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पण निरतिचार व्रत पालन थतां नथी, तेथी तेने पक्षिक ज कह्यो छे.
वळी नैष्ठिक थाय छे त्यारे अनुक्रमे प्रतिमानी प्रतिज्ञा पळाय छे. आने अप्रत्याख्यानावरण कषायनो अभाव थयो छे तेथी पांचमा गुणस्थाननी प्रतिमा अतिचार रहित पळाय छे. त्यां प्रत्याख्यानावरणकषायना तीव्र – मंद भेदोथी अगियार प्रतिमाना भेद छे. जेम जेम कषाय मंद थतो जाय तेम तेम आगली प्रतिमानी प्रतिज्ञा थती जाय छे. त्यां एम कह्युं छे के घरनुं स्वमिपणुं छोडी गृहकार्य तो पुत्रदिकने सोंपे तथा पोते कषायहनिना प्रमाणमां प्रतिमानी प्रतिज्ञा अंगीकार करतो जाय. ज्यां सुधी सकलसंयम न ग्रहण करे त्यां सुधी – अगियारमी प्रतिमा सुधी नैष्ठिक श्रावक कहेवाय छे. ज्यारे मरणकाळ आव्यो जाणे त्यारे आराधन सहित थई, एकाग्रचित्त करी, परमेष्ठीना चिंतवनमां रही समधिपूर्वक प्राण छोडे ते साधक कहेवाय छे. एवुं व्याख्यान छे.
वळी कह्युं छे के गृहस्थ, द्रव्यनुं जे उपार्जन करे तेना छ भाग करे. एक भाग तो धर्मना अर्थे आपे, एक भाग कुटुंबना पोषणमां आपे, एक भाग पोताना भोगमां खरच करे, एक भाग पोताना स्वजनसमूहना व्यवहारमां खर्चे अने बाकीना बे भाग अनामत भंडार तरीके राखे. ते द्रव्य कोई मोटा पूजन वा प्रभावनामां अथवा काळ – दुकाळमां काम आवे. ए प्रमाणे करवाथी गृहस्थने आकुळता ऊपजे नहि अने धर्म साधी शकाय. अहीं संस्कृतटीकाकारे घणुं कथन कर्युं छे तथा पहेलांनी गाथाना कथनमां अन्य ग्रंथोनां कथन सधाय छे. कथन घणुं कर्युं छे ते बधुं संस्कृत टीकाथी जाणवुं, अहीं तो गाथानो ज अर्थ संक्षेपमां लख्यो छे, विशेष जाणवानी इच्छा होय तेणे रयणसार, वसुनंदीकृत श्रावकाचार, रत्नकरंडश्रावकाचार, पुरुषाथरसिद्धियुपाय, अमितगतिश्रावकाचार अने प्राकृतदोहाबंधश्रावकाचार इत्यदि ग्रंथोथी जाणवुं. अहीं संक्षेपमां कथन कर्युं छे. ए प्रमाणे बारभेदरूप श्रावकधर्मनुं वर्णन कर्युं.
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हवे मुनिधर्मनुं व्याख्यान करे छेः —
अर्थः — जे पुरुष रत्नत्रय अर्थात् निश्चय – व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चरित्रथी युक्त होय, क्षमदि भाव अर्थात् उत्तम क्षमाथी मांडी दस प्रकारना धर्मोथी नित्य – निरंतर परिणत होय, सुख – दुःख, तृण – कंचन, लाभ – अलाभ, शत्रु – मित्र, निन्दा – प्रसंशा अने जीवन – मरण अदिमां मध्यस्थ एटले के समभावरूप वर्ते अने राग- द्वेषथी रहित होय तेने साधु कहे छे, तेने ज धर्म कहे छे; कारण के जेमां धर्म छे ते ज धर्मनी मूर्ति छे, ते ज धर्म छे.
भावार्थः — अहीं रत्नत्रय सहित कहेवामां तेर प्रकारनुं चरित्र छे ते महाव्रत अदि मुनिनो धर्म छे, तेनुं वर्णन करवुं जोईए; परन्तु अहीं दस प्रकारना विशेष धर्मोनुं वर्णन छे. तेमां महाव्रत अदिनुं वर्णन पण गर्भित छे एम समजवुं.
हवे दस प्रकारना धर्मोनुं वर्णन करे छेः —
अर्थः — ते मुनिधर्म क्षमदि भावोथी दस प्रकारनो छे. केवो छे ते? सौख्यसार एटलो तेनाथी सुख थाय छे अथवा तेनामां सुख छे अथवा सुखथी साररूप छे – एवो छे. हवे कहेवामां आवनार दस प्रकारना धर्मो भक्तिथी, उत्तम धर्मानुरागथी जाणवा योग्य छे.
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भावार्थः — उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन्य अने ब्रह्मचर्य – एवा दस प्रकारना मुनिधर्म छे. तेमनुं जुदुं जुदुं व्याख्यान हवे करे छे.
हवे प्रथम ज उत्तम क्षमाधर्म कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि देव – मनुष्य – तिर्यंचदि द्वारा रौद्र भयानक घोर उपसर्ग थवा छतां पण क्रोधथी तप्तायमान न थाय ते मुनिने निर्मल क्षमा होय छे.
