Page 237 of 297
PDF/HTML Page 261 of 321
single page version
अर्थः — कारण के पुण्यनी वांच्छाथी कांई पुण्यबंध थतो नथी, परंतु वांच्छा रहित पुरुषने पुण्यबंध थाय छे एटला माटे पण अर्थात् एम जाणीने पण हे यतीश्वर! तमे पुण्यमां पण वांच्छा – आदर न करो!
भावार्थः — अहीं मुनिजनोने उपदेश्या छे के — पुण्यनी वांच्छाथी पुण्यबंध थतो नथी, पुण्यबंध तो आशा मटतां बंधाय छे. माटे पुण्यनी आशा पण न करो, मात्र पोताना स्वरूपनी प्रप्तिनी आशा करो.
अर्थः — मंदकषायरूप परिणमेलो जीव पुण्यने बांधे छे, माटे पुण्यबंधनुं कारण मंदकषाय छे, पण वांच्छा पुण्यबंधनुं कारण नथी. पुण्यबंध मंदकषायथी थाय छे अने तेनी (पुण्यबंधनी) वांच्छा छे ते तो तीव्रकषाय छे माटे वांच्छा करवी नहि. निर्वांच्छक पुरुषने पुण्यबंध थाय छे. लौकिकमां पण कहे छे के जे चाहना करे तेने कांई मळतुं नथी अने चाहविनानाने घणुं मळे छे; माटे वांच्छानो तो निषेध ज छे.
प्रश्नः — अध्यात्मग्रंथोमां तो पुण्यनो निषेध घणो कर्यो छे अने पुराणोमां पुण्यनो ज अधिकार छे; माटे अमे तो एम जाणीए छीए के संसारमां पुण्य ज मोटी वस्तु छे, तेनाथी तो अहीं इन्द्रियोनां सुख मळे छे. मनुष्यपर्याय, सारी संगति, भलुं शरीर अने मोक्षसाधनना उपाय एनाथी मळे छे, त्यारे पापथी तो नरक-निगोदमां जाय, त्यां मोक्षनुं साधन पण क्यांथी मळे? माटे एवां पुण्यनी वांच्छा केम न करवी?
समाधानः — ए कह्युं ते तो साचुं छे, परंतु मात्र भोगना अर्थे पुण्यनी वांच्छानो अत्यंत निषेध छे. कारण के भोगना अर्थे पुण्यनी
Page 238 of 297
PDF/HTML Page 262 of 321
single page version
वांच्छा करे छे तेने प्रथम तो सतिशय पुण्यबंध थतो ज नथी, अने तपश्चराणदि करी कांईक पुण्य बांधी भोग पामे अने त्यां अति तृष्णापूर्वक भोगोने सेवे तो नरक – निगोद ज पामे, तथा बंध-मोक्षनुं स्वरूप साधवा माटे पुण्य पामे तेनो तो निषेध छे नहि. पुण्यथी मोक्ष साधवानी सामग्री मळे एवो उपाय राखे तो त्यां परंपराए मोक्षनी ज वांच्छा थई – पुण्यनी वांच्छा न थई. जेम कोई पुरुष भोजन करवानी वांच्छाथी रसोईनी सामग्री भेळी करे तेनी वांच्छा पहेली होय तो तेने भोजननी ज वांच्छा कहेवाय, परंतु भोजननी वांच्छा विना मात्र सामग्रीनी ज वांच्छा करे तो त्यां सामग्री मळवा छतां पण प्रयासमात्र ज थयो पण कांई फळ तो न थयुं एम समजवुं. पुराणोमां पुण्यनो अधिकार छे ते पण मोक्षना ज अर्थे छे, संसारनो तो त्यां पण निषेध ज छे.
हवे दशलक्षणधर्म छे ते दयाप्रधान छे अने दया छे ते ज सम्यक्त्वनुं मुख्य चिह्न छे, कारण के सम्यक्त्व छे ते जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए तत्त्वार्थोनां ज्ञानपूर्वक श्रद्धानस्वरूप छे, ए होय तो सर्व जीवोने ते पोता समान अवश्य जाणे, तेओने दुःख थाय तो पोतानां दुःख माफक जाणे एटले तेओनी करुणा अवश्य थाय.
