Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 450-482.

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अर्थःजे महामुनि पूजाअदिमां तो निरपेक्ष छे अर्थात् पोतानां पूजामाहात्म्य अदिने इच्छता नथी, संसारदेहभोगथी विरक्त छे, स्वाध्याय ध्यानदि अंतरंगतपमां प्रवीण छे अर्थात् ध्यान अध्ययननो निरंतर अभ्यास राखे छे, उपशमशील अर्थात् मंदकषायरूप शांतपरिणाम ज छे स्वभाव जेनो तथा जे महापराक्रमी अने क्षमदि परिणाम युक्त छे एवा महामुनि मसाणभूमिमां, गहनवनमां, ज्यां लोकनी आवजाव न होय एवा निर्जनस्थानमां, महा भयानक गहन वनमां तथा अन्य पण एवा एकान्तस्थानमां रहे छे तेने निश्चयथी आ विविक्तशैयासनतप होय छे.

भावार्थःमहामुनि विविक्तशैयासनतप करे छे. त्यां एवा एकान्तस्थानमां तेओ सूवेबेसे छे के ज्यां चित्तमां क्षोभ करवावाळा कोई पण पदार्थो न होय, एवां सूनां घर, गिरिगुफा, वृक्षनां कोतर, गृहस्थोए पोते बनावेला उद्यानवस्तिकदिक, देवमंदिर तथा मसाणभूमि इत्यदि एकान्तस्थान होय त्यां ध्यान-अध्ययन करे छे, कारण के तेओ देहथी तो निर्ममत्व छे, विषयोथी विरक्त छे अने पोताना आत्मस्वरूपमां अनुरक्त छे. एवा मुनि विविक्तशैयासनतप संयुक्त छे.

हवे कायक्लेशतप कहे छेः

दुस्सहउवसग्गजई आतावणसीयवायखिण्णो वि
जो ण वि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स ।।४५०।।
दुस्सहोपसर्गजयी आतापनशीतवातखिन्नः अपि
यः न अपि खेदं गच्छति कायक्लेशं तपः तस्य ।।४५०।।

अर्थःजे मुनि दुस्सह उपसर्गने जीतवावाळा होय, आताप शीतवातथी पीडित थवा छतां पण खेदने प्राप्त न थता होय, तथा चित्तमां क्षोभक्लेश न ऊपजतो होय ते मुनिने कायक्लेश नामनुं तप होय छे.


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भावार्थःग्रीष्मकाळमां पर्वतना शिखर अदि उपर के ज्यां सूयरकिरणोनो अत्यंत आताप थई रह्यो छे अने नीचे भूमिशिलदिक पण तप्तायमान छे त्यां महामुनि आतापनयोग धारण करे छे, शीतकाळमां नदी अदिना किनारे खुल्ला मेदानमां ज्यां अति ठंडी पडवाथी वृक्ष पण बळी जाय त्यां उभा रहे छे, तथा चोमासामां वर्षा वरसती होय, प्रचंड पवन चालतो होय अने डांसमच्छर चटका भरता होय एवा समयमां वृक्षनी नीचे योग धारण करे छे; तथा अनेक विकट आसन करे छे. ए प्रमाणे कायक्लेशनां अनेक कारणो मेळवे छे छतां साम्यभावथी डगता नथी, अनेक प्रकारना उपसर्गोने जीतवावाळा छे छतां चित्तमां जेमने खेद ऊपजतो नथी, ऊलटा पोताना स्वरूपध्यानमां निमग्न रहे छे, तेमने (एवा मुनिने) कायक्लेशतप होय छे. जेने काया तथा इन्द्रियोथी ममत्व होय छे तेने चित्तमां क्षोभ थाय छे, परंतु आ मुनि तो ए बधायथी निस्पृह वर्ते छे, तेमने शानो खेद होय? ए प्रमाणे छ प्रकारना बाह्य तपोनुं निरूपण कर्युं.

हवे छ प्रकारनां अंतरंग तपोनुं व्याख्यान करे छे. त्यां प्रथम प्रायश्चित्त नामनुं तप कहे छे.

दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं
कुव्वाणं पि ण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।।४५१।।
दोषं न करोति स्वयं अन्यं अपि न कारयति यः त्रिविधम्
कुर्वाणं अपि न इच्छति तस्य विशुद्धिः परा भवति ।।४५१।।

अर्थःजे मुनि मन-वचन-कायाथी पोते दोष करे नहि, बीजा पासे दोष करावे नहि तथा कोई दोष करतो होय तेने इष्टभलो जाणे नहि तेने उत्कृष्ट विशुद्धता होय छे.

भावार्थःअहीं ‘विशुद्धि’ नाम प्रायश्चित्तनुं छे. ‘प्रायः’ शब्दथी तो प्रकृष्ट चरित्रनुं ग्रहण छे अर्थात् एवुं चरित्र जेने होय तेने ‘प्रायः’ कहे छे. अथवा साधुलोकनुं चित्त जे कार्यमां होय तेने


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प्रायश्चित्त कहे छे, अथवा आत्मानी विशुद्धता करे ते प्रायश्चित्त छे. वळी (प्रायश्चित्त शब्दनो) बीजो अर्थ एवो पण छे के‘प्रायः’ नाम अपराधनुं छे, तेने ‘चित्त’ एटले तेनी शुद्धि करवी तेने प्रायश्चित्त कहीए छीए. मतलब के पूर्वे करेला अपराधथी जे वडे शुद्धता थाय ते प्रायश्चित छे. ए प्रमाणे जे मुनि मन-वचन-काय अने कृत-करित -अनुमोदनाथी दोष न लगावे तेने उत्कृष्ट विशुद्धता होय छे अने ए ज प्रायश्चित्त नामनुं तप छे.

अह कह वि पमादेण य दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि
णिद्दोससाहुमूले दसदोसविवज्जिदो होदुं ।।४५२।।
अथ कथमपि प्रामदेन च दोषः यदि एति तं अपि प्रकटयति
निर्दोषसाधुमूले दशदोषविवर्जितः भवितुम् ।।४५२।।

अर्थःअथवा कोई प्रकारथी प्रमाद वडे पोताना चरित्रमां दोष आवी गयो होय तो तेने निर्दोष साधुआचार्यनी निकट दश दोष रहितपणे प्रगट करेआलोचन करे.