भावार्थः — जेम श्रीदत्तमुनि व्यंतरदेवकृत उपसर्गने जीती केवळज्ञान उपजावी मोक्ष गया, चिलातीपुत्रमुनि व्यंतरकृत उपसर्गने जीती सर्वाथरसिद्धि गया, स्वमिकर्तिकेयमुनि क्रोंचराजाकृत उपसर्गने जीती देवलोक गया, गुरुदत्तमुनि कपिलब्राह्मणकृत उपसर्गने जीती मोक्ष गया, श्रीधन्यमुनि चक्रराजकृत उपसर्गने जीती केवळज्ञान उपजावी मोक्ष गया, पांचसो मुनि दंडकराजाकृत उपसर्गने जीती सिद्धिने (मोक्षने) प्राप्त थया, गजसुकुमारमुनि पांशुलश्रेष्ठिकृत उपसर्गने जीती सिद्धिने प्राप्त थया, चाणक्य अदि पांचसो मुनि मंत्रीकृत उपसर्गने जीती मोक्ष गया, सुकुमालमुनि शियालणीकृत उपसर्गने सहन करी देव थया, श्रेष्ठिना बावीस पुत्रो नदीना प्रवाहमां पद्मासने शुभध्यान करी मरीने देव थया, सुकौशलमुनि वाघणकृत उपसर्गने जीती सर्वाथरसिद्धि गया तथा श्रीपणिकमुनि जळनो उपसर्ग सहीने मुक्त थया, तेम देव
अने अचेतनकृत उपसर्ग सहन कर्या छतां त्यां क्रोध न कर्यो तेमने उत्तम क्षमा थई. ए प्रमाणे उपसर्ग करवावाळा उपर पण क्रोध न ऊपजे त्यारे उत्तम क्षमा होय छे.
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त्यां क्रोधनुं निमित्त आवतां एवुं चिंतवन करे के जो कोई मारा दोष कहे छे ते जो मारामां विद्यमान छे तो ते शुं खोटुं कहे छे? – एम विचारी क्षमा करवी. वळी जो मारामां दोष नथी ए तो जाण्या विना कहे छे त्यां अज्ञानी उपर कोप शो करवो? – एम विचारी क्षमा करवी; अज्ञानीनो तो बाळस्वभाव चिंतववो, एटले बाळक तो प्रत्यक्ष पण कहे अने आ तो परोक्ष ज कहे छे ए ज भलुं छे, वळी प्रत्यक्ष पण कुवचन कहे तो आम विचारवुं के बाळक तो ताडन पण करे अने आ तो कुवचन ज कहे छे — ताडतो नथी ए ज भलुं छे, वळी जो ताडन करे तो आम विचारवुं के – बाळक अज्ञानी तो प्राणघात पण करे अने आ तो मात्र ताडन ज करे छे, पण प्राणघात तो नथी कर्यो – ए ज भलुं छे; वळी प्राणघात करे तो एम विचारवुं के अज्ञानी तो धर्मनो पण विध्वंस (नाश) करे छे अने आ तो प्राणघात करे छे, पण धर्मनो विध्वंस तो नथी करतो. वळी विचारे के में पूर्वे पापकर्म उपजाव्यां तेनुं आ दुर्वचनदि उपसर्ग – फळ छे. आ मारो ज अपराध छे बाकी अन्य तो निमित्तमात्र छे, इत्यदि चिंतवन करतां उपसगारदिना निमित्तथी क्रोध उत्पन्न थतो नथी अने उत्तम क्षमाधर्म सधाय छे.
हवे उत्तम मार्दवधर्म कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि उत्तमज्ञानथी तो प्रधान होय तथा उत्तम तपश्चरण करवानो जेनो स्वभाव होय तोपण पोताना आत्माने मदरहित करे – अनादररूप करे ते मुनिने उत्तम मार्दवधर्मरत्न होय छे.
भावार्थः — सकल शास्त्रने जाणवावाळो पंडित होय तोपण ज्ञानमद न करे. त्यां आम विचारे के माराथी मोटा अवधि –
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मनःपर्ययज्ञानी छे, केवळज्ञानी तो सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी छे, हुं कोण छुं? अल्पज्ञ छुं. वळी उत्तमतप करे तोपण तेनो मद न करे, पोते सर्व जति, कुळ, बळ, विद्या, ऐश्वर्य अने तप अदि वडे सर्वथी मोटो छे तोपण परकृत अपमानने पण सहन करे छे, परंतु त्यां गर्व करी कषाय उपजावतो नथी. त्यां उत्तम मार्दवधर्म होय छे.
हवे उत्तम आर्जवधर्म कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि मनमां वक्रता न चिंतवे, कायाथी वक्रता न करे, वचनथी वक्रता न बोले तथा पोताना दोषोने गोपवे नहि – छुपावे नहि ते मुनिने उत्तम आर्जवधर्म होय छे.
भावार्थः — मन-वचन-कायामां सरळता होय अर्थात् जे मनमां विचारे, ते ज वचनथी कहे अने ते ज कायाथी करे, पण बीजाने भुलवणीमां नाखवा-ठगवा अर्थे विचार तो कांई करवो अने कहेवुं बीजुं तथा करवुं वळी कांई बीजुं, त्यां मायाकषाय प्रबळ होय छे. एम न करे पण निष्कपट बनी प्रवर्ते, पोतानो दोष छुपावे नहि पण जेवो होय तेवो बाळकनी माफक गुरुनी पासे कहे त्यां उत्तम आर्जवधर्म होय छे.
हवे उत्तम शौचधर्म कहे छेेः —
अर्थः — जे मुनि समभाव अर्थात् राग-द्वेषरहित परिणाम अने
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संतोष अर्थात् संतुष्टभावरूप जळथी तृष्णा तथा लोभरूप मळसमूहने धोवे छे, भोजननी गृद्धि अर्थात् अति चाहनाथी रहित छे ते मुनिनुं चित्त निर्मळ छे, अने तेने उत्तम शौचधर्म होय छे.