वळी पोतानुं शुद्धस्वरूप जाणे त्यारे कषायोने अपराधरूप - दुःखरूप जाणे अने तेमनाथी पोतानो घात जाणे त्यारे कषायभावना अभावने पोतानी दया माने; ए प्रमाणे अहिंसाने धर्म जाणे तथा हिंसाने अधर्म माने अने एवुं श्रद्धान, ते ज सम्यक्त्व छे. तेनां निःशंकितदि आठ अंग छे, तेने जीवदया उपर ज लगावीने अहीं कहे छे. त्यां —
प्रथम निःशंकितअंग कहे छेः —
Page 239 of 297
PDF/HTML Page 263 of 321
single page version
अर्थः — आम विचार करे के – शुं जीवदया धर्म छे के यज्ञमां पशुओनो वध करवारूप हिंसा छे ते धर्म छे? इत्यदि धर्ममां संशय थाय ते शंका छे अने तेवी शंका न करवी ते निःशंकित (गुण) छे.
भावार्थः — अहीं ‘अदि’ शब्दथी एम कह्युं छे के – दिगंबर यतिनो ज मोक्ष छे के तापसनो — पंचग्नि अदि तप करे छे तेमनो – पण छे? अथवा दिगम्बरनो ज मोक्ष छे के श्वेताम्बरनो पण छे? अथवा केवली कवलाहार करे छे के नथी करता? अथवा स्त्रीनो मोक्ष छे के नहि? अथवा जिनदेवे वस्तुने अनेकान्त कही छे ते सत्य छे के असत्य? आवी आशंका न करवी ते निःशंकित अंग छे.
अर्थः — निश्चयथी दयाभाव ज धर्म छे पण हिंसाभावने धर्म कही शकाय नहि आवो निश्चय थतां संदेहनो अभाव थाय छे, ते ज निर्मल निःशंकितगुण छे.
भावार्थः — अन्यमतीए मानेल जे विपरीत देव-धर्म-गुरुनो वा तत्त्वना स्वरूपनो सर्वथा निषेध करी जिनमतमां कहेलुं श्रद्धान करवुं ते निःशंकितगुण छे. ज्यां सुधी शंका रहे त्यां सुधी श्रद्धान निर्मळ थाय नहि.
हवे निःकांक्षितगुण कहे छेः —
Page 240 of 297
PDF/HTML Page 264 of 321
single page version
अर्थः — जे सम्यग्द्रष्टि दुर्धर तप करवा छतां पण स्वर्गनां सुखोने माटे धर्म आचरतो नथी तेने निःकांक्षितगुण होय छे. केवो छे ते? ते दुर्धर तप करी मात्र एक मोक्षने ज वांच्छे छे.
भावार्थः — जे मात्र एक मोक्षभिलाषाथी ज धर्मनुं आचरण करे छे, दुर्धर तप करे छे, पण स्वगारदिकनां सुखोने वांच्छतो नथी तेने निःकांक्षितगुण होय छे.
हने निर्विचिकित्सागुण कहे छेः —
अर्थः — प्रथम तो देहनो स्वभाव ज दुर्गन्ध – अशुचिमय छे अने बहारमां स्नानदि संस्कारना अभावथी वधारे अशुचि – दुर्गन्धरूप देखाय छे एवा, दश प्रकारना यतिधर्म संयुक्त, मुनिराजना देहने देखीने तेमनी अवज्ञा न करवी ते निर्विचिकित्सागुण छे.
भावार्थः — सम्यग्द्रष्टिपुरुषनी द्रष्टि मुख्यपणे सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चरित्ररूप गुणो उपर पडे छे, देह तो स्वभावथी ज अशुचि – दुर्गन्धरूप छे, तेथी मुनिराजना देह तरफ शुं देखे? तेमना रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चरित्र) तरफ देखे तो ग्लनि शी रीते आवे? ए ग्लनि न उपजाववी ते ज निर्विचिकित्सागुण छे. पण जेने सम्यक्त्वगुण प्रधान नथी तेनी द्रष्टि पहेली देह उपर पडतां ज तेने ग्लनि ऊपजे छे, अने त्यारे आ गुण तेने नथी (एम समजवुं).