भावार्थःप्रमादथी पोताना चरित्रमां दोष लाग्यो होय तो आचार्य पासे जई दश दोष रहित आलोचना करे. पांच इन्द्रिय, चार कषाय, चार विकथा, एक निद्रा अने एक स्नेह ए पांचे प्रमाद छे तेना पंदर भेद छे (विशेष) भंगोनी अपेक्षाए तेना घणा (३७५००) भेद छे, तेमनाथी दोष लागे छे.

यतिना आचारमां दश प्रकारनुं प्रायश्चित्त कह्युं छे यथाः

आलोयणपडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो
तवछेदो मूलं पि य परिहरो चेव सद्दहणं ।।
मूलाचारपंचाचारधिकार गा. १६५
विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य
चदु चदु पणमेगेगं होंति पमादा हु पण्णरस ।।
गो. जी. गा. ३४

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वळी आलोचनाना दश दोष छे. तेनां नामआकंपित, अनुमनित, बादर, सूक्ष्म, द्रष्ट, प्रच्छन, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त अने तत्सेवीए दश दोष छे. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे केः

१. आचार्यने उपकरणदिक आपी पोता प्रत्ये करुणा उपजावी जाणे के ‘आम करवाथी मने प्रायश्चित्त थोडुं आपशे’ एम विचारी आलोचना करे ते आकंपितदोष छे.

२. वचन द्वारा ज आचार्यनां वखाण अदि करी आलोचना करे ते एवा अभिप्रायथी के ‘आचार्य मारा प्रत्ये प्रसन्न रहे तो प्रायश्चित्त थोडुं आपशे’; ते अनुमनितदोष छे.

३. प्रत्यक्ष देखाता दोष होय ते कहे पण अणदेखाता न कहे ते द्रष्टदोष छे.

४. स्थूलमोटा दोष तो कहे पण सूक्ष्म न कहे ते बादर दोष छे.

५. ‘सूक्ष्म जेणे कही दीधा ते बादर दोष शा माटे छुपावे’ एवा मायाचारथी जे सूक्ष्मदोष ज कहे पण बादर न कहे ते सूक्ष्म दोष छे.

६. छुपावीने कहे, ते एम के कोई बीजाए पोतानो दोष कही दीधो होय त्यारे ज कहे के ‘एवो ज दोष मने लाग्यो छे’ पण दोषनुं नाम प्रगट न करे ते प्रच्छन्नदोष छे.

७. ‘रखे कोई सांभळी न जाय!’ एवा अभिप्रायथी घणां शब्दोना कोलाहलमां पोताना दोष कहे ते शब्दाकुलितदोष छे.

८. पोताना गुरु पासे आलोचना करी फरी पाछो अन्य गुरु पासे पण आलोचना करे ते आवा अभिप्रायथी के ‘आनुं प्रायश्चित्त

आकंपिय अणुमणिय जं दिट्ठं बादरं च सुहुमं च
छण्णं सद्दाउलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ।।
(भगवती आराधना पृष्ठ २५७ तथा
मूलाचार भा. २ शीलगुणधिकारगा. १५)

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अन्य गुरु शुं बतावे छे?’ ए बहुजनदोष छे.

९. ‘आ दोष छुपाव्यो छुपावानो नथी माटे कहेवो ज जोईए’ एम विचारी प्रगटव्यक्त दोष होय ते कहे, ते अव्यक्त दोष छे.

१०. पोताने लागेला दोषनी गुरु पासे आलोचना करी, कोई अन्य मुनिए प्रायश्चित्त लीधुं होय तेने जोई ते प्रमाणे पोताने पण दोष लाग्या होय तेनी आलोचना गुरु पासे नहि करतां पोतानी मेळे प्रायश्चित्त लई ले, परंतु दोष प्रगट करवानो अभिप्राय न होय, ते तत्सेवीदोष छे.

आवा दश दोषरहित सरळचित्त बनी बाळकनी माफक आलोचना करे.

जं किं पि तेण दिण्णं तं सव्वं सो करेदि सद्धाए
णो पुणु हियए संकदि किं थोवं किं पि बहुयं वा ।।४५३।।
यत् किमपि तेन दत्तं तत् सर्वंः सः करोति श्रद्धया
नो पुनः हृदये शंकते किं स्तोकं किमपि बहुकं वा ।।४५३।।

अर्थःदोषनी आलोचना कर्या पछी आचार्ये जे कांई प्रायश्चित्त आप्युं होय ते बधुंय श्रद्धापूर्वक ग्रहण करे पण हृदयमां एवी शंका संदेह न राखे के आ आपेलुं प्रायश्चित्त थोडुं छे के घणुं छे?

भावार्थःतत्त्वार्थसूत्रमां प्रायश्चित्तना नव भेद कह्या छे आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार अने उपस्थापना. त्यां दोषने यथावत् कहेवो ते आलोचना छे, दोषने मिथ्या कराववो ते प्रतिक्रमण छे, आलोचनप्रतिक्रमण बंने कराववां ते तदुभय छे, भविष्यनो त्याग कराववो ते विवेक छे, कायोत्सर्ग कराववो ते व्युत्सर्ग छे, अनशनदि तप कराववो ते तप छे, दीक्षा छेदन करवी अर्थात् घणा दिवसना दीक्षितने थोडा दिवसनो करवो ते छेद छे, संघ बहार करवो ते परिहार छे, तथा फरीथी नवेसरथी दीक्षा आपवी ते उपस्थापना छे. ए प्रमाणे प्रायश्चित्त नव प्रकारथी छे तथा तेमना पण


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अनेक भेद छे. त्यां देश, काळ, अवस्था, सामर्थ्य अने दोषनुं विधान जोई आचार्य यथविधि प्रायश्चित्त आपे छे तेने श्रद्धापूर्वक अंगीकार करे पण तेमां संशय न करे.