भावार्थः — तृण – कंचनने समान जाणवुं ते समभाव छे तथा संतोष – संतुष्टपणुं – तृप्तभाव अर्थात् पोताना स्वरूपमां ज सुख मानवुं एवा भावरूप जळथी भविष्यमां मळवानी चाहनारूप तृष्णा तथा प्राप्त द्रव्यदिकमां अति लिप्तपणारूप लोभ, एना (ए बंनेना) त्यागमां अति खेदरूप मळने धोवाथी मन पवित्र थाय छे. मुनिने अन्य त्याग तो होय ज छे, परंतु आहारना ग्रहणमां पण तीव्र चाहना राखे नहि, लाभ – अलाभ, सरस – नीरसमां समभाव राखे तो उत्तम शौचधर्म होय छे. वळी जीवनलोभ, आरोग्य राखवानो लोभ, इन्द्रियो ताजी राखवानो लोभ तथा उपभोगनो लोभ ए प्रमाणे लोभनी चार प्रकारथी प्रवृत्ति छे, ते चारेने पोतासंबंधी तथा पोताना स्वजन – मित्रदि संबंधी एम बंने माटे इच्छे त्यारे तेनी (लोभनी) आठ भेदरूप प्रवृत्ति थाय छे. ज्यां आ प्रमाणे बधोय लोभ न होय त्यां उत्तम शौचधर्म होय छे.
हवे उत्तम सत्यधर्म कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि जिनसूत्र – अनुकूळ ज वचन कहे, वळी तेमां जे आचारदि कह्यां छे ते पालन करवामां पोते असमर्थ होय तोपण अन्य प्रकारथी न कहे, व्यवहारथी पण अलीक एटले असत्य न कहे ते मुनि सत्यवादी छे अने ते ज उत्तम सत्यधर्म होय छे.
भावार्थः — जैनसिद्धान्तमां आचारदिकनुं जेवुं स्वरूप कह्युं होय तेवुं ज कहे पण एम नहि के पोताथी न पालन करी शकाय, एटले
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तेने अन्य प्रकारथी कहे – जेम छे तेम न कहे, पोतानुं मानभंग थाय तेथी जेम तेम कहे. वळी व्यवहार जे भोजनदि व्यापार तथा पूजा – प्रभावनदि व्यवहार तेमां पण जिनसूत्र अनुसार वचन कहे पण पोतानी इच्छानुसार जेम तेम न कहे. अहीं दस प्रकारथी सत्यनुं वर्णन छे — नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीतिसत्य, संवृत्तिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य, भावसत्य तथा समयसत्य. हवे मुनिराजनो मुनिजननी तथा श्रावकनी साथे वचनालापरूप व्यवहार छे त्यां घणो वचनालाप थाय तोपण सूत्रसिद्धान्तानुसार आ दस प्रकारथी सत्यरूप वचननी प्रवृत्ति होय छे.
१. गुण विना पण वक्तानी इच्छाथी कोई वस्तुनुं नाम – संज्ञा करवामां आवे ते नामसत्य छे.
२. रूपमात्रथी कहेवामां आवे अर्थात् चित्रमां जेम कोईनुं रूप आलेखी कहेवामां आवे के ‘आ सफेद वर्णवाळो फलाणो पुरुष छे; ते रूपसत्य छे.
३. कोई प्रयोजन अर्थे कोईनी मूर्ति स्थापी कहेवामां आवे ते स्थापनासत्य छे.
४. कोई प्रतीतिना अर्थे आश्रयपूर्वक कहेवामां आवे ते प्रतीतिसत्य छे. जेम ‘ताल’ एवुं परिमाण विशेष छे. तेना आश्रयथी कहेवामां आवे के ‘आ तालपुरुष छे’, अथवा लांबा कहे तो नानानी प्रतीति (आश्रय) करीने कहे.
५. लोकव्यवहारना आश्रयथी कहे ते संवृत्तिसत्य छे. जेम कमळनी उत्पत्तिनां अनेक कारणो छे तो पण पंकमां थयुं छे माटे पंकज कहीए छीए.
६. वस्तुने अनुक्रमे स्थापवानुं वचन कहे ते संयोजनासत्य छे. जेम दशलक्षणनुं मंडल करे तेमां अनुक्रमपूर्वक चूर्णना कोठा करे अने कहे आ उत्तम क्षमानो (कोठो) छे, इत्यदि जोडरूप नाम कहे, अथवा बीजुं द्रष्टान्तः जेम झवेरी मोतीनी लटो करे तेमां मोतीओनी संज्ञा
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स्थापी लीधी छे एटले ज्यां जेवुं जोईए ते ज अनुक्रमथी मोती परोवे.
७. जे देशमां जेवी भाषा होय ते कहेवी ते जनपदसत्य छे. ८. गाम – नगरदिनुं उपदेशक वचन ते देशसत्य छे. जेम चोतरफ वाड होय तेने गाम कहे छे.
९. छद्मस्थना ज्ञानथी अगोचर अने संयमदिक पालन अर्थे जे वचन बोलाय ते भावसत्य छे. जेम कोई वस्तुमां छद्मस्थना ज्ञानथी अगोचर जीव होय तोपण पोतानी द्रष्टिमां जीव नहि देखवाथी आगमअनुसार कहे के ‘आ प्रासुक छे’.
१०. आगमगोचर वस्तुने आगमनां वचनानुसार कहेवी ते समयसत्य छे. जेम पल्य – सागर इत्यदि कहेवा.
