाणं

१७४

बितिचउरक्खा जीवा

१४२
रयणत्तयजुत्ताणं
४५८
रयणत्तयसंजुत्तो
१९१

भत्तीए पुज्जमाणो

३२०
रयणत्तये वि लद्धे
२९६

भयलज्जालाहादो

४१८
रयणं चउप्पहे पिव
२९०

भोयणदाणं सोक्खं

३६२
रयणाण महारयणं
३२५

भोयणदाणे दिण्णे

३६३
रयणु व्व जलहिपडियं
२९७

भोयणबलेण साहू

३६४
राईभोयणविरओ
३०६
राओ हं भिच्चो हं
१८७
रिणमोयणं व मण्णइ
११०

मज्जारपहुदिधरणं

३४७

मणपज्जयविण्णाणं

२५७
लच्छिं वंछेइ णरो
४२८

मणवयणकायइंदिय

१३९

मणवयणकायजोया

८८
लच्छीसंसत्तमणो
१६
लद्धियपुण्णे पुण्णं
१३८

मणहरविसयविओगे

४७४
लवणोए कालोए
१४४

मणुयाणं असुइमयं

८५

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गाथा
गाथांक
गाथा
गाथांक

सम्मत्ते वि य लद्धे
२९५

लोयपमाणो जीवो

१७६
सम्मद्दंसणसुद्धो
३०५

लोयाणं ववहारं

२६३
सम्माइट्ठी जीवो
३२७
सम्मुच्छिमा हु मणुया
१५

वज्जियसयलवियप्पो

४८२
सम्मुच्छिया मणुस्सा
१३३

वासदिकयपमाणं

३६८
सयलकुहियाण पिंडं
८३

विणओ पंचपयारो

४५६
सयलट्ठविसयजोओ
५०

वियलिंदिएसु जायदि

२८६
सयलाणं दव्वाणं
२१३

विरला णिसुणहि तच्चं

२७९
सरिसो जो परिणामो
२४१

विरलो अज्जदि पुण्णं

४८
सव्वगओ जदि जीवो
१७७

विसयासत्तो वि सया

३१४
सव्वजहण्णं आऊ
१६४

विहलो जो वावारो

३४६
सव्वजहण्णो देहो
१७३
सव्वत्थ वि पियवयणं
९१

सच्चित्तं पत्तफलं

३७९
सव्वं जाणदि जम्हा
२५५

सच्चेयणपच्चक्खं

१८२
सव्वं पि अणेयंतं
२६२

सत्तह्णं पयडीणं

३०८
सव्वं पि होदि णरए
३८

सत्तमणारयहिंतो

१५९
सव्वाण पज्जायाणं
२४४

सत्तमितेरसिदिवसे

३७३
सव्वाणं दव्वाणं जो
२१८

सत्तू वि होदि मित्तो

५७
सव्वाणं दव्वाणं अवगाहण
२१४

सत्तेक्कपंचइक्का मूले

११८
सव्वाणं दव्वाणं दव्व-
२३६

सत्थब्भासेण पुणो

३७५
सव्वाणं दव्वाणं परिणामं
२१६

सधणो वि होदि णिधणो

५६
सव्वायरेण जाणह
७९

समसंतोसजलेणं

३९७
सव्वायासमणंतं
११५

सम्मत्तगुणपहाणो

३२६
सव्वे कम्मणिबद्धा
२०२

सम्मत्तं देसवयं

९५