पुणरवि काउं णेच्छदि तं दोसं जइ वि जाइ सयखंडं
एवं णिच्छयसहिदो पायच्छित्तं तवो होदि ।।४५४।।
पुनः अपि कर्तुं न इच्छति तं दोषं यद्यपि यति शतखण्डम्
एवं निश्चयसहितः प्रायश्चित्तं तपः भवति ।।४५४।।

अर्थःलागेला दोषनुं प्रायश्चित्त लईने पाछो ते दोषने करवा न इच्छे, पोताना सेंकडो खंड थई जाय तोपण ते दोष न करेएवा निश्चयपूर्वक प्रायश्चित्त नामनुं तप होय छे.

भावार्थःचित्त एवुं द्रढ करे के पोताना शरीरना सेंकडो खंड थई जाय तोपण पहेलां लागेला दोषने फरीथी न लगावे, ते प्रायश्चित्ततप छे.

जो चिंतइ अप्पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी
विकहदिविरत्तमणो पायच्छित्तं वरं तस्स ।।४५५।।
यः चिन्तयति आत्मानं ज्ञानस्वरूपं पुनः पुनः ज्ञानी
विकथदिविरक्तमनाः प्रायश्चित्तं वरं तस्य ।।४५५।।

अर्थःजे ज्ञानी मुनि आत्माने वारंवारफरी फरी ज्ञानस्वरूप चिंतवन करे, विकथदिक प्रमादोथी विरक्त बनी मात्र ज्ञानने ज निरंतर सेवन करे तेने श्रेष्ठ प्रायश्चित्त होय छे.

भावार्थःनिश्चयप्रायश्चित्त ए छे केजेमां सर्व प्रायश्चित्तना भेदो गर्भित छे, अर्थात् प्रमादरहित थई पोताना शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मानुं ध्यान करवुं के जेनाथी सर्व पापोनो प्रलय थाय छे. ए प्रमाणे प्रायश्चित्त नामनो अंतरंगतपनो भेद कह्यो.

हवे त्रण गाथामां विनयतप कहे छेः


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विणओ पंचपयारो दंसणणाणे तहा चरित्ते य
बारसभेयम्मि तवे उवयारो बहुविहो णेओ ।।४५६।।
विनयः पंचप्रकारः दर्शनज्ञाने तथा चरित्रे च
द्वादशभेदे तपसि उपचारः बहुविधः ज्ञेयः ।।४५६।।

अर्थःविनयना पांच प्रकार छे. दर्शननो, ज्ञाननो, चरित्रनो, बार भेदरूप तपनो विनय तथा बहुविध उपचारविनय.

दंसणणाणचरित्ते सुविशुद्धो जो हवेइ परिणामो
बारसभेदे वि तवे सो च्चिय विणओ हवे तेसिं ।।४५७।।
दर्शनज्ञानचरित्रे सुविशुद्धः यः भवति परिणामः
द्वादशभेदे अपि तपसि सः एव विनयः भवेत् तेषाम् ।।४५७।।

अर्थःदर्शन-ज्ञान-चरित्रमां तथा बार भेदरूप तपमां जे विशुद्धपरिणाम थाय छे ते ज तेमनो विनय छे.

भावार्थःसम्यग्दर्शनना शंकदिक अतिचाररहित परिणाम थाय ते दर्शनविनय छे, ज्ञाननो संशयदिरहित परिणामे अष्टांग अभ्यास करवो ते ज्ञानविनय छे, अतिचाररहित अहिंसदि परिणामपूर्वक चरित्रनुं पालन करवुं ते चरित्रविनय छे, ए ज प्रमाणे तपोनां भेदोने निरखीदेखी निर्दोष तप पालन करवुं ते तपविनय छे.

रयणत्तयजुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए
भिच्चो जह रायाणं उवयारो सो हवे विणओ ।।४५८।।
रत्नत्रययुक्तानां अनुकूलं यः चरति भक्त्या
भृत्यः यथा राज्ञां उपचारः सः भवेत् विनयः ।।४५८।।

अर्थःसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप रत्नत्रयना धारक मुनिजनोनुं अनुकूळ भक्तिपूर्वक अनुचरण करे, जेम राजानो नोकर राजाने अनुकूळ प्रवर्ते छे तेम, ते उपचारविनय छे.

भावार्थःजेम राजानो चाकरकिंकरलोक राजाने अनुकूळ


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प्रवर्ते छे, तेनी आज्ञा मान्य करे छे, तेना हुकम प्रमाणे प्रवर्ते छे, तेने प्रत्यक्ष जोई उभा थईसन्मुख जवुंहाथ जोडवाप्रणाम करवाते चाले त्यारे तेनी पाछळ पाछळ चालवुंअने तेना पोषकदि उपकरण संभाळवां (ए अदि जेम ते चाकर करे छे) तेम ज मुनिजनोनी भक्ति, तेमनो विनय, तेमनी आज्ञानुं पालन, तेमने प्रत्यक्ष जोई ऊभा थई सन्मुख जवुं, हाथ जोडवा, प्रणाम करवा, ते चाले त्यारे पाछळ पाछळ चालवुं तथा तेमनां उपकरण संभाळवां इत्यदिक तेमनो विनय करवो ते उपचारविनय छे.

हवे बे गाथामां वैयावृत्त्यतप कहे छेः

जो उवयरदि जदीणं उवसग्गजराइखीणकायाणं
पूयदिसु णिरवेक्खं वेज्जावच्चं तवो तस्स ।।४५९।।
यः उपचरित यतीनां उपसर्गजरदिक्षीणकायानाम्
पूजदिषु निरपेक्षं वैयावृत्त्यं तपः तस्य ।।४५९।।

अर्थःकोई मुनि-यति उपसर्गथी पीडित होय तथा वृद्धावस्था वा रोगदिकथी क्षीणकाय होय तेमनो पोतानी चेष्टाथी, उपदेशथी तथा अल्प वस्तुथी उपकार करे तेने वैयावृत्त्य नामनुं तप होय छे. ते केवी रीते करे? पोते पोतानां पूजामहिमदिनी अपेक्षावांच्छा रहित जेम बनी शके तेम करे.