आ दस प्रकारनां सत्यनुं कथन गोम्मटसारमां पण छे. त्यां सात नाम तो आमां छे ते ज छे तथा त्रण नाम-देश, संयोजना अने समयनी जग्याए त्यां संभावना, व्यवहार अने उपमा एम छे अने उदाहरण अन्य प्रकारथी छे. ए विवक्षानो भेद समजवो, तेमां विरोध नथी.१ ए प्रमाणे जिनसूत्रानुसार सत्यवचननी प्रवृत्ति करे तेने (उत्तम) सत्यधर्म होय छे.
हवे उत्तम संयमधर्म कहे छेः —
अर्थ :—जनपदमां, संवृत्ति वा सम्मतिमां, स्थापनामां, नाममां, रूपमां, प्रतीत्यमां, व्यवहारमां, संभावनामां, भावमां, उपमामां — एवा दस स्थानोमां दस प्रकारथी सत्य जाणवां. (आ दस सत्यनी विशेष व्याख्या माटे जुओ गो. जी. गा. २२३ – २२४नी टीका)
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अर्थः — जे मुनि, जीवोनी रक्षामां तत्पर वर्ततो थको, गमनागमन अदि सर्व कार्योमां तृणनो छेदमात्र पण न इच्छे, न करे ते मुनिने उत्तम संयमधर्म होय छे.
भावार्थः — संयम बे प्रकारनो कह्यो छेः इन्द्रिय मननुं वश करवुं तथा छ कायना जीवोनी रक्षा करवी. मुनिने आहारविहारदि करवामां गमन – आगमनदि काम करवुं पडे छे पण ते कार्यो करतां एवा परिणाम रह्या करे के ‘हुं तृणमात्रनो पण छेद न करुं, मारा निमित्ते कोईनुं अहित न थाओ’. एवा यत्नरूप प्रवर्ते छे, जीवदयामां ज तत्पर रहे छे. अन्य ग्रंथोमां संयमनुं विशेष वर्णन कर्युं छे ते अहीं टीकाकार संक्षेपमां कहे छेः —
संयम बे प्रकारनो छेः एक उपेक्षासंयम तथा बीजो अपहृतसंयम. त्यां जे स्वभावथी ज राग-द्वेषने छोडी गुप्तिधर्ममां कायोत्सर्ग – ध्यानपूर्वक रहे तेने उपेक्षासंयम कहे छे. ‘उपेक्षा’ नाम उदासीनता वा वीतरागतानुं छे. बीजा अपहृतसंयमना त्रण भेद छेः उत्कृष्ट, मध्यम अने जघन्य. त्यां चालतां – बेसतां जो जीव देखाय तो तेने टाळीने जाय पण जीवने सरकावे नहि ते उत्कृष्ट छे, कोमळ मोरपींछीथी जीवने सरकावे ते मध्यम छे तथा अन्य तृणदिकथी सरकावे ते जघन्य छे. अहीं अपहृतसंयमीने पांच समितिनो उपदेश छे. त्यां आहार-विहार अर्थे गमन करे तो प्रासुकमार्ग जोई जुडाप्रमाण (चार हाथ) भूमिने जोई मंद मंद अति यत्नाचारपूर्वक गमन करे ते इर्यासमिति छे; धर्मोपदेशदि अर्थे वचन कहे तो हितरूप, मर्यादापूर्वक अने संदेहरहित स्पष्ट अक्षररूप वचन कहे, अति प्रलापदि वचनना दोषरहित बोले ते भाषासमिति छे; कायानी स्थिति अर्थे आहार करे, ते पण मन-वचन-काय-कृत-करित-अनुमोदना दोष जेमां न लागे एवो, परनो आपेलो, छेंतालीस दोष, बत्रीस अंतराय अने चौद मळदोष
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रहित, पोताना करपात्रमां, ऊभा ऊभा, अति यत्नपूर्वक शुद्धआहार करे ते एषणासमिति छे; अति यत्नाचारपूर्वक भूमिने जोईने धर्मनां उपकरणो उठाववां मूकवां ते आदाननिक्षेपणसमिति छे त्रस – स्थावरजीवोने जोई – टाळी यत्नपूर्वक शरीरनां मळ – मूत्रदिने क्षेपवां (नाखवां – दाटवां) ते प्रतिष्ठापना समिति छे. ए प्रमाणे पांच समिति पालन करे तेनाथी संयम पळाय छे. (सिद्धान्तमां) एम कह्युं छे के – जो यत्नाचारपूर्वक प्रवर्ते छे तो तेनाथी बाह्य जीवोने बाधा थाय तोपण तेने बंध नथी, तथा यात्नाचाररहित प्रवर्ते छे तेने बाह्य जीव मरो वा न मरो पण बंध अवश्य थाय छे.