हवे अमूढद्रष्टिगुण कहे छेः —
Page 241 of 297
PDF/HTML Page 265 of 321
single page version
अर्थः — जे भयथी, लज्जाथी तथा लाभथी पण हिंसाना आरंभने धर्म न माने ते पुरुष अमूढद्रष्टिगुण संयुक्त छे. केवो छे ते? जिनवचनमां लीन छे, भगवाने ‘अहिंसाने ज धर्म कह्यो छे’ एवी द्रढ श्रद्धा युक्त छे.
भावार्थः — अन्यमतीओ यज्ञदिक हिंसामां धर्म स्थापे छे तेने राजाना भयथी, कोई व्यंतरना भयथी, लोकनी लजजाथी वा कोई धनदिकना लोभथी इत्यदि अनेक कारणोथी पण धर्म न माने, परंतु एवी श्रद्धा राखे के ‘धर्म तो भगवाने अहिंसाने ज कह्यो छे’ तेने अमूढद्रष्टिगुण कहे छे. अहीं हिंसारंभ कहेवाथी हिंसाना प्ररूपक देव -शास्त्र-गुरु अदिमां पण मूढद्रष्टिवान न थाय — एम समजवुं.
हवे उपगूहनगुण कहे छेः —
अर्थः — जे सम्यग्द्रष्टि परना दोषने ढांके – गोपवे तथा पोताना सुकृत अर्थात् पुण्य – गुणो लोकमां प्रकाशे नहि – कहेतो फरे नहि, पण आवी भावनामां लीन रहे के ‘जे भवितव्य छे ते थाय छे तथा थशे’ ते उपगूहनगुणवाळो छे.
भावार्थः — ‘जे कर्मनो उदय छे ते अनुसार लोकमां मारी प्रवृत्ति छे अने जे थवा योग्य छे ते ज थाय छे’ एवी भावना सम्यग्द्रष्टिने
Page 242 of 297
PDF/HTML Page 266 of 321
single page version
रहे छे. तेथी ते पोताना गुणने अने परना दोषने प्रकाशतो फरतो नथी. वळी साधर्मीजनमां वा पूज्य पुरुषोमां कर्मोदयवश कोई दोष जणाय तो तेने छुपावे – उपदेशदिकथी ते दोष छोडावे, पण एम न करे के जेथी तेनी अने धर्मनी निन्दा थाय. धर्म तथा धर्मात्मामांथी दोषनो अभाव करवो. त्यां छुपाववुं ए पण अभाव करवा तुल्य छे अर्थात् जेने लोक न जाणे ते अभाव बराबर ज छे. ए प्रमाणे उपगूहनगुण होय छे.
हवे स्थितिकरणगुण कहे छेः —
अर्थः — धर्मथी चलायमान थता एवा अन्यने धर्ममां स्थापवो तथा पोताना आत्माने पण (धर्मथी) चलित थतो (धर्ममां) द्रढ करवो. तेने निश्चयथी स्थितिकरणगुण होय छे.
भावार्थः — धर्मथी चलित थवानां अनेक कारणो होय छे, त्यां निश्चय – व्यवहाररूप धर्मथी परने तथा पोताने चलित थतो जाणी उपदेशथी वा जेम बने तेम द्रढ करवो तेने स्थितिकरणगुण होय छे.
हवे वात्सल्यगुण कहे छेः —
अर्थः — जे सम्यग्द्रष्टिजीव धर्मिक अर्थात् सम्यग्द्रष्टिश्रावक – मुनिजनोमां भक्तिवान होय, परमश्रद्धापूर्वक तेओना अनुसारे प्रवर्ते तथा प्रियवचन बोलतो थको प्रवर्ते ते भव्यने वात्सल्यगुण होय छे.
Page 243 of 297
PDF/HTML Page 267 of 321
single page version
भावार्थः — वात्सल्यगुणमां धर्मानुराग प्रधान होय छे. धर्मात्मापुरुषोमां जेने उत्कृष्टपणे भक्ति – अनुराग होय, तेओमां प्रियवचन सहित जे प्रवर्ते, तेमनां भोजन – गमन – आगमन अदि क्रियामां अनुचर जेवो बनी जे प्रवर्ते तथा गाय – वाछरडा जेवी प्रीति राखे तेने वात्सल्यगुण होय छे.
हवे प्रभावनागुण कहे छेः —
अर्थः — जे सम्यग्द्रष्टि, भव्यजीवोनी पासे पोताना ज्ञान द्वारा दशभेदरूप धर्मने प्रगट करे, तथा पोताना आत्माने पण दशप्रकाररूप धर्मथी प्रकशित करे तेने प्रभावनागुण होय छे.