भावार्थःपोते निस्पृह बनीने मुनिजनोनी चाकरी करे ते वैयावृत्य छे. आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कूल, संघ, साधु अने मनोज्ञ ए दश प्रकारना यतिपुरुषो वैयावृत्त्य करवा योग्य कह्या छे. तेमनुं यथायोग्य, पोतानी शक्तिनी वृद्धि माटे वैयावृत्त्य करे.

जो वावरइ सरूवे समदमभावम्मि सुद्धिउवजुत्तो
लोयववहारविरदो वेज्जावच्चं परं तस्स ।।४६०।।
यः व्यावृणोति स्वरूपे शमदमभावे शुद्धयुपयुक्तः
लोकव्यवहारविरतः वैयावृत्त्यं परं तस्य ।।४६०।।

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अर्थःजे मुनि शमदमभावरूप पोताना आत्मस्वरूपमां शुद्धोपयोगथी युक्त थईने प्रवर्ते छे तथा लोकव्यवहाररूप बाह्य वैयावृत्यथी जे विरक्त छे तेमने उत्कृष्ट (निश्चय) वैयावृत्त्य होय छे

भावार्थःशम एटले राग-द्वेषरहित साम्यभाव तथा दम एटले इन्द्रियोने विषयोमां न जवा देवी, एवा जे शमदमरूप पोताना आत्मस्वरूपमां जे मुनि तल्लीन होय छे, तेमने लोकव्यवहाररूप बाह्य- वैयावृत्त्य शा माटे होय? तेमने तो निश्चयवैयावृत्य ज होय छे. शुद्धोपयोगी मुनिजनोनी आ रीत छे.

हवे छ गाथाओमां स्वाध्यायतपने कहे छेः

परतत्तीणिरवेक्खो दुट्ठवियप्पाण णासणसमत्थो
तच्चविणिच्छयहेदू सज्झाओ झाणसिद्धियरो ।।४६१।।
परततिनिरपेक्षः दुष्टविकल्पानां नाशनसमर्थः
तत्त्वविनिश्चयहेतुः स्वाध्यायः ध्यानसिद्धिकरः ।।४६१।।

अर्थःजे मुनि परनिन्दामां निरपेक्ष छेवांच्छारहित छे तथा मनना दुष्टखोटा विकल्पोनो नाश करवामां समर्थ छे तेमने तत्त्वनो निश्चय करवाना कारणरूप तथा ध्याननी सिद्धि करवावाळुं स्वाध्याय नामनुं तप होय छे.

भावार्थःजे परनिंदा करवामां परिणाम राखे छे तथा मनमां आर्त्तरौद्रध्यानरूप खोटा विकल्पो चिंतवन कर्या करे, तेनाथी शास्त्राभ्यासरूप स्वाध्याय शी रीते थाय? माटे ए सर्व छोडीने जे स्वाध्याय करे तेने तत्त्वनो निश्चय तथा धर्मशुक्लध्याननी सिद्धि थाय. एवुं स्वाध्यायतप छे.

पूयदिसु णिरवेक्खो जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए
कम्ममलसोहणट्ठं सुयलाहो सुहयरो तस्स ।।४६२।।
पूजदिषु निरपेक्षः जिनशास्त्रं यः पठति भक्त्या
कर्ममलशोधनार्थं श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ।।४६२।।

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अर्थःजे मुनि पोतानां पूजामाहात्म्यदिमां तो निरपेक्ष होयवांच्छारहित होय तथा भक्तिपूर्वक, कर्ममळ शोधन अर्थे, शास्त्राभ्यास करे तेने श्रुतनो लाभ सुखदायक थाय छे.

भावार्थःजे पोताना पूजामहिमा अदि माटे शास्त्राभ्यास करे छे तेने शास्त्राभ्यास सुखकारक थतो नथी, पण जे मात्र कर्मक्षय अर्थे ज जिनशास्त्रनो अभ्यास करे छे तेने ते सुखकारक थाय छे.

जो जिणसत्थं सेवदि पंडियमाणी फलं समीहंतो
साहम्मियपडिकूलो सत्थं पि विसं हवे तस्स ।।४६३।।
यः जिनशास्त्रं सेवते पण्डितमानी फलं समीहन्
साधर्मिकप्रतिकूलः शास्त्रं अपि विषं भवेत् तस्य ।।४६३।।

अर्थःजे पुरुष जिनशास्त्र तो भणे छे अने पोतानां पूजा लाभसत्कार इच्छे छे तथा जे साधर्मीसम्यग्द्रष्टिजैनजनोथी प्रतिकूळ छे ते पंडितंमन्य छे. जे पोते पंडित तो नथी अने पोताने पंडित माने छे तेने पंडितंमन्य कहे छे. एवाने ए ज शास्त्र विषरूप परिणमे छे.

भावार्थःजे जिनशास्त्रनो अभ्यास करीने पण तीव्रकषायी तथा भोगभिलाषी होय, जैनीजनोथी प्रतिकूळता राखे, एवा पंडितंमन्यने शास्त्र ज विष थाय छे, ते मुनि पण होय तो पण तेने वेषधारीपाखंडी ज कहीए छीए.

जो जुद्धकामसत्थं रायदोसेहिं परिणदो पढइ
लोयावंचणहेदुं सज्झाओ णिप्फलो तस्स ।।४६४।।
यः युद्धकामशास्त्रं रागद्वेषाभ्यां परिणतः पठति
लोकवञ्चनहेतुं स्वाध्यायः निष्फलः तस्य ।।४६४।।

अर्थजे पुरुष युद्धनां तथा कामकथानां शास्त्र राग-द्वेष परिणामपूर्वक लोकोने ठगवा माटे भणे छे तेनो स्वाध्याय निष्फळ छे.