वळी अपहृतसंयमना पालन अर्थे आठ विशुद्धिओनो उपदेश छे. १. भावशुद्धि, २. कायशुद्धि, ३. विनयशुद्धि, ४. इर्यापथशुद्धि, ५. भिक्षाशुद्धि, ६. प्रतिष्ठापनाशुद्धि, ७. शयनासनशुद्धि तथा ८. वाक्यशुद्धि. तेमां भावशुद्धि तो कर्मना क्षयोपशमजनित छे, ए विना आचार प्रगट थतो नथी; जेम शुद्ध उज्ज्वळ भींत उपर चित्र शोभायमान देखाय छे तेम. वळी दिगम्बररूप, सवरविकारो रहित, यत्नपूर्वक प्रवृत्ति छे जेमां एवी, शान्त मुद्राने जोई अन्यने भय न ऊपजे अने पोते पण निर्भय रहे एवी कायशुद्धि छे. ज्यां अरहंतदिमां भक्ति तथा गुरुजनने अनुकूळ रहेवुं एवी विनयशुद्धि छे. जीवोनां सर्व स्थान मुनि जाणे छे तेथी पोताना ज्ञान द्वारा सूर्यना उद्योतथी नेत्रइन्द्रिय वडे मार्गमां अति यत्नपूर्वक जोईने चालवुं ते इर्यापथशुद्धि छे. भोजन माटे जतां पहेलां पोताना मळ-मूत्रनी बाधाने परखे, पोताना अंगनुं बराबर प्रतिलेखन करे. आचारसूत्रमां कह्या प्रमाणे देश
माटे प्रवेश करे नहि — ज्यां गीत नृत्य वजिंत्र वडे जेनी आजीविका होय तेना घेर जाय नहि, प्रसूति थई होय त्यां जाय नहि, ज्यां मृत्यु थयुं होय त्यां जाय नहि, वेश्याना घरे जाय नहि, ज्यां पापकर्म – हिंसाकर्म थतुं होय त्यां जाय नहि, दीनना घरे, अनाथना घरे, दानशाळामां, यज्ञशाळामां, यज्ञपूजनशाळामां तथा विवाहदि मंगळ ज्यां होय तेना घरे आहार अर्थे जाय नहि, धनवानने त्यां जवुं के निर्धनने त्यां जवुं एम
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विचारे नहि, लोकनिंद्य कुळना घरे जाय नहि, दीनवृत्ति करे नहि, आगममां कह्या प्रमाणे दोष – अंतराय टाळी निर्दोष प्रासुक आहार ले ते भिक्षाशुद्धि छे. त्यां लाभ – अलाभ, सरस – नीरसमां समानबुद्धि राखे. एवी भिक्षा पांच प्रकारनी कही छे. १. गोचरी, २. अक्षम्रक्षण, ३. उदरग्निप्रशमन, ४. भ्रमराहार, ५. गर्तपूरण. त्यां गायनी माफक दातारनी संपददि तरफ नहि जोतां जेवो प्राप्त थयो तेवो आहार लेवामां ज चित्त राखे ते गोचरीवृत्ति छे, जेम गाडीने वांगि (ऊंजण करी) गाम पहोंचाडे तेम संयमनी साधक कायाने निर्दोष आहार आपी संयम साधे ते अक्षम्रक्षणवृत्ति छे. अग्नि लागी होय तेने जेवा तेवा पाणीथी बुझावी घरने बचावे तेम क्षुधाअग्निने सरस – नीरस आहारथी बुझावी पोताना परिणाम उज्ज्वळ राखे ते उदरग्निप्रशमनवृत्ति छे. भमरो जेम फूलने बाधा न पहोंचे अने वासना ले तेम मुनि दातारने बाधा पहोंचाड्या सिवाय आहार ले ते भ्रमराहारवृत्ति छे. तथा जेम गर्तने एटले खाडाने जेम तेम भरती करी भरी देवामां आवे तेम मुनि स्वाद – बेस्वाद आहारथी उदरने भरे ते गर्तपूरणवृत्ति छे. – ए प्रमाणे भिक्षाशुद्धि छे. जीवोने जोई यत्नपूर्वक मळ-मूत्र-श्लेष्म-थूंक वगेरे क्षेपण करे ते प्रतिष्ठापनाशुद्धि छे. ज्यां स्त्री, दुष्ट जीव, नपुंसक, चोर, मद्यपानी अने जीववध करवावाळा नीच मनुष्यो वसता होय त्यां (मुनि) न वसे ते शयनासनशुद्धि छे; वळी श्रृंगार, विकारी आभूषण, सुंदर वेष धारनारी एवी वेश्यदिकनी ज्यां क्रीडा होय, सुंदर गीत, नृत्य, वजिंत्र ज्यां थतां होय, ज्यां विकारना कारणरूप नग्न गुह्यप्रदेश जेमां देखाय एवां चित्र होय, ज्यां हास्य-महोत्सव, घोडा अदिने शिक्षा आपवानुं स्थान होय, व्यायामभूमि होय तथा जेनाथी क्रोधदिक ऊपजी आवे एवा ठेकाणे मुनि न वसे ते पण शयनासनशुद्धि छे; ज्यां सुधी कायोत्सर्गपूर्वक ऊभा रहेवानी शक्ति होय त्यां सुधी स्वरूपमां लीन बनी ऊभा रहे पछी बेसे तथा कोई वेळा खेद मटाडवा माटे अल्प काळ सूवे (ते पण शयनासनशुद्धि छे). ज्यां आरंभनी प्रेरणा रहित वचन प्रवर्ते पण युद्ध – काम – कर्कश – प्रलाप – पैशून्य – कठोर – परपीडाकारक वचन न प्रवर्ते, अनेक विकथारूप
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वचन न प्रवर्ते, जेमां व्रत-शीलनो उपदेश होय, पोतानुं तथा परनुं जेथी हित थाय एवां मीठां – मनोहर – वैराग्यहेतुरूप, स्वात्मप्रसंशा अने परनिंदा रहित संयमीने योग्य वचन प्रवर्ते ते वाक्यशुद्धि छे. ए प्रमाणे संयमधर्म छे. संयमना पांच भेद कह्या छेः सामयिक, छेदोपस्थापना, परिहार- विशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय अने यथाख्यात एवा पांच भेद छे. तेमनुं विशेष व्याख्यान अन्य ग्रंथोथी जाणवुं.