भावार्थः — धर्मने विख्यात करवो ते प्रभावनागुण छे, त्यां उपदेशदिकथी तो परमां धर्मने प्रगट करे तथा पोताना आत्माने पण दशविधधर्मना अंगीकारथी कर्मकलंकरहित प्रकशित करे तेने प्रभावनागुण होय छे.
अर्थः — जे सम्यग्द्रष्टिपुरुष, पोताना ज्ञानबळथी अनेक प्रकारनी युक्तिपूर्वक वदिजनोनुं निराकरण करी तथा न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार अने सहित्यविद्याथी वक्तापणा वा शास्त्ररचना – द्वारा अनेक
Page 244 of 297
PDF/HTML Page 268 of 321
single page version
प्रकारनी युक्तिथी वदिजनोनुं निराकरण करी वा अतिशय – चमत्कार – पूजाप्रतिष्ठा वडे वा महान दुर्धर तपश्चरणथी जिनशासननुं माहात्म्य प्रगट करे तेने प्रभावनागुण निर्मळ थाय छे.
भावार्थः — आ प्रभावनागुण महान गुण छे. तेनाथी अनेक जीवोने धर्मनी अभिरुचि – श्रद्धा उत्पन्न थाय छे. सम्यग्द्रष्टि पुरुषोने (प्रभावनागुण) अवश्य होय छे.
हवे ‘निःशंकितदि गुणो केवा पुरुषने होय छे?’ ते कहे छेः —
अर्थः — जे पुरुष परनी निंदा न करे, शुद्ध आत्माने वारंवार चिंतवतो होय, तथा इन्द्रियसुखनी अपेक्षा – वांच्छारहित होय तेने निःशंकितदि आठ गुण अने अहिंसाधर्मरूप सम्यक्त्व होय छे.
भावार्थः — अहीं त्रण विशेषण छे. तेमनुं तात्पर्य ए छे के जे परनी निंदा करे तेने निर्विचिकित्सा, उपगूहन, स्थितिकरण तथा वात्सल्यगुण क्यांथी होय? माटे परनो निंदक न होय त्यारे आ चार गुण होय छे. वळी जेने पोताना आत्माना वस्तुस्वरूपमां शंका – संदेह होय तथा मूढद्रष्टि होय ते पोताना आत्माने वारंवार शुद्ध कयांथी चिंतवे? तेथी जे पोताने शुद्ध भावे (चंतवे) तेने ज निःशंकित अने अमूढद्रष्टिगुण होय छे तथा प्रभावना पण तेने ज होय छे. वळी जेने इन्द्रियसुखनी वांच्छा होय तेने निःकांक्षितगुण होतो नथी, पण इन्द्रियसुखनी वांच्छारहित थतां ज निःकांक्षितगुण होय छे. ए प्रमाणे आठ गुणो होवानां आ त्रण विशेषणो छे.
हवे कहे छे के जेम आ आठ गुण धर्ममां कह्या तेम देव-गुरु अदिमां पण समजवाः —
Page 245 of 297
PDF/HTML Page 269 of 321
single page version
अर्थः — जेम आ निःशंकितदि आठ गुण धर्ममां प्रगट थाय छे तेम देवना स्वरूपमां, गुरुना स्वरूपमां, छ द्रव्य – पंचस्तिकाय – साततत्त्व – नवपदार्थना स्वरूपमां पण होय छे. तेने प्रवचन — सिद्धान्तथी समजवा. आ आठ गुण सम्यक्त्वने निरतिचार विशुद्ध करवावाळा छे.
भावार्थः — देव, गुरु अने तत्त्वमां शंका न करवी, तेनी यथार्थ श्रद्धा वडे इन्द्रियसुखनी वांच्छारूप कांक्षा न करवी, तेमां ग्लनि न लाववी, तेमां मूढद्रष्टि न राखवी, तेना दोषोनो अभाव करवो वा तेने ढांकवा, तेनुं श्रद्धान द्रढ करवुं, तेमां वात्सल्य एटले विशेष अनुराग करवो अने तेनुं माहात्म्य प्रगट करवुं — ए आठ गुण तेमां (देव – गुरु तथा तत्त्वदिकमां) जाणवा. आगळ सम्यग्द्रष्टि थई गया तेओनी कथा जिनप्रवचनथी जाणवी. आ आठे गुणो अतिचारदोष दूर करी सम्यक्त्वने निर्मळ करवावाळा छे, एम समजवुं.