भावार्थःजे पुरुष युद्धनां, कामकुतूहलनां, मंत्रज्योतिष


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-वैदिक अदिनां लौकिकशास्त्रो लोकोने ठगवा अर्थे भणे छे तेने स्वाध्याय शानो? अहीं कोई प्रश्न करे केमुनि अने पंडितपुरुषो तो बधांय शास्त्रो भणे छे; जो एम छे तो तेओ शा माटे भणे छे? तेनुं समाधानअहीं राग-द्वेषथी पोताना विषयआजीविकदिक पोषवा माटे, लोकोने ठगवा माटे, जे भणे छे तेनो निषेध छे. पण जे धर्मार्थी थयो थको कांईक (पारमर्थिक) प्रयोजन जाणी ए शास्त्रोने भणे, ज्ञान वधारवा माटे, परोपकार करवा माटे, पुण्यपापनो विशेष निर्णय करवा माटे, स्व-परमतनी चर्चा जाणवा माटे, अने पंडित होय तो धर्मनी प्रभावना थाय तेथी अर्थात् ‘जैनमतमां आवा पंडित छे’ इत्यदि प्रयोजन माटे, एवा शास्त्राभ्यासनो निषेध नथी, परंतु मात्र दुष्ट अभिप्रायथी भणे तेनो निषेध छे.

जो अप्पाणं जाणदि असुइसरीरादु तच्चदो भिण्णं
जाणगरूवसरूवं सो सत्थं जाणदे सव्वं ।।४६५।।
यः आत्मानं जानति अशुचिशरीरात् तत्त्वतः भिन्नम्
ज्ञायकरूपस्वरूपं सः शास्त्रं जानति सर्वम् ।।४६५।।

अर्थजे मुनि आ अपवित्र शरीरथी पोताना आत्माने परमार्थे भिन्नज्ञायकस्वरूप जाणे छे तेणे सर्व शास्त्रो जाण्यां.

भावार्थःजे मुनि शास्त्राभ्यास अल्प पण करे छे, परंतु जो पोताना आत्मानुं स्वरूप आ अशुचिमय शरीरथी भिन्न, ज्ञायक (देखवाजाणवावाळुं) शुद्धोपयोगस्वरूप छे एम जाणे छे तो ते बधांय शास्त्रो जाणे छे, परंतु जेणे पोतानुं स्वरूप तो जाण्युं नहि अने घणां शास्त्रो भण्यो तो तेथी शुं साध्य थयुं?

जो णवि जाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्णं
सो णवि जाणदि सत्थं आगमपाढं कुणंतो वि ।।४६६।।
यः न अपि जानति आत्मानं ज्ञानस्वरूपं शरीरतः भिन्नम्
सः न अपि जानति शास्त्रं आगमपाठं कुर्वन् अपि ।।४६६।।

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अर्थजे मुनि पोताना आत्माने ज्ञानस्वरूप अने शरीरथी भिन्न जाणतो नथी ते आगमनो पाठ करे छे तोपण शास्त्रने जाणतो नथी.

भावार्थःजे मुनि शरीरथी भिन्न एवा ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणतो नथी ते घणो शास्त्राभ्यास करे छे तोपण अभ्यास विनानो ज छे. शास्त्राभ्यासनो सार तो ए छे के पोतानुं स्वरूप जाणी राग -द्वेषरहित थवुं. हवे जो शास्त्र भणीने पण जो एम न थयुं तो ते शुं भण्यो? पोतानुं स्वरूप जाणी तेमां स्थिर थवुं ते निश्चय स्वाध्यायतप छे. वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय अने धर्मोपदेश ए प्रमाणे पांचे प्रकारनो व्यवहार स्वाध्याय छे अने ते व्यवहार पण निश्चयना माटे होय तो ते व्यवहार साचो छे; बाकी तो निश्चय विनानो व्यवहार थोथुं छे.

हवे व्युत्सर्गतप कहे छेेः

जल्लमललित्तगत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो
मुहधोवणदिविरओ भोयणसेज्जदिणिरवेक्खो ।।४६७।।
ससरूवचिंतणरओ दुज्जणसुयणाण जो हु मज्झत्थो
देहे वि णिम्ममत्तो काओसग्गो तवो तस्स ।।४६८।।
जल्लमललिप्तगात्रः दुःसहव्यधिषु निःप्रतीकारः
मुखधोवनदिविरतः भोजनशय्यदिनिरपेक्षः ।।४६७।।
स्वस्वरूपचिन्तनरतः दुर्जनसज्जनानां यः स्फु टं मध्यस्थः
देहे अपि निर्ममत्वः कायोत्सर्गः तपः तस्य ।।४६८।।

अर्थजे मुनि जल्ल अर्थात् परसेवो तथा मळथी लिप्त शरीरयुक्त होय, सहन न थई शके एवो तीव्र रोग थवा छतां पण तेनो प्रतिकारइलाज करे नहि, मुख धोवुं अदि शरीरनो संस्कार न करे, भोजनशैय्यदिनी वांच्छा न करे, पोताना स्वरूपचिंतवनमां रत लीन होय, दुर्जनसज्जनमां मध्यस्थ होय, शत्रुमित्र बंनेने बराबर


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जाणे, घणुं शुं कहीए, देहमां पण ममत्व रहित होय, तेमने कायोत्सर्ग नामनुं तप होय छे. मुनि कायोत्सर्ग करे त्यारे सर्व बाह्याभ्यंतरपरिग्रहनो त्याग करी, सर्व बाह्य आहारविहारदि क्रियाथी पण रहित थई, कायाथी ममत्व छोडी, मात्र पोताना ज्ञानस्वरूप आत्मामां राग-द्वेषरहित शुद्धोपयोगरूप थई तल्लीन थाय छे; ते वेळा भले अनेक उपसर्ग आवे, रोग आवे तथा कोई शरीरने कापी जाय, छतां तेओ स्वरूपथी चलित थता नथी तथा कोईथी राग-द्वेष ऊपजावता नथी; तेमने कायोत्सर्गतप कहे छे.

जो देहपालणपरो उवयरणादीविसेससंसत्तो
बहिरववहाररओ काओसग्गो कुदो तस्स ।।४६९।।
यः देहपालनपरः उपकरणदिविशेषसंसक्तः
बाह्यव्यवहाररतः कायोत्सर्गः कुतः तस्य ।।४६९।।

अर्थजे मुनि देहपालनमां तत्पर होय, उपकरणदिमां विशेष आसक्त होय, लोकरंजन करवा माटे बाह्यव्यवहारमां लीन होयतत्पर होय तेने कायोत्सर्गतप क्यांथी होय?