हवे उत्तम तपधर्म कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि आलोक – परलोकना सुखनी अपेक्षारहित तथा सुख – दुःख, शत्रु – मित्र, तृण – कंचन अने निंदा – प्रसंशदिमां राग-द्वेष- रहित समभावी थई अनेक प्रकारनो कायक्लेश करे छे, ते मुनिने निर्मल अर्थात् उत्तम तपधर्म होय छे.
भावार्थः — चरित्र अर्थे जे उद्यम अने उपयोग करे तेने तप कह्युं छे. त्यां ते कायक्लेश सहित ज होय छे, तेथी आत्मामां विभावपरिणतिना संस्कार थाय छे तेने मटाडवानो ते उद्यम करे छे. पोताना शुद्धस्वरूप उपयोगने चरित्रमां थंभावे छे ते घणा जोरथी थंभे छे; ए जोर करवुं ए ज तप छे. ते बाह्य-अभ्यंतर भेदथी बार प्रकारनुं कह्युं छे. तेनुं वर्णन आगळ चूलिकामां करवामां आवशे. ए प्रमाणे उत्तम तपधर्मनुं वर्णन कर्युं.
हवे उत्तम त्यागधर्म कहे छेः —
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अर्थः — जे मुनि मिष्ट भोजन छोडे, राग-द्वेषने उपजाववावाळां उपकरणोनो त्याग करे तथा ममत्वना कारणरूप वसतिकानो त्याग करे, ते मुनिने (उत्तम) त्यागधर्म होय छे.
भावार्थः — संसार-देह-भोगना ममत्वनो त्याग तो मुनिने पहेलेथी ज छे; अहीं तो जे वस्तुओनुं काम पडे छे तेने मुख्य करीने कह्युं छे. आहारथी काम पडे छे तो त्यां सरस – नीरसमां ममत्व करता नथी, पुस्तक-पींछी-कमंडल ए धर्मोपकरणोमां जेमनाथी राग तीव्र वधे एवां न राखे, जे गृहस्थजनना काममां न आवे तथा कोई मोटी वसति – रहेवानी जग्याथी काम पडे तो त्यां एवी जग्यामां न रहे के जेनाथी ममत्व ऊपजे. ए प्रमाणे (उत्तम) त्यागधर्म कह्यो.
हवे उत्तम अकिंचन्यधर्मने कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि मन-वचन-काय – कृत-करित-अनुमोदना पूर्वक सर्व चेतन – अचेतन परिग्रहनो सर्वथा त्याग करे छे – केवो थतो थको? लोकव्यवहारथी विरक्त थतो थको त्याग करे छे — ते मुनिने निर्ग्रन्थपणुं होय छे.
भावार्थः — मुनि अन्य परिग्रह तो छोडे ज छे, परंतु मुनिपणामां योग्य एवा चेतन तो शिष्य-संघ तथा अचेतन पुस्तक -पींछी-कमंडल – अदि धर्मोपकरण अने आहार – वसतिका – देह एमनाथी सर्वथा ममत्व त्याग करे. एवो विचार करे के ‘हुं तो एक आत्मा ज
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छुं – अन्य मारुं कांई पण नथी, हुं अकिंचन छुं’ — एवुं निर्ममत्व थाय तेने (उत्तम) अकिंचन्य धर्म होय छे.
हवे उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म कहे छेः —
अर्थः — जे मुनि स्त्रीओनी संगति न करे, तेमना रूपने न नीरखे, कामनी कथा तथा ‘अदि’ शब्दथी तेना स्मरणदिथी रहित होय, ए प्रमाणे मन-वचन-काय, कृत-करित-अनुमोदना एम नव प्रकारथी तेनो त्याग करे, ते मुनिने उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म होय छे.
भावार्थः — अहीं एम पण जाणवुं के – ‘ब्रह्म’ नाम आत्मा छे, तेमां लीन थाय ते ब्रह्मचर्य छे. परद्रव्यमां आत्मा लीन थाय तेमां स्त्रीमां लीन थवुं प्रधान छे, कारण के काम मनमां उत्पन्न थाय छे एटले अन्य कषायोथी पण ए प्रधान छे, अने ए कामनुं आलंबन स्त्री छे एटले तेनो संसर्ग छोडी मुनि पोताना स्वरूपमां लीन थाय छे. तेनी संगति करवी, रूप नीरखवुं, तेनी कथा करवी, स्मरण करवुं – ए सर्व छोडे तेने ब्रह्मचर्य होय छे. अहीं (संस्कृत) टीकामां शीलना अढार हजार भेद आ प्रमाणे लख्या छेः —
अचेतन स्त्री – काष्ठ, पाषाण अने लेपकृत छे. तेना मन-वचन-काय तथा कृत-करित-अनुमोदना ए छए गुणतां अढार भेद थया, तेने पांच इन्द्रियोथी गुणतां नेवुं भेद थया, तेने द्रव्य अने भावथी गुणतां एकसो एंशी भेद थया, तेने क्रोध-मान-माया-लोभ ए चारेथी गुणतां सातसो वीस भेद थया. (ए प्रमाणे अचेतन स्त्री – नैमित्तिक कुशील सातसो वीस भेद थयुं.) तथाः —
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चेतन स्त्री — देवांगना, मनुष्यणी अने तिर्यंचणी. ए त्रणने कृत -करित-अनुमोदनाथी गुणतां नव भेद थया, तेने मन-वचन-काया ए त्रणथी गुणतां सत्तावीश भेद थया, तेने पांच इन्द्रियोथी गुणतां एकसो पांत्रीस भेद थया, तेने द्रव्य अने भावथी गुणतां बसो सीत्तेर भेद थया, तेने आहार-भय-मैथुन-परिग्रह ए चार संज्ञाथी गुणतां एक हजार एंशी भेद थया, तेने अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणी अने संज्वलनरूप क्रोध-मान-माया-लोभरूप सोळ कषायोथी गुणतां सत्तर हजार बसो एंशी भेद थया, तेमां उपरना अचेतनस्त्रीनैमित्तिक सातसो वीस मेळवतां कुशीलना १८००० – अढार हजार भेद थाय छे. वळी ए भेदोने अन्य प्रकारथी पण कह्या छे ते अन्य ग्रंथोमांथी जाणवा.★
भेद छे. ते बधाने छोडी ज्यारे आत्मा पोताना स्वरूपमां रमण करे त्यारे उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म होय छे.