हवे ‘आ धर्मने जाणवावाळा तथा आचरवावाळा दुर्लभ छे’ एम कहे छेः —
अर्थः — आ संसारमां प्रथम तो जीव धर्मने जाणतो ज नथी, वळी कोई प्रकारथी घणां कष्ट वडे जो जाणे छे तो त्यां मोहरूप पिशाचथी भ्रमित थतो थको धर्म आचरवाने समर्थ थतो नथी.
Page 246 of 297
PDF/HTML Page 270 of 321
single page version
भावार्थःअनदि संसारथी मिथ्यात्व वडे भ्रमित एवो आ प्राणी प्रथम तो धर्मने जाणतो ज नथी. वळी कोई काळलब्धिथी, गुरुना संयोगथी अने ज्ञानावरणीना क्षयोपशमथी कदपि जाणे छे तो त्यां एने आचरवो दुर्लभ छे.
हवे धर्मग्रहणनुं माहात्म्य द्रष्टान्तपूर्वक कहे छेः —
अर्थः — जेम आ जीव पुत्र – कलत्रमां तथा काम – भोगमां रति – प्रीति करे छे तेम जो जिनेन्द्रना वीतरागधर्ममां करे तो लीलामात्र अल्प काळमां ज सुखने प्राप्त थाय.
भावार्थः — आ प्राणीने जेवी संसारमां तथा इन्द्रियविषयोमां प्रीति छे, तेवी जो जिनेश्वरना दशलक्षणधर्मस्वरूप वीतरागधर्ममां प्रीति थाय तो थोडा ज काळमां ते मोक्षने पामे.
हवे कहे छे के जीव लक्ष्मी इच्छे छे पण ते धर्म विना क्यांथी होय?
अर्थः — आ जीव लक्ष्मीने इच्छे छे पण जिनेन्द्रना कहेला मुनि – श्रावकधर्ममां आदर-प्रीति करतो नथी, परंतु लक्ष्मीनुं कारण तो धर्म छे एटले ए विना ते क्यांथी आवे? जेम बीज विना धान्यनी उत्पत्ति क्यांय देखाय छे? नथी देखाती.
Page 247 of 297
PDF/HTML Page 271 of 321
single page version
भावार्थः — जेम बीज विना धान्य न थाय तेम धर्म विना संपदा पण न थाय ए प्रसिद्ध छे.
हवे धर्मात्माजीवोनी प्रवृत्ति कहे छेः —
अर्थः — जे जीव धर्ममां स्थिर छे ते वैरीओना समूह पर पण क्षमाभाव करे छे, परद्रव्यने तजे छे – अंगीकार करतो नथी तथा परस्त्रीने माता, बहेन अने पुत्री समान गणे छे.
अर्थः — जे जीव धर्ममां स्थिर छे तेनी सर्व लोकमां कीर्ति (प्रसंशा) थाय छे, सर्व लोक तेनो विश्वास करे छे; वळी ते पुरुष सर्वने प्रिय वचन कहे छे जेथी कोई दुःखी थतो नथी, ते पुरुष पोताना अने परना दिलने शुद्ध – उज्ज्वळ करे छे, कोईने तेना माटे कलुषता रहेती नथी, तेम तेने पण कोईना माटे कलुषता रहेती नथी, टूंकमां धर्म सर्व प्रकारथी सुखदायक छे.
हवे धर्मनुं माहात्म्य कहे छेः —
Page 248 of 297
PDF/HTML Page 272 of 321
single page version
अर्थः — सम्यक्त्व सहित उत्तमधर्मयुक्त जीव भले तिर्यंच हो तोपण उत्तम देवपदने प्राप्त थाय छे तथा सम्यक्त्व सहित उत्तम धर्मथी चंडाल पण देवोनो इन्द्र थाय छे.
अर्थः — आ जीवने उत्तम धर्मना प्रसादथी अग्नि पण बरफ थई जाय छे, सर्प छे ते उत्तम रत्नमाळा थई जाय छे तथा देव छे ते किंकर – दास बनी जाय छे.