भावार्थःजे मुनि ‘लोको जाणे के आ मुनि छे’ एम विचारी बाह्यव्यवहार पूजाप्रतिष्ठदि तथा इर्यासमिति अदि क्रियामां तत्पर होय, आहारदि वदे देहपालन करवुं, उपकरणदिनी विशेष सारसंभाळ करवी, तथा शिष्यजनदिथी घणी ममता राखी प्रसन्न थवुं इत्यदिमां लीन होय, पण जेने पोताना आत्मस्वरूपनो यथार्थ अनुभव नथी तथा तेमां कदी पण तल्लीन थतो ज नथी, अने कायोत्सर्ग पण करे तो ऊभा रहेवुं अदि बाह्यविधान पण करी ले छतां तेने कायोत्सर्गतप कहेता नथी (कारण के) निश्चय विनानो बाह्यव्यवहार निरर्थक छे.

हवे ध्यान नामना तपनुं विस्तारथी वर्णन करे छेः

अंतोमुहुत्तमेत्तं लीणं वत्थुम्मि माणसं णाणं
झाणं भण्णदि समए असुहं च सुहं च तं दुविहं ।।४७०।।

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अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं लीनं वस्तुनि मानसं ज्ञानम्
ध्यानं भण्यते समये अशुभं च शुभं च तत् द्विविधम् ।।४७०।।

अर्थमनसंबंधी ज्ञान वस्तुमां अंतर्मुहूर्तमात्र लीन थवुं एकाग्र थवुं तेने सिद्धान्तमां ध्यान कह्युं छे, अने ते शुभ तथा अशुभ एवा बे प्रकारनुं कह्युं छे.

भावार्थःपरमार्थथी ज्ञाननो एकाग्र उपयोग ए ज ध्यान छे, अर्थात् ज्ञाननो उपयोग एक ज्ञेयवस्तुमां अंतर्मुहूर्तमात्र एकाग्र स्थिर थाय ते ध्यान छे अने ते शुभ तथा अशुभ एवा बे प्रकारथी छे.

हवे शुभअशुभ ध्याननां नाम तथा स्वरूप कहे छेः

असुहं अट्ट-रउद्दं धम्मं सुक्कं च सुहयरं होदि
अट्टं तिव्वकसायं तिव्वतमकसायदो रुद्दं ।।४७१।।
अशुभं आर्त-रौद्रं धर्म्यं शुक्लं च शुभकरं भवति
आर्त्तं तीव्रकषायं तीव्रतमकषायतः रौद्रम् ।।४७१।।

अर्थआर्त अने रौद्र ए बंने तो अशुभध्यान छे तथा धर्मध्यान अने शुक्लध्यान ए बंने शुभ तथा शुभतर छे. तेमां प्रथमनुं आर्तध्यान तो तीव्रकषायथी थाय छे तथा रौद्रध्यान अति तीव्रकषायथी थाय छे.

मंदकषायं धम्मं मंदतमकसायदो हवे सुक्कं
अकसाए वि सुयड्ढे केवलणाणे वि तं होदि ।।४७२।।
मन्दकषायं धर्म्यं मन्दतमकषायतः भवेत् शुक्लम्
अकषाये अपि श्रुताढये केवलज्ञाने अपि तत् भवति ।।४७२।।

अर्थधर्मध्यान मंदकषायथी थाय छे, अने शुक्लध्यान महामुनि श्रेणी चढे त्यारे तेमने अतिशय मंदकषायथी थाय छे, तथा कषायनो अभाव थतां श्रुतज्ञानीउपशांतकषायी, क्षीणकषायीने तथा केवळज्ञानीसयोगकेवळी, अयोगकेवळीने पण शुक्लध्यान होय छे.


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भावार्थःपंचपरमेष्ठी, दशलक्षणस्वरूपधर्म तथा आत्म- स्वरूपमां व्यक्त (प्रगट) राग सहित उपयोग एकाग्र थाय छे, त्यारे ते मंदकषाय सहित छे एम कह्युं छे अने ए ज धर्मध्यान छे. तथा शुक्लध्यान छे त्यां उपयोगमां व्यक्त राग तो नथी अर्थात् पोताना अनुभवमां पण न आवे एवा सूक्ष्म राग सहित (मुनि) श्रेणी चढे छे त्यां आत्मपरिणाम उज्ज्वल होय छे तेथी पवित्र गुणना योगथी तेने शुक्ल कह्युं छे. मंदतम कषायथी अर्थात् अतिशय मंद कषायथी ते होय छे तथा कषायनो अभाव थतां पण कह्युं छे.

हवे आर्त्तध्यान कहे छेः

दुक्खयरविसयजोए केम इमं चयदि इदि विचिंतंतो
चेट्ठदि जो विक्खित्तो अट्टज्झाणं हवे तस्स ।।४७३।।
मणहरविसयविओगे कह तं पावेमि इदि वियप्पो जो
संतावेण पयट्टो सो च्चिय अट्टं हवे झाणं ।।४७४।।
दुःखकरविषययोगे कथं इमं त्यजति इति विचिन्तयन्
चेष्टते यः विक्षिप्तः आर्त्तध्यानं भवेत् तस्य ।।४७३।।
मनोहरविषयवियोगे कथं तत् प्राप्नोमि इति विकल्पः यः
सन्तापेन प्रवृत्तः तत् एव आर्त्तं भवेत् ध्यानम् ।।४७४।।

अर्थदुःखकारी विषयनो संयोग थतां जे पुरुष आवुं चिंतवन करे के ‘आ माराथी केवी रीते दूर थाय?’ वळी तेना संयोगथी विक्षिप्तचित्तवाळो थयो थको चेष्टा करे तथा रुदनदिक करे तेने आर्त्तध्यान होय छे. वळी जे मनोहरवहाली विषयसामग्रीनो वियोग थतां आ प्रमाणे चिंतवन करे के‘तेने हवे हुं शी रीते पामुं?’ एम तेना वियोगथी संतापरूपदुःखरूप प्रवर्ते ते पण आर्तध्यान छे.