हवे शीलवाननुं माहात्म्य कहे छेः —
★ अशुभ मन-वचन-कायने शुभ मन-वचन-कायथी हणवा ए रीते शीलना नव भेद थया.
ए नवने अहार, भय, मैथुन ने परिग्रहरूप चार संज्ञाओथी गुणतां ३६ भेद थया.
ए छत्रीसने पांच इन्द्रियोना जयथी गुणतां १८० भेद थया. ए १८०ने पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय अने असंज्ञी पंचेन्द्रिय ए दश भेदथी गुणतां १८०० भेद थया.
तेने उत्तमक्षमदि दशधर्मे गुणतां १८००० भेद थया.
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अर्थः — जे पुरुष, स्त्रीजनना कटाक्षरूप बाणोथी विंधायो छतां पण, विकारने प्राप्त थतो नथी ते शूरवीरोमां प्रधान छे, परंतु जे रणसंग्राममां शूरवीर छे ते (खरेखर) शूरवीर नथी.
भावार्थः — युद्धमां सामी छातीए मरवावाळा शूरवीर तो घणा छे पण जे स्त्रीवश न बनी ब्रह्मचर्यव्रत पालन करे छे एवा विरला छे, ए ज घणा साहसी – शूरवीर अने कामने जीतवावाळा खरा सुभट छे. ए प्रमाणे दस प्रकारथी यतिधर्मनुं व्याख्यान कर्युं.
हवे तेने संकोचे छेः —
अर्थः — आ दस प्रकाररूप धर्म छे ते ज नियमथी दशलक्षणस्वरूप धर्म छे, परंतु बीजा के ज्यां सूक्ष्म पण हिंसा होय ते धर्म नथी.
भावार्थः — ज्यां हिंसा करी तेमां कोई अन्यमती धर्म स्थापन करे तेने धर्म कही शकाय नहि; आ दशलक्षणस्वरूप धर्म कह्यो ते ज नियमथी धर्म छे.
आ गाथामां कह्युं के — ज्यां सूक्ष्म पण हिंसा होय त्यां धर्म नथी.
हवे ए ज अर्थने स्पष्टतापूर्वक कहे छेः —
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अर्थः — ‘हिंसा थाय ते पाप छे तथा जेमां दयाप्रधान छे ते धर्म छे’ एम कह्युं छे माटे देवना अर्थे वा गुरुकार्यने अर्थे हिंसा -आरंभ करवां ते शुभ नथी.
भावार्थः — अन्यमती हिंसामां धर्म स्थापन करे छे. मीमांसक तो यज्ञ करे छे तेमां पशुओने होमी तेनुं शुभ फळ बतावे छे; देवी – भैरवना उपासको बकरां वगेरे मारी देवी – भैरवने चढावे छे अने तेनुं शुभ फळ माने छे; बौद्धमती हिंसा करी मांसदिकना आहारने शुभ कहे छे तथा श्वेताम्बरोनां केटलांक सूत्रोमां एम कह्युं छे के – ‘देव-गुरु -धर्मना माटे चक्रवर्तीनी सेनाने पीली नांखवी; जे साधु आ प्रमाणे नथी करतो ते अनंतसंसारी थाय छे. वळी कोई ठेकाणे मद्य – मांसनो आहार पण तेमां लख्यो छे. ए सर्वनो आ गाथाथी निषेध कर्यो छे एम समजवुं, जे देव-गुरुना कार्य माटे पण हिंसानो आरंभ करे छे ते शुभ नथी, धर्म तो दयाप्रधान ज छे.
वळी आ प्रमाणे पण समजवुं के पूजा, प्रतिष्ठा, चैत्यालयनुं निर्मापन, संघ – यात्रा तथा वसतिकानुं निर्मापन अदि गृहस्थनां कार्यो छे, तेने पण मुनि पोते न करे, न करावे, न अनुमोदे; कारण के ते गृहस्थोनो धर्म छे. तेमनुं विधान सूत्रमां लख्युं होय तेम गृहस्थ करे. गृहस्थ मुनिने आ संबंधी प्रश्न करे तो मुनि आम कहे के ‘जिनसिद्धान्तमां गृहस्थनो धर्म पूजा – प्रतिष्ठदि लख्यो छे तेम करो.’ आ प्रमाणे कहेवामां हिंसानो दोष तो गृहस्थने ज छे, मात्र ए श्रद्धान — भक्तिधर्मनी प्रधानता तेमां जे थई, ए संबंधी जे पुण्य थयुं. तेना सीरी (भागीदार) मुनि पण छे, परंतु हिंसा तो गृहस्थनी छे, तेना सीरी (भागीदार) नथी. वळी गृहस्थ पण जो हिंसा करवानो अभिप्राय करे तो ते अशुभ ज छे. पूजा – प्रतिष्ठा यत्नपूर्वक करे छे ते कार्यमां गृहस्थने हिंसा थाय तो ते केम टळे? तेनुं समाधान आ
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छे के – सिद्धान्तमां आम पण कह्युं छे, के अल्प अपराध लागतां पण जो घणुं पुण्य थतुं होय तो एवुं कार्य गृहस्थे करवुं योग्य छे. गृहस्थ तो जेमां नफो जाणे ते कार्य करे; जेम थोडुं द्रव्य आपतां पण जो घणुं द्रव्य आवतुं होय तो ते कार्य करे छे. पण मुनिने एवां कार्य होतां नथी. तेने तो सर्वथा यत्नपूर्वक ज प्रवर्तवुं योग्य छे एम समजवुं.