अर्थः — उत्तम धर्म सहित जीवने तीक्ष्ण खड्ग पण फूलनी माळा बनी जाय छे, जीत्यो न जाय एवो दुर्जय वेरी पण सुख करवावाळो स्वजन अर्थात् मित्र बनी जाय छे, तथा हळाहळ झेर छे ते पण अमृतरूप परिणमी जाय छे; घणुं शुं कहीए महान आपदा पण संपदा बनी जाय छे.
अर्थः — धर्मना प्रभावथी जीवनां जूठ वचन पण सत्य थई जाय छे, उद्यम रहितने पण लक्ष्मीनी प्रप्ति थाय छे तथा अन्यायकार्य
Page 249 of 297
PDF/HTML Page 273 of 321
single page version
पण सुख करवावाळां थाय छे.
भावार्थः — अहीं आ अर्थ समजवो के जो पूर्वे धर्म सेव्यो होय तो तेना प्रभावथी अहीं जूठ बोले ते पण साच बनी जाय छे, उद्यम विना पण संपत्ति मळी जाय छे, अन्यायरूप वर्ते तोपण ते सुखी रहे छे, अथवा कोई जूठ वचननो तुक्को लगावे तोपण अंतमां ते साचो थई जाय छे तथा ‘अन्याय कर्यो’ एम लोको कहे छे, तो त्यां न्यायवाळानी सहाय ज थाय छे एम पण समजवुं.
हवे धर्म रहित जीवनी निंदा कहे छेः —
अर्थः — धर्म रहित जीव छे ते मिथ्यात्ववश देव पण वनस्पतिकाय एकेन्द्रिय बनी जाय छे, तथा धर्म रहित चक्रवर्ती पण नरकमां पडे छे; तेमां कोई संदेह नथी.
अर्थः — धर्मरहित जीव जोके मोटुं, बीजाथी न थई शके तेवुं, साहसिक पराक्रम करे तोपण तेने इष्ट वस्तुनी प्रप्ति थती नथी, पण उलटो मात्र अतिशय अनिष्टने प्राप्त थाय छे.
भावार्थः — पापना उदयथी भलुं करतां पण बूरुं थाय छे ए जगप्रसिद्ध छे.
Page 250 of 297
PDF/HTML Page 274 of 321
single page version
अर्थः — हे प्राणी! आ प्रमाणे धर्म तथा अधर्मनुं अनेक प्रकारनुं माहात्म्य प्रत्यक्ष जोईने तमे धर्मनुं आचरण करो तथा पापने दूरथी ज छोडो!
भावार्थः — दश प्रकारथी धर्मनुं स्वरूप कही आचार्यदेवे अधर्मनुं फळ पण बताव्युं; अने हवे अहीं आ उपदेश आप्यो के, हे प्राणी! धर्म – अधर्मनुं प्रत्यक्ष फळ लोकमां जोईने तमे धर्मने आचरो तथा पापने छोडो! आचार्य महान निष्कारण उपकारी छे, पोताने कांई जोईतुं नथी, मात्र निस्पृह थया थका जीवोना कल्याण अर्थे ज वारंवार कही प्राणीओने जगाडे छे; एवा श्रीगुरु वंदन – पूजन योग्य छे. ए प्रमाणे यतिधर्मनुं व्याख्यान कर्युं.
Page 251 of 297
PDF/HTML Page 275 of 321
single page version
हवे धर्मानुप्रेक्षानी चूलिका कहेता थका आचार्यदेव बार प्रकारनां तपविधाननुं निरूपण करे छेः —
अर्थः — जिनागममां बार प्रकारनुं तप संक्षेपमां कह्युं छे. केवुं छे तप? कर्म निर्जरानुं कारण छे. तेना प्रकार हवे कहीशुं ते जाणवा.
भावार्थः — निर्जरानुं कारण तप छे अने तेना बार प्रकार छे. अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशैयासन अने कायक्लेश ए छ प्रकारनां बाह्यतप छे तथा प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग अने ध्यान ए छ प्रकारनां अंतरंगतप छे. तेनुं ज व्याख्यान हवे करीए छीए. तेमां पहेलां अनशन नामना तपने चार गाथामां कहे छेः —
अर्थः — इन्द्रियोना उपशमनने अर्थात् तेमने विषयोमां न जवा देवी तथा मनने पोताना आत्मस्वरूपमां जोडवुं तेने मुनीन्द्रोए उपवास कह्यो छे. एटला माटे जितेन्द्रिय पुरुषने, आहार करतो छतां पण, उपवास सहित ज कह्यो छे.