भावार्थःसामान्यपणे दुःखकलेशरूप परिणाम छे ते आर्त्तध्यान छे. ते दुःखमां एवो लीन रहे के बीजी कोई चेतनता (जाग्रति) ज रहे नहि. ए आर्त्तध्यान बे प्रकारथी कह्युं छेः प्रथम तो


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दुःखकारी सामग्रीनो संयोग थतां तेने दूर करवानुं ध्यान रहे, तथा बीजुं इष्टसुखकारी सामग्रीनो वियोग थतां तेने फरीथी मेळववानुं चिंतवन ध्यान रहे ते आर्त्तध्यान छे. अन्य ग्रंथोमां तेना चार भेद कह्या छे इष्टवियोगनुं चिंतवन, अनिष्टसंयोगनुं चिंतवन, पीडानुं चिंतवन तथा निदानबंधचिंतवन. अहीं बे कह्या तेमां आ चारेय गर्भित थई जाय छे. अनिष्टसंयोग दूर करवामां पीडाचिंतवन आवी जाय छे तथा इष्टने मेळववानी वांच्छामां निदानबंध आवी जाय छे. ए बंने ध्यान अशुभ छे, पापबंध करनारां छे; माटे धर्मात्मा पुरुषोए ते तजवा योग्य छे.

हवे रौद्रध्यान कहे छेः

हिंसाणंदेण जुदो असच्चवयणेण परिणदो जो दु
तत्थेव अथिरचित्तो रुद्दं झाणं हवे तस्स ।।४७५।।
हिंसानन्देन युतः असत्यवचनेन परिणतः यः तु
तत्र एव अस्थिरचित्तः रौद्रं ध्यानं भवेत् तस्य ।।४७५।।

अर्थजे पुरुष हिंसामां आनंदयुक्त होय, असत्यवचनरूप परिणमतो रहे अने त्यां ज विक्षिप्तचित्त रहे तेने रौद्रध्यान होय छे.

भावार्थःजीवघात करवो ते हिंसा छे. ए करीने जे अति हर्ष माने, शिकारदिमां अति आनंदथी प्रवर्ते, परने विघ्न थतां अति संतुष्ट थाय, जूठवचन बोली तेमां पोतानुं प्रवीणपणुं माने तथा परदोष निरंतर देख्या करेकह्या करे अने तेमां आनंद माने ते बधुं रौद्रध्यान छे. ए प्रमाणे आ बे भेद रौद्रध्यानना कह्या.

हवे (रौद्रध्यानना) बीजा बे भेद कहे छेः

परविसयहरणसीलो सगीयविसए सुरक्खणे दक्खो
तग्गयचिंतविट्ठो णिरंतरं तं पि रुद्दं पि ।।४७६।।
परविषयहरणशीलः स्वकीयविषये सुरक्षणे दक्षः
तद्गतचिन्तविष्टः निरन्तरं तदपि रौद्रं अपि ।।४७६।।

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अर्थःजे पुरुष परनी विषयसामग्री हरवाना स्वभाववाळो होय, पोतानी विषयसामग्रीनी रक्षा करवामां प्रवीण होय तथा ए बंने कार्योमां निरंतर चित्त तल्लीन राख्या करे ते पुरुषने ए पण रौद्रध्यान ज छे.

भावार्थःपरसंपदा चोरवामां प्रवीण होय, चोरी करीने हर्ष माने, पोतानी विषयसामग्री राखवानो अति प्रयत्न करे, तेनी रक्षा करीने खुशी थाय; ए प्रमाणे आ (चौर्यानंद तथा विषयसंरक्षणानंद) बे भेद पण रौद्रध्यानना छे. आ चारे भेदरूप रौद्रध्यान अति तीव्रकषायना योगथी थाय छेमहा पापरूप छे तथा महा पापबंधना कारणरूप छे. धर्मात्मा पुरुष एवा ध्यानने दूरथी ज छोडे छे. जेटलां कोई जगतने उपद्रवनां कारणो छे तेटलां रौद्रध्यानयुक्त पुरुषथी बने छे. जे पाप करी उलटो हर्ष मानेसुख माने तेने धर्मोपदेश पण लागतो नथी, ते तो अचेत जेवो अति प्रमादी बनी पापमां ज मस्त रहे छे.

हवे धर्मध्यान कहे छेः

बिण्णि वि असुहे झाणे पावणिहाणे य दुक्खसंताणे
णच्चा दूरे वज्जह धम्मे पुण आयरं कुणह ।।४७७।।
द्वे अपि अशुभे ध्याने पापनिधाने च दुःखसन्ताने
ज्ञात्वा दूरे वर्जत धर्मे पुनः आदरं कुरुत ।।४७७।।

अर्थःहे भव्यप्राणी! आ बंने आर्तरौद्रध्यान अशुभ छे. एनो, पापनां निधानरूप अने दुःखनां संतानरूप जाणी, दूरथी ज त्याग करो अने धर्मध्यानमां आदर करो!

भावार्थःआर्त्तरौद्र बंने ध्यान अशुभ छे, पापथी भरेलां छे अने एमां दुःखनी ज परंपरा चाल्या करे छे; माटे एनो त्याग करी धर्मध्यान करवानो श्रीगुरुनो उपदेश छे.

हवे धर्मनुं स्वरूप कहे छेः


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धम्मो वत्थुसहावो खमदिभावो य दसविहो धम्मो
रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ।।४७८।।
धर्मः वस्तुस्वभावः क्षमदिभावः च दशविधः धर्मः
रत्नत्रयं च धर्मः जीवानां रक्षणं धर्मः ।।४७८।।

अर्थःवस्तुनो स्वभाव ते धर्म छे, जेम जीवनो जे दर्शनज्ञानस्वरूप चैतन्यस्वभाव छे ते ज तेनो धर्म छे. वळी दस प्रकारना क्षमदि भाव ते धर्म छे, सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्ररूप रत्नत्रय छे ते धर्म छे तथा जीवोनी रक्षा करवी ते पण धर्म छे.