अर्थः — देवगुरुना अर्थे हिंसानो आरंभ पण जो यतिनो धर्म होय तो जिनभगवाननां एवां वचन छे के ‘धर्म हिंसा रहित छे’ ए वचन जूठ ठरे.
भावार्थः — भगवाने धर्म तो हिंसा रहित कह्यो छे माटे देव -गुरुना कार्य अर्थे पण मुनि हिंसानो आरंभ न करे, श्वेतांबर कहे छे ते मिथ्या छे.
हवे धर्मनुं दुर्लभपणुं दर्शावे छेः —
अर्थः — ए प्रमाणे जे जीव अनदिकाळथी मिथ्यात्वसंयुक्त छे, जेने काळदि लब्धि प्राप्त थई नथी, तेने आ जिनेश्वरदेवनो धर्म अलब्धपूर्व छे अर्थात् पूर्वे कदी पण ते पाम्यो नथी.
भावार्थः — जीवोने अनदिकाळथी मिथ्यात्वनी अलट (गांठ) एवी छे के तेने जीव – अजीवदि तत्त्वार्थोनुं श्रद्धान कदी पण थयुं नथी
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अने तत्त्वार्थश्रद्धान विना अहिंसाधर्मनी प्रप्ति क्यांथी होय?
हवे कहे छे के — एवा अलब्धपूर्व धर्मने पामी तेने केवळ पुण्यना ज आशयथी न सेववोः —
अर्थः — ए दश प्रकारे धर्मना भेद कह्या ते पापकर्मनो नाश करवावाळा तथा पुण्यकर्मने उत्पन्न करवावाळा कह्या; परंतु तेने केवळ पुण्यना ज अर्थे एटले प्रयोजनथी अंगिकार न करवा.
भावार्थः — शातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम अने शुभगोत्रने तो पुण्यकर्म कहे छे तथा चार घतिकर्म, अशातावेदनीय, अशुभनाम, अशुभआयु अने अशुभगोत्रने पापकर्म कहे छे. हवे अहीं आ दशलक्षणधर्म पापने नाश करवावाळो तथा पुण्यने उपजाववावाळो कह्यो; त्यां केवळ पुण्य उपजाववानो अभिप्राय राखी तेने न सेववो, कारण के पुण्य पण बंध ज छे. अने आ धर्म तो पाप जे घतिकर्म छे तेने नाश करवावाळो छे. तथा अघतिमां जे अशुभप्रकृति छे तेनो नाश करे छे. पुण्यकर्म छे ते सांसरिक अभ्युदयने आपे छे. हवे तेनाथी (दशलक्षणधर्मथी) व्यवहारअपेक्षाए तेनो पण (पुण्यनो पण) बंध थाय छे तो ते स्वयमेव ज थाय छे, पण तेनी वांच्छा करवी ए तो संसारनी ज वांच्छा करवा तुल्य छे अने ए तो निदान (चोथुं आर्त्तध्यान) थयुं, मोक्षना जिज्ञासुने ते होय नहि. जेम खेडूत अनाज माटे खेती करे छे, तेने घास तो स्वयमेव थाय छे, तेनी वांच्छा ते शा माटे करे? तेम मोक्षना अर्थीने ए पुण्यबंधनी वांच्छा करवी योग्य नथी.
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अर्थः — जे पुण्यने पण इच्छे छे ते पुरुषे संसार इच्छ्यो, कारण के पुण्य छे ते सुगतिना बंधनुं कारण छे अने मोक्ष छे ते तो पुण्यनो पण क्षय करी प्राप्त थाय छे.
भावार्थः — पुण्यथी सुगति थाय छे एटले जेणे पुण्य वांच्छ्युं तेणे संसार वांच्छ्यो, कारण के सुगति छे ते पण संसार ज छे; अने मोक्ष तो पुण्यनो पण क्षय थतां थाय छे एटले मोक्षार्थीए पुण्यनी वांच्छा करवी योग्य नथी.
अर्थः — जे कषाय सहित थतो थको विषयसुखनी तृष्णाथी पुण्यनी अभिलाषा करे छे तेने मंदकषायना अभावथी विशुद्धता दूर वर्ते छे. अने पुण्यकर्म छे ते तो विशुद्धता (मंदकषाय) छे मूळ – कारण जेनुं एवुं छे.
भावार्थः — विषयोनी तृष्णाथी जे पुण्यने इच्छे छे ए ज तीव्रकषाय छे अने पुण्यबंध थाय छे ते तो मंदकषायरूप विशुद्धताथी थाय छे, एटले जे पुण्यने इच्छे छे तेने आगामी पुण्यबंध पण थतो नथी, निदानमात्र फळ थाय तो थाय.