Page 252 of 297
PDF/HTML Page 276 of 321
single page version
भावार्थः — इन्द्रियोने जीतवी ते उपवास छे; एटला माटे भोजन करता होवा छतां पण यतिपुरुष उपवासी ज छे, कारण के तेओ इन्द्रियोने वश करी प्रवर्ते छे.
अर्थः — जे मन अने इन्द्रियोनो जीतवावाळो छे, आ भव परभवना विषयसुखोमां अपेक्षारहित छे अर्थात् वांच्छा करतो नथी, पोताना आत्मस्वरूपमां ज रहे छे वा स्वाध्यायमां तत्पर छे, तथा कमरनिर्जरा अर्थे क्रीडा एटले लीलामात्र क्लेशरहित हर्षसहित एक दिवस अदिनी मर्यादापूर्वक जे आहारने छोडे छे तेने अनशनतप होय छे.
भावार्थः — उपवासनो एवो अर्थ छे के – इन्द्रिय तथा मन विषयोमां प्रवृत्तिरहित थई आत्मामां रहे ते उपवास छे. आलोक – परलोक संबंधी विषयोनी वांच्छा न करवी ते इन्द्रियजय छे तथा आत्मस्वरूपमां लीन रहेवुं वा शास्त्रना अभ्यास – स्वाध्यायमां मन लगाववुं ए उपवासमां प्रधान छे; वळी जेम क्लेश न ऊपजे एवी रीते क्रीडामात्रपणे एक दिवस अदिनी मर्यादारूप आहारनो त्याग करवो ते उपवास छे. ए प्रमाणे उपवास नामनुं अनशनतप थाय छे.
Page 253 of 297
PDF/HTML Page 277 of 321
single page version
अर्थः — जे उपवास करतो थको पण मोहथी आरंभ – गृह कायारदिकने करे छे तेने प्रथम गृहकार्यनो क्लेश तो हतो ज अने बीजो आ भोजन विना क्षुधा – तृषानो क्लेश थयो. एटले ए प्रमाणे थतां तो क्लेश ज थयो पण कमरनिर्जरा तो न थई.
भावार्थः — जे आहारने तो छोडे पण विषय – कषाय – आरंभने न छोडे तेने पहेलां तो क्लेश हतो ज अने हवे आ बीजो क्लेश भूख -तरसनो थयो, एवा उपवासमां कमरनिर्जरा क्यांथी थाय? कर्म निर्जरा तो सर्व क्लेश छोडी साम्यभाव करतां ज थाय छे. एम समजवुं.
हवे अवमोदर्यतप बे गाथामां कहे छेः —
अर्थः — जे तपस्वी आहारनी अति गृद्धि रहित थई सूत्रमां कह्या प्रमाणे चर्याना मार्गानुसार योग्य प्रासुक आहार पण अति अल्प ग्रहण करे तेने अवमोदर्यतप होय छे.
भावार्थः — मुनिराज आहारना छेंतालीस दोष, बत्रीस अंतराय टाळी चौद मळदोषरहित प्रासुक योग्य भोजन ग्रहण करे छे तोपण ते ऊणोदरतप करे छे, तेमां पण पोताना आहारना प्रमाणथी थोडो आहार ले छे. आहारनुं प्रमाण एक ग्रासथी बत्रीस ग्रास सुधी कह्युं छे तेमां यथाइच्छानुसार घटता प्रमाणमां (आहार) ले ते अवमोदर्यतप छे.
Page 254 of 297
PDF/HTML Page 278 of 321
single page version
अर्थः — जे मुनि कीर्तिने माटे वा माया – कपट करी वा मिष्ट भोजनना लाभ अर्थे अल्प भोजन करी तेने तपनुं नाम आपे छे तेनुं आ बीजुं अवमोदर्यतप निष्फळ छे.
भावार्थः — जे एम विचारे छे के अल्प भोजन करवाथी मारी प्रसंशा थशे, तथा कपटथी लोकने भूलावामां नाखी पोतानुं कोई प्रयोजन साधवा माटे वा थोडुं भोजन करवाथी मिष्टरस सहित भोजन मळशे एवा अभिप्रायथी ऊणोदरतप जे करे छे ते तप निष्फळ छे. ए तप नथी पण पाखंड छे.