भावार्थःअभेदविवक्षाथी तो वस्तुनो स्वभाव छे ते ज धर्म छे अर्थात् जीवनो चैतन्यस्वभाव छे ते ज तेनो धर्म छे, भेदविवक्षाथी उत्तमक्षमदि दशलक्षण तथा रत्नत्रयदिक छे ते धर्म छे. निश्चयथी पोताना चैतन्यनी रक्षा करवी अर्थात् विभावपरिणतिरूप न परिणमवुं ते धर्म छे तथा व्यवहारथी परजीवोने विभावरूप दुःखक्लेशरूप न करवा अर्थात् तेना ज भेदरूप अन्य जीवोने प्राणांत न करवा ते पण धर्म छे.

हवे केवा जीवने धर्मध्यान होय ते कहे छेः

धम्मे एयग्गमणो जो णवि वेदेदि पंचहा-विसयं
वेरग्गमओ णाणी धम्मज्झाणं हवे तस्स ।।४७९।।
धर्मे एकाग्रमनाः यः नैव वेदयति पंचधविषयम्
वैराग्यमयः ज्ञानी धर्मध्यानं भवेत् तस्य ।।४७९।।

अर्थःजे ज्ञानीपुरुष धर्ममां एकाग्रचित्त थई वर्ते, पांचे इन्द्रियोना विषयोने न वेदे (अनुभवे) तथा वैराग्यमय होय ते ज्ञानीने धर्मध्यान होय छे.

भावार्थःध्याननुं स्वरूप एक ज्ञेयमां ज्ञाननुं एकाग्र थवुं ते छे. जे पुरुष धर्ममां एकाग्रचित्त करे छे ते काळमां ते इन्द्रियविषयोने


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वेदतो नथी अने तेने ज धर्मध्यान होय छे. तेनुं मूळ कारण संसार देहभोगथी वैराग्य छे, कारण के वैराग्य विना धर्ममां चित्त थंभतुं नथी.

सुविसुद्धरायदोसो बहिरसंकप्पवज्जिओ धारो
एयग्गमणो संतो जं चिंतइ तं पि सुहज्झाणं ।।४८०।।
सुविशुद्धरागद्वेषः बाह्यसंकल्पवर्जितः धीरः
एकाग्रमनाः सन् यत् चिन्तयति तदपि शुभध्यानम् ।।४८०।।

अर्थःजे पुरुष राग-द्वेषरहित थई, बाह्यसंकल्पोथी छूटी, धीरचित्तथी एकाग्रमनवाळो थई जे चिंतवन करे छे, ते पण शुभध्यान छे.

भावार्थःजे राग-द्वेषमयी परवस्तु संबंधी संकल्प छोडी कोईनो चळाव्यो पण न चळे एवो एकाग्रचित्त बनी चिंतवन करे छे ते पण शुभध्यान छे.

ससरूवसमुब्भासो णट्ठममत्तो जिदिंदिओ संतो
अप्पाणं चिंतंतो सुहझाणरओ हवे साहू ।।४८१।।
स्वस्वरूपसमुद्भासः नष्टममत्वः जितेन्द्रियः सन्
आत्मानं चिन्तयन् शुभध्यानरतः भवेत् साधुः ।।४८१।।

अर्थःजे साधु, पोताना स्वस्वरूपनो समुद्भास एटले प्रगटता थई छे जेने एवो थयो थको, परद्रव्यमां नष्ट थयुं छे ममत्व जेने एवो बनीने, जीत्या छे इन्द्रियविषय जेणे एवो थई एक आत्मानुं चिंतवन करतो थको प्रवर्ते छे ते साधु शुभ ध्यानमां लीन होय छे.

भावार्थःजेने पोताना स्वस्वरूपनो प्रतिभास थयो होय, जे परद्रव्यमां ममत्व न करतो होय, अने इन्द्रियोने वश करे, ए प्रमाणे जे आत्मानुं चिंतवन करे ते साधु शुभ ध्यानमां लीन होय छे. बीजाने शुभ ध्यान होतुं नथी.


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वज्जियसयलवियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरुंधंतो
जं चिंतदि साणंदं तं धम्मं उत्तमं झाणं ।।४८२।।
वर्जितसकलविकल्पः आत्मस्वरूपे मनः निरुन्धन्
यत् चिन्तयति सानन्दं तत् धर्म्यं उत्तमं ध्यानम् ।।४८२।।

अर्थःजे बधाय अन्य विकल्पोने छोडी, आत्मस्वरूपमां मनने रोकी आनंद सहित चिंतवन होय ते उत्तम धर्मध्यान छे.

भावार्थःसमस्त अन्य विकल्परहित आत्मस्वरूपमां मनने स्थिर करवाथी जे आनंदरूप चिंतवन कहे छे ते उत्तम धर्मध्यान छे. अहीं संस्कृत टीकाकारे अन्य ग्रंथानुसार धर्मध्याननुं विशेष कथन कर्युं छे; तेने संक्षेपमां लखीए छीएः

धर्मध्यानना चार भेद कह्या छे. आज्ञविचय, अपायविचय, विपाकविचय, तथा संस्थानविचय. त्यां जीवदिक छ द्रव्य, पंचस्तिकाय, सात तत्त्व अने नव पदार्थोनां विशेष स्वस्वरूपविशिष्ट गुरुना अभावथी तथा पोतानी मंदबुद्धिवश प्रमाण-नय निक्षेपथी साधी शकाय एवुं (स्वरूप) जाण्युं न जाय त्यारे एवुं श्रद्धान करे के ‘जे सर्वज्ञवीतरागदेवे कह्युं छे ते मारे प्रमाण छे’ ए प्रमाणे आज्ञा मानी ते अनुसार पदार्थोमां उपयोगने स्थिर करे ते आज्ञविचय-धर्मध्यान छे.

‘अपाय’ नाम नाशनुं छे. त्यां जेम कर्मोनो नाश थाय तेम चिंतवे, मिथ्यात्वभाव ए धर्ममां विध्ननुं कारण छे तेनुं चिंतवन राखे अर्थात् ते पोतानामां न थवा देवानुं अने परने मटवानुं चिंतवन राखे ते अपायविचय छे.

‘विपाक’ नाम कर्मना उदयनुं छे. त्यां जेवो कर्मनो उदय थाय तेना तेवा स्वरूपनुं चिंतवन करे ते विपाकविचय छे.

१.सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते
आज्ञसिद्धं तु तद्गाह्यं नान्यथावदिनो जिनाः ।।