हवे वृत्तिपरिसंख्यानतप कहे छेः —
अर्थः — मुनि आहार लेवा नीकळे त्यारे प्रथमथी ज मनमां आवी मर्यादा करी नीकळे के – आज एक घरे वा बे घरे वा त्रण घरे ज आहार मळी जाय तो लेवो, नहि तो पाछा फरवुं. वळी एक रसनी, आपवावाळानी तथा पात्रनी मर्यादा करे के आवो दातार, आवी पद्धतिथी, आवा पात्रमां धारण करी आहार आपे तो ज लेवो, सरस – नीरस वा फलाणो आहार मळे तो ज लेवो एम आहारनी पण मर्यादा करे, इत्यदिक वृत्तिनी संख्या – गणना – मर्यादा मनमां विचारी ए ज प्रमाणे (आहार) मळे तो ज ले, बीजा प्रकारे न ले. वळी, आहार ले तो गाय वगेरे पशुनी माफक आहार करे अर्थात् जेम गाय आम तेम जोया सिवाय मात्र चारो चरवा तरफ ज द्रष्टि राखे छे, तेम (मुनि आहार) ले तेने वृत्तिपरिसंख्यानतप कहे छे.
Page 255 of 297
PDF/HTML Page 279 of 321
single page version
भावार्थः — भोजननी आशानो निरास करवा सारुं आ तप करवामां आवे छे, कारण के संकल्प अनुसार विधि मळी जवी ए दैवयोग छे अने एवुं महान कठण तप महामुनि करे छे.
हवे रसपरित्यागतप कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि संसारदुःखथी भयभीत थई आ प्रमाणे विचारे छे के – इन्द्रियोना विषयो विष जेवा छे, विष खातां तो एक वार मरण थाय छे पण विषयरूप विषथी घणां जन्म-मरण थाय छे. एम विचारी जे नीरसभोजन करे छे तेने रसपरित्यागतप निर्मळ थाय छे.
भवार्थः — रस छ प्रकारना छे – घी, तेल, दहीं, मीठाई, लवण अने दूध एवो तथा खाटो, खारो, मीठो, कडवो, तीखो अने कषायेलो ए पण रस छे.★
ज रस छोडे, बे रस छोडे वा बधाय रस छोडे. ए प्रमाणे रसपरित्यागतप थाय छे.
प्रश्नः — कोई रसत्यागने जाणतो न होय अने मनमां ज त्याग करे तो ए प्रमाणे ज वृत्तिपरिसंख्यान पण छे तो पछी तेमां अने आमां तफावत शो?
समाधानः — वृत्तिपरिसंख्यानमां तो अनेक प्रकारना त्यागनी संख्या छे अने आमां रसनो ज त्याग छे एटली विशेषता छे. वळी ए पण
Page 256 of 297
PDF/HTML Page 280 of 321
single page version
विशेषता छे के – रसपरित्याग तो घणा दिवसनो पण थाय छे अने तेने श्रावक जाणी पण जाय छे त्यारे वृत्तिपरिसंख्यान घणा दिवसनुं थतुं नथी.
हवे विविक्तशैयासनतप कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि राग-द्वेषना कारणरूप आसन, शैया वगेरेने छोडे छे, सदाय पोताना आत्मस्वरूपमां स्थिर रहे छे तथा निर्विषय अर्थात् इन्द्रियविषयोथी विरक्त थाय छे ते मुनिने आ पांचमुं विविक्तशैयासनतप उत्कृष्ट थाय छे.
भावार्थः — बेसवानुं स्थान ते आसन छे अने सूवानुं स्थान ते शैया छे तथा ‘अदि’ शब्दथी मळमूत्रदि नाखवानुं स्थान समजवुं. ए त्रणे एवां होय के ज्यां राग – द्वेष उत्पन्न थाय नहि अने वीतरागता वधे, एवा एकान्त स्थानमां (मुनि) बेसे – सूवे, कारण के मुनिजनोने तो पोतानुं स्वरूप साधवुं छे पण इन्द्रियविषय सेववा नथी; माटे एकान्तस्थान कह्युं